भगवा के सामने पंख फैलाती फतवा की राजनीति
वीरेन्द्र सिंह परिहार
स्वर्गीय बाला साहब ठाकरे ने जब शिवसेना की स्थापना की तो उस समय उनका लक्ष्य भले मराठी अस्मिता रही हो लेकिन आगे चलकर उनके ही दौर में वह हिन्दुत्व की ध्वजा वाहक हो गई। 1990 के आसपास से ही शिवसेना और भाजपा का जो गठजोड़ बना, वह लम्बे समय तक चला। चूँकि दोनो ही हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद से अनुप्रेरित थी, इसलिये दोनो का मेल सहज और स्वाभाविक था। इसमें जहाँ भाजपा लोकसभा चुनाव में बड़े भाई की भूमिका में थी, वहीं शिवसेना विधानसभा चुनावों में बड़े भाई की भूमिका में थी। यद्यपि बाला साहब के जीवन के अंतिम दौर में ही भाजपा विधानसभा में भी शिवसेना की तुलना में बड़ी पार्टी बन चुकी थी। यह बात और है कि उद्धव ठाकरे इस बात को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे। इसी का नतीजा यह हुआ कि वर्ष 2014 में जब विधानसभा के चुनाव हुये तो उद्धव की हठधर्मिता के चलते समझौता न हो पाने के कारण दोनो पार्टियाँ अलग-अलग चुनाव लड़ीं लेकिन जब नतीजे आये तो शिवसेना भाजपा की तुलना में आधी सीटें ही पा सकी। फलतः मजबूरी में उद्धव ठाकरे को भाजपा के देवेन्द्र फड़नवीस वाली सरकार के नेतृत्व में शामिल होना पड़ा। यहाँ तक कि उनके मनपसंद विभागों की मांग पर भी भाजपा ने कोई भाव नहीं दिया।
ऐसी स्थिति में उद्धव ठाकरे को सच्चाई तो समझ में आ गई कि इस तरह से उनका मुख्यमंत्री बन पाना कतई संभव नहीं है, फलतः उन्होंने 2019 के विधानसभा चुनावों में भाजपा से समझौता तो कर लिया। इतना ही नहीं उन्होंने मोदी के नाम पर अपने उम्मीदवारों के लिये वोट भी मांगे लेकिन भाजपा की तुलना में पुनः करीब आधी सीट पाने के बावजूद इन्होंने कहना शुरू कर दिया कि अमित शाह ने उनसे वायदा किया था कि दोनो पार्टियाँ ढ़ाई-ढ़ाई वर्ष तक सरकार का नेतृत्व करेंगे जबकि यह बात पूरी तरह झूँठी और निराधार थी। वैसे भी ऐसी बाते चोरी-छुपे नहीं, सार्वजनिक रूप से कही जाती हैं। परिणामतः जिस मुख्यमंत्री की कुर्सी को बाला साहब ठाकरे ज्यादा भाव नहीं देते थे, उद्धव ठाकरे उस कुर्सी के लिये एन.सी.पी. और कांग्रेस पार्टी से मिलकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ गये पर उनका यह कृत्य निहायत अवसरवादिता ही नहीं बल्कि एक तरह से इसे विश्वासघात और धोखाधड़ी की संज्ञा भी दी जा सकती है जिसके लिये पूरे विश्व साहित्य में कहीं भी क्षमा-भाव नहीं है। यह बात और है कि सत्ता में बैठने के ढ़ाई वर्ष में ही शिवसेना के अधिकांश विधायकों और सांसदों ने एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में उद्धव ठाकरे से विद्रोह कर दिया और उद्धव की मुख्यमंत्री की कुर्सी चली गई।
कहने को तो उद्धव अब भी अपने को हिन्दुत्ववादी ही कहते हैं पर जिन लोगो के साथ मिलकर उन्होंने नई पारी की शुरूआत की, उनके लिये हिन्दुत्व एक गाली जैसा है। इसीलिये उद्धव भी भाजपा की हिन्दुत्व की नीतियों पर प्रहार करने लगे। इसका उदाहरण सीएए कानून को लेकर देखा जा सकता है जिसे उद्धव ने राजनीतिक कदम बताकर प्रकारान्तर से विरोध किया। इसी तरह से गत वर्ष 2022 जनवरी को राम मंदिर का उद्घाटन भी उन्हें नहीं पसंद आया और इसी पर भी वह नुक्ताचीनी करते रहे। ताजा उदाहरण वक्फ बोर्ड कानून के बदलाव का है जिसका शिवसेना उद्धव गुट विरोध कर रहा है पर उद्धव ठाकरे और उनकी शिवसेना का असली रंग तो इस समय महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में देखने को मिला। उद्धव का यह मानना था कि एनसीपी और कांग्रेस उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा मानकर चुनाव लड़ेगी लेकिन दोनो ही पार्टियों ने कह दिया कि परम्परा के अनुसार जिस पार्टी के विधायक ज्यादा होंगे, उसी दल का मुख्यमंत्री होगा। यद्धपि उद्धव ने इसके लिये बहुत हांथ-पैर मारे, पर कुछ काम न आया। इतना ही नहीं, उद्धव की सबसे ज्यादा टिकट की दावेदारी भी काम नहीं आई और कांग्रेस पार्टी की 102 की तुलना में उन्हें मात्र 87 विधानसभा सीटों पर ही उम्मीदवारी मिली। इस तरह से घोंषित रूप से उन्हें और उनकी शिवसेना को औपचारिक तौर पर ही बड़े भाई की भूमिका से अपदस्थ कर दिया गया।
हद तो तब हो गई जब आल इंडिया उलेमा बोर्ड महाराष्ट्र ने लम्बा- चौड़ा माँग-पत्र महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी गठबंधन को दिया और उसमें मुस्लिमों को दस प्रतिशत आरक्षण, सत्ता में आने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बैंन, वक्फ बोर्ड के विकास के लिये हजार करोड़ रूपये की मांग, 2012 से 2024 तक दंगो के चलते जेलों में बंद मुसलमानों के रिहाई की मांग, पुलिस और सरकारी नौकरी में प्राथमिकता, महाराष्ट्र वक्फ बोर्ड में 500 कर्मचारियों की भर्ती, मस्जिदों के इमाम और मौलवियों को मासिक 15000 रूपये भत्ता देने की मांग तो है ही, राम गिरी महाराज और नीतेश राणे को जेल में डालने की मांग की है। खबर है कि महाविकास अघाड़ी जिसकी शिवसेना भी एक घटक है, उसके द्वारा उलेमा बोर्ड की यह सभी मांगे सैद्धांतिक तौर पर मान ली गई हैं। नतीजे में मुस्लिम मौलवी और इमामों द्वारा कांग्रेस और एनसीपी के साथ शिवसेना उद्धव के लिये भी फतवे 29 नवम्बर को होने वाले मतदान में मुसलमानों के बीच जारी किये जा रहे हैं। इस तरह से शिवसेना की भगवा से फतवा तक की यात्रा देखी जा सकती है। शिवसेना उद्धव गुट की स्थिति देखकर यही कहा जा सकता है- ‘‘ना खुदा ही मिला ना विशाले सनम।’’