●
● किसी पदार्थ के विषय में मतभेद होना उसके अभाव का हेतु नहीं हो सकता
(A logical solution to a query raised by the Atheist)
- पण्डित देवप्रकाश
● नास्तिक का प्रश्न :
ईश्वर के मानने वाले जितने भी सम्प्रदाय ओर मत हैं उन सबका ईश्वर की सत्ता और स्वरूप में बड़ा भारी मतभेद है। इससे स्पष्टतया विदित है कि ईश्वर एक निराधार कल्पना है। यदि वास्तव में कोई ईश्वर होता तो दो और दो को सब ही मनुष्य चार कहते हैं, इसी प्रकार सव ईश्वरवादियों का भी एक ही मत होता। अतः इस विरोध से स्पष्ट है कि हौव्वा की तरह ईश्वर भी एक मिथ्या कल्पना है, केवल चतुर मनुष्यों ने अपना उल्लू सीधा करने और जनता को अपना अनुगामी बनाने के लिये एक गढ़न्त गढ़ रखी है।
● आस्तिक का उत्तर :
प्रथम हम अनीश्वरवादियों से पूछते हैं कि क्या सृष्टि उत्पत्ति के विषय में आप सब नास्तिकों का एक ही मत हे? क्या नवीन और प्राचीन विज्ञानवेताओं का काल, स्वभाव, शक्ति, प्रकृति और अन्य अभाववादिओं जैन, बौद्ध, चारवाक, देवसमाजी, साम्यवादी, विकासवादी आदि अनेक नास्तिक सम्प्रदायों का सृष्टि उत्पत्ति के विषय में भारी विरोध नहीं हे? यह विरोध यहां ही समाप्त नहीं हो जाता किन्तु नित्य नये विज्ञानवेता इस विषय में अपना नवीन मत ही उपस्थित करते जा रहे हैं। योरुप के नये ओर पुराने विज्ञान में बड़ा अन्तर है, उस पर भी नित्य नया परिवर्तन होता जा रहा है। क्या इस इतने बड़े भारी विरोध ओर अनिश्चित स्थिति को सामने रखते हुए प्रश्नकर्ता नास्तिक महोदय से हम उसके प्रश्नानुसार यह पूछ सकते हैं कि जिस अवस्था में अनीश्वरवादियों का सृष्टि उत्पत्ति के विषय में बड़ा भारी मतभेद है, क्या आप इस विरोध को देखते हुए यह मान लेंगे कि सृष्टि नहीं है?…
ईश्वर के सम्बन्ध में साम्प्रदायिक मतभेद ईश्वर के अस्तित्व में नहीं, केवल स्वरूप में है।…यहां सबसे प्रथम यह जान लेना आवश्यक है कि किसी पदार्थ के विषय में मतभेद होना उसके अभाव का हेतु नहीं हो सकता। यदि प्रत्येक वस्तु में विरोध होने के कारण उसका अभाव मान लिया जाय तो संसार में अनेक पदार्थ ऐसे हैं जिनके विषय में परस्पर मतभेद है।
भूमि को ही लीजिये – कोई इसे स्थिर मानता है कोई सूर्य के गिर्द घूमती हुईं, कोई गोलाकार, कोई चपटी, कोई आकर्षण शक्ति का केन्द्र और कोई उससे रिक्त मानता है। क्या इस मतभेद के कारण भूमि की सत्ता से ही इन्कार कर दिया जावे ? इसी प्रकार सूर्य, चन्द्र और अन्य लोक लोकान्तरों के विषय में मतभेद है इत्यादि।
मतभेद का यह तात्पर्य नहीं है कि वह वस्तु ही नहीं, हम बलपूर्वक कहेंगे कि ईश्वर के जानने वालों में कुछ भी मतभेद नहीं है। कुछ नवीन मतमतान्तरों की कल्पना से जो ईश्वर के स्वरूप से सर्वथा अनभिज्ञ हैं उन्हें मतभेद दिखाई पड़ता है, जो नीचे लिखी गाथा के सदृश है –
कहते हैं कि किसी मनुष्य ने पांच अन्धों को लेकर कहा कि आओ तुम्हें हाथी दिखायें। सो उसने उनमें से एक को हाथी की टांग दिखा दी, दूसरे को सूंड, तीसरे को दुम, चौथे को कान, पांचवे को पेट दिखा दिया। जब सब नेत्रहीन इकट्ठे हुए तो इनसे पूछा कि तुम हाथी देख आये हो वह केसा था? टांग देखने वाले ने कहा कि वह खम्मे की तरह है। सूंड वाले ने कहा नहीं बड़े मोटे सांप की तरह होता है। दुम वाले ने कहा चवर की तरह हिलता हुआ होता है। कान वाले ने कहा झूठ है हाथी तो पंखे के सदृश है। पेट देखने वाले ने कहा कि यह सब झूठे हैं। हाथी तो मोटे वृक्ष के तने के समान होता है। ठीक इन अन्धों की भांति ईश्वर के विषय में मतमतान्तरों की कल्पना है। प्रश्नकर्ता ने एक अप्रमाणिक बात को लेकर आक्षेप कर दिया है। अतः ऐसा प्रश्न दाशनिक दृष्टि से निग्रह कोटि में है। क्या कोई मनुष्य किसी गंवार को मुलम्मा [किसी वस्तु पर सोने की चढ़ाई हुई तह] देकर बहका दे कि यह सोना है तो उसके कारण सोने की सत्ता से इन्कार करना उचित नहीं है। जैसे दो और दो चार होते हैं, इसी प्रकार आत्मदर्शियों में ईश्वर के विषय में कोई विरोध नहीं है।
[स्रोत : आस्तिक विचार, पृ. 148-151, संस्करण : 1940, प्रस्तुति : भावेश मेरजा]
●●●