भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भाग – 410 [हिन्दवी – स्वराज के संस्थापक शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी पुस्तक से] *हिंदवी स्वराज्य का संघर्ष और छत्रपति राजाराम महाराज (अध्याय -09)* भाग – 2

द्वीप पर मुगल सेना का आक्रमण

राजाराम महाराज अपनी ओर से पूर्ण सावधानी बरतते हुए यद्यपि तुंगभद्रा के तट तक पहुँच गए थे, परंतु शत्रु भी उनका पीछा करता आ रहा था। अतः राजा का सावधान रहना बहुत आवश्यक था। पता नहीं शत्रु कब उन पर अपनी ओर से आक्रमण कर दे? ऐसी ही स्थिति, परिस्थितियों, शंका-आशंकाओं के मध्य एक दिन मध्यरात्रि को मुगल सेना की एक बडी टुकड़ी द्वारा उन पर आक्रमण कर ही दिया गया। औरंगजेब की इस सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व बीजापुर का सूबेदार सय्यद अब्दुल्ला खान कर रहा था। औरंगजेब बादशाह के आदेश से ही उसका सेनापति अब्दुल्लाह निरंतर 3 दिन और 3 रात चल कर यहाँ तक पहुँचा था। आक्रमण की भनक लगते ही सतर्क मराठा वीर सावधान हो गए और अपने राजा की रक्षा के लिए युद्ध करने लगे। हमारे वीर मराठे मरने मारने के लिए कटिबद्ध होकर भयंकर युद्ध करते जा रहे थे, शत्रु सेना का साहस टूटता जा रहा था। इस सब के उपरांत भी इस युद्ध में हमारे वीर मराठों को बड़ी क्षति उठानी पड़ी। अनेकों वीर योद्धा इस युद्ध में मारे गए, जबकि अनेक बंदी बना लिए गए। उन बंदियों में से एक बंदी को देखकर अब्दुल्लाह को ऐसा लगा कि जैसे यह राजाराम स्वयं है? तब उसने प्रसन्नता में अपने औरंगजेब बादशाह के पास यह संदेश भी भिजवा दिया कि उसने राजा को गिरफ्तार कर लिया है। उधर औरंगजेब ने भी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी ओर से एक सेना इस बात के लिए भेज दी कि वह सुरक्षित रूप से राजा को औरंगजेब के पास ले आये। परंतु कुछ ही समय पश्चात अब्दुल्लाह खान को अपनी भ्रांति का समाधान हो गया, वह राजाराम स्वयं न होकर हमारा एक मराठा सैनिक था जो राजा का भेष बनाए हुए था।

जिसने शत्रु को चकमा देने के लिए ऐसा नाटक किया था। सचमुच हमारे ऐसे वीर योद्धाओं के नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखे जाने योग्य हैं, जिन्होंने देश व धर्म की रक्षा के लिए सहर्ष अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था। बादशाह औरंगजेब राजाराम महाराज को पकड़ नहीं पाया और इस युद्ध के उपरांत भी वह अपने उद्देश्य में सफल ना हो सका।

राजा हो गया सावधान

 राजाराम महाराज और उनके वीरयोद्धा सहयात्रियों ने यहाँ तक की यात्रा घोड़ों से की थी और यह स्वाभाविक था कि घोड़ों से यात्रा करने वाले यात्रीदल की भनक शत्रुपक्ष को बड़ी सहजता से लग सकती थी। बहुत बौद्धिक चातुर्य बरतने के उपरांत भी सचमुच राजा की ओर से यह असावधानी रही कि वह अपनी यात्रा घोड़ों से कर रहे थे, अब उन्होंने अपनी यात्रा में परिवर्तन किया और यात्री, बैरागी, कार्पाटिक, व्यापारी, भिखारी जैसे विभिन्न प्रकार के वेषांतर कर अपनी यात्रा जारी रखी। बादशाह औरंगजेब की चौकियों और सैन्य कर्मियों को चकमा देते हुए अंत में बैंगलोर पहुँच गए। यहाँ पर राजा को जब कुछ लोगों ने अपने सेवकों से पैर धुलवाते हुए देखा तो उनके मन मस्तिष्क में यह विचार आया कि यह कोई ना कोई विशिष्ट व्यक्ति है। अतः उन्होंने इस व्यक्ति के यहाँ तक पहुँचने की सूचना मुगल सैनिकों को दी कि हो ना हो यह राजाराम ही हों? इस पर राजाराम महाराज के साथी सावधान हो गए, परंतु तब तक सूचना औरंगजेब के लोगों तक पहुँच चुकी थी। ऐसे में खंडो बल्लाळ ने आगे बढ़कर महाराज से उक्त स्थान से अन्यत्र निकल जाने की विनती की, जिसे महाराज ने स्वीकार कर लिया और वह वहाँ से दूसरे स्थान के लिए प्रस्थान कर गए।' इधर थानेदार ने छापा डाला एवं खंडो बल्लाळ व उनके अन्य कई साथियों को गिरफ्तार कर थाने में ले गया।

   वहाँ ले जाकर थानेदार ने खंडो बल्लाल व उनके साथियों पर अमानवीय और क्रूर अत्याचार किए। उन पर कोड़े बरसाए गए। मुंह में तोबड़े थामें गए और अन्य अमानवीय यातनाएँ देकर उनसे यह राज उगलवाने का प्रयास किया गया कि राजाराम महाराज किधर गए हैं? परंतु वह इन सब घटनाओं को सहन करने के उपरांत भी अपने राजा के बारे में कुछ भी बताने को तत्पर न हुए। वह केवल इतना ही कहते रहे कि, "हम तो यात्री हैं, हमें कुछ पता नहीं। अंत में थानेदार को यह विश्वास हो गया कि यह लोग यात्री ही हैं और इन्हें राजाराम महाराज के बारे में कोई जानकारी नहीं है, तब उसने उनको छोड़ दिया। 

सचमुच धन्य हैं हमारे ऐसे वीरयोद्धा, जिन्होंने हिंदवी स्वराज्य के लिए इतने अमानवीय अत्याचारों को सहन करके भी अपनी स्वामीभक्ति और देशभक्ति का परिचय दिया। सचमुचः आज यदि हम स्वतंत्र हैं तो ऐसे बीर योद्धाओं के बलिदानों स्वामीभक्ति, देशभक्ति और धर्मभक्ति के कारण ही स्वतंत्र हैं। अपनी स्वतंत्रता में दिए गए उनके योगदान को यदि हम भुलाते हैं तो निश्चय ही उनके साथ हम कृतघ्नता का व्यवहार करने के दोषी होंगे।

राजाराम महाराज पहुंचे अम्बुर

महाराज राजाराम स्वतंत्रता के लिए कष्ट सहते हुए इस समय महाराणा प्रताप शिवाजी और उन जैसे अन्य उन वीरयोद्धाओं के दिखाए गए मार्ग का अनुकरण कर रहे थे, जिन्होंने अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अनेकों कष्ट सहे, परंतु शत्रु के सामने कभी शीश नहीं झुकाया। अपनी उसी वीर परंपरा का निर्वाह करते हुए राजा राम महाराज निरंतर अपने गंतव्य की ओर बढ़ते चले जा रहे थे। राजाराम महाराज यह भली प्रकार जानते थे कि समय-समय पर जब इस देश में कोई महाराणा प्रताप या शिवाजी हुआ है और उसने अपना सिर न झुकाने का संकल्प लेकर शत्रु को चुनौती दी है तो उसके पीछे उसकी एक ही भावना रही है कि वह उस समय इस संपूर्ण भारतवर्ष के सम्मान और प्रतिष्ठा का प्रतीक बन चुका था। अतः उसके सिर के झुकने का अभिप्राय था कि संपूर्ण हिंदू जाति शत्रु के सामने झुक गई। आज राजाराम इस स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ा रहे थे, परंतु उन्हें अपना दायित्वबोध था। इतना ही नहीं उन्हें इतिहास बोध भी था, जातिबोध, धर्मबोध और कर्तव्यबोध आदि से भरे हुए हृदय को लेकर वह वीर योद्धा निरंतर अपने गंतव्य की ओर बढ़ता रहा। बंगलुरू के पूर्व की ओर 65 मील की दूरी पर अंबुर नामक स्थान पर वे पहुँचे। अंबुर थाना मराठों के अधिकार में था तथा वहाँ बाजी काकड़े नामक मराठा सरदार का पड़ाव था। अपने महाराज का यथोचित सम्मान किया और इस बात से उन्हें निश्चित किया कि अब आप खुले रूप में यहाँ पर रहे। अतः अब महाराज प्रकट रूप से अपनी सेना सहित अंबुर से वेलोर की ओर निकले। वेलोर का किला भी मराठों के अधीन था। 28 अक्टूबर को महाराज वेलोर पहुँचे। पन्हाळगढ़ से वेलोर पहुँचने के लिए उन्हें लगभग 33 दिन लगे। वेलोर के निवास में कर्नाटक के कुछ सरदार अपनी सेना के साथ उन्हें आकर मिले।

जिंजी किले के बारे में

जिंजी किले को स्वयं शिवाजी महाराज ने अभेद्य बनाया था। तभी से यह अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण विख्यात था। इसके बारे में यह भविष्यवाणी की गई थी कि यदि भविष्य में कभी किसी मराठा राजा के सामने कोई किसी प्रकार की आपत्ति आई तो यह किला ही उसको सुरक्षित रख पाएगा और अब वही स्थिति आ चुकी थी कि राजाराम महाराज को यह किला ही अपनी सुरक्षा के लिए उत्तम जान पड़ रहा था। संपूर्ण हिंदू जाति के प्रतीक वीर राजाराम महाराज अब इस किले की ओर बढ़ने लगे थे। जब राजाराम महाराज जिंजी किले के निकट पहुँचे तो वहाँ उन्हें अपनी ही सौतेली बहन से चुनौती मिली। यह किला कर्नाटक में मराठों के प्रमुख सूबेदार संभाजी राजा के समय हरजी राजे महादिक के अधीन था। कुछ समय पहले ही उनका देहांत हुआ था। उनकी पत्नी अर्थात राजाराम महाराज की सौतेली बहन हरजी राजा के पश्चात स्वयं स्वतंत्र होकर शासन कर रही थी। उसने जिंजी की ओर से राजाराम महाराज का सामना करने का प्रयास किया, परंतु उसी के लोगों ने उसे सही समय पर समझा दिया और वह युद्ध का विचार त्याग कर राजाराम महाराज को किला सौंपने के लिए तैयार हो गई। जिंजी में मराठों ने राजाराम महाराज के पक्ष का समर्थन किया। अंत में अंबिकाबाई को अपने भाई का सम्मान करने के लिए जिंजी का द्वार खोलना पड़ा। नवंबर 1689 के पहले सप्ताह में राजाराम महाराज अपने वीर योद्धाओं के साथ जिंजी किले में पहुँचे। इस प्रकार जिंजी की यात्रा का अंत सुखदायी हुआ। राजा अपने गंतव्य स्थान पर सुरक्षित पहुँच गए और मुगल शासक औरंगजेब व उनके सैनिक उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सके। यदि इतिहास में गांधीजी की 'दांडी यात्रा' स्वतंत्रता के लिए की गई एक विशिष्ट और प्रसिद्ध यात्रा है तो राजाराम महाराज की यह जिंजी यात्रा क्यों नहीं प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण मानी जा सकती ? जिंजी में पहुँचकर राजाराम महाराज ने यहीं से शासन करने का विचार किया और इसे अपनी राजधानी बनाया। जिससे जिंजी के लोगों ने हर वर्ष एक नए पर्व को मनाना आरंभ किया।

*मराठों का मुगलों के साथ संघर्ष* 

आगे चलकर एक समय ऐसा भी आया जब औरंगजेब जिंजी किले को जीतने में भी सफल हो गया। परंतु तब तक राजाराम महाराज संपूर्ण दक्षिण भारत में औरंगजेब के विरुद्ध वातावरण बनाने के लिए निकल चुके थे।

तब औरंगजेब ने जिंजी को अधिकार में लेकर राजाराम महाराज को बंदी बनाने हेतु जुल्फीकार खान को यह दायित्व सौंपा। वह अपने पूरे दल बल के साथ जिंजी पहुँच गया। उसने वहाँ जाकर जिंजी के किले का घेरा डाल दिया। उसका यह घेरा निरंतर अगले 8 वर्ष तक जारी रहा, परंतु उसे सफलता नहीं मिली। हमारे मराठा योद्धा बहुत ही वीरता और साहस के साथ अपने किले और अपने महाराज की रक्षा में सन्नद्ध रहे। इस अवधि में रामचंद्र पंडित, शंकराजी नारायण, संताजी, धनाजी जैसे योद्धाओं ने राजाराम महाराज के नेतृत्व में मुगलों के साथ कड़ा संघर्ष किया। संताजी-धनाजी ने इसी कालावधि में अपने बौद्धिक चातुर्य और कूटनीति का परिचय देते हुए मुगलों को नाकों चने चबाने का सराहनीय और देशभक्ति पूर्ण कार्य किया।

जिसके परिणामस्वरूप नाशिक से लेकर जिंजी तक मराठी सेना स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने लगी। परंतु शत्रु के साधन असीमित थे और हमारे योद्धाओं के पास सीमित साधन थे। ऐसे में 1697 में जाकर जुल्फीकार खान को सफलता मिली और जिंजी का किला उसके नियंत्रण में आ गया। यद्यपि हमारे वीर योद्धाओं ने एक बार फिर इतिहास रचा और इससे पहले कि राजाराम महाराज शत्रु के हाथ लगते, उन्होंने अपने महाराज को वहाँ से सुरक्षित पहले ही निकाल दिया। राजाराम महाराज के भीतर अपने जिन पूर्वजों का रक्त संचरित हो रहा था, उसके चलते वह झुकने को कदापि तैयार नहीं थे। परंतु अब उनका स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा था। लंबे काल से वह थकाऊ यात्रा और दीर्घकालीन युद्धों के कारण कुछ अस्वस्थ रहने लगे थे। यद्यपि अभी भी वह महाराष्ट्र में मुगलों के विरुद्ध धूम मचाते घूम रहे थे और मुगल उन्हें गिरफ्तार करने में अपने आप को अक्षम और असमर्थ पा रहे थे। शत्रु के प्रदेश में आक्रमण करते समय सिंहगढ़ पर फागुन कृ. नवमी, शके 1621 को उनका निधन हो गया।

राजाराम महाराज भारत के इतिहास में अमर रहेंगे, क्योंकि उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी भी अपने पूर्वजों की पताका को झुकने नहीं दिया और स्वतंत्रता व स्वराज्य के लिए जिस प्रकार उनके पूर्वजों ने संघर्ष किया था, उसी संघर्ष की ध्वजा को लिए वह आगे बढ़ते रहे। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक भारत की स्वतंत्रता और स्वराज्य के लिए संघर्ष किया और इन्हीं दोनों आदर्शों के लिए अपने जीवन को होम कर दिया।

क्रमश:

डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )

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