इतिहास की पड़ताल पुस्तक से… निज गौरव और निज देश का अभिमान (अध्याय-10)
महात्मा गांधी से भी पहले सत्याग्रह को भारतीय स्वाधीनता संग्राम का हथियार बना देने वाले विजय सिंह पथिक भी क्रांतिकारी साहित्यकारों की श्रेणी के महान् व्यक्तित्व थे। पथिक जी क्रांतिकारी व सत्याग्रही होने के अलावा कवि, लेखक और पत्रकार भी थे। अजमेर से उन्होंने नव संदेश और राजस्थान संदेश के नाम से हिन्दी के अखबार भी निकाले। ‘तरुण राजस्थान’ नाम के एक हिन्दी साप्ताहिक में वे ‘राष्ट्रीय पथिक’ के नाम से अपने विचार भी व्यक्त किया करते थे। पूरे राजस्थान में वे राष्ट्रीय पथिक के नाम से अधिक लोकप्रिय हुए। अजय मेरु (उपन्यास), पथिक प्रमोद (कहानी संग्रह), पथिकजी के जेल के पत्र एवं पथिक की कविताओं के संग्रह से उनके साहित्यिक जीवन का पता चलता है और यह भी ज्ञात होता है कि उन्होंने किस प्रकार भारतीय स्वाधीनता संग्राम में लेखन और साहित्य के माध्यम से अपना योगदान दिया था।
उनकी लिखी हुई कविता की ये पंक्तियाँ बहुत लोकप्रिय हुई थीं :-
“यश वैभव सुख की चाह नहीं,
परवाह नहीं जीवन न रहे;
यदि इच्छा है तो यह है-
जग में स्वेच्छाचार दमन न रहे।”
आज हमारी स्वाधीनता को कई शत्रु बड़े ही शत्रु भाव से देख रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि भारत माँ का एक-एक सैनिक आज भी अपने क्रांतिकारियों के बलिदान की सौगंध उठाकर माँ भारती की सेवा के लिए सेना में भरती होता है, यदि हमें अपने क्रांतिकारियों पर नाज़ है तो अपने वीर सैनिकों की देशभक्ति पर भी नाज है, हम उन्हीं के भरोसे घरों में सोते हैं। शत्रु किसी भूल में न रहे, यह भारत है और भारत का हर सैनिक अपने शत्रु का विध्वंस करना जानता।
हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि लेखनी प्रत्येक काल में समाज का मार्गदर्शन करती आई है। जब-जब समाज दिग्भ्रमित होता है, राजनीति पथ भ्रष्ट होती है, और जनसाधारण किंकर्तव्यविमूढ़ की अवस्था में आता है, तब- तब लेखनी के सिपाही उठकर लेखनी के माध्यम से इन सब का मार्गदर्शन करते हैं। भारत का स्वतंत्रता आंदोलन भी इसका अपवाद नहीं है। पराधीनता के उस काल में जब सर्वत्र पराभव ही पराभव दिखाई देता था, तब हमारे देश में अनेकों ऐसे क्रांतिकारी और साहित्यकार उत्पन्न हुए, जिन्होंने अपनी पवित्र लेखनी के माध्यम से हमारे समाज का मनोबल और आत्मबल बनाए रखने का प्रशंसनीय कार्य किया। स्वतंत्रता आन्दोलन के इस महायज्ञ में साहित्यकारों ने तत्कालीन समाज में चेतना के ऐसे बीज बोये, जिनके अंकुरों की सुवास से सुवासित वृक्षों ने उस झंझावात को जन्म दिया, जिसने समाज के हर वर्ग को इस आंदोलन में ला खड़ा किया। गोपालदास व्यास के शब्दों में-
“आजादी के चरणों में जो जयमाला चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के फूलों से गूँथी जाएगी।”
व्यास जी ने अपने उन महान् क्रांतिकारियों को जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर किया, ऐसे भावपूर्ण शब्दों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर मानो समस्त राष्ट्र की ओर से ही उनकी स्मृतियों पर अपने पुष्प अर्पित कर दिए हैं। यह सच है कि आज जब जब भी हमारे देश में स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस की धूम मचती है तो हमें अपने अनेकों महान् क्रांतिकारियों और बलिदानियों की स्मृतियाँ आ घेरती हैं। हमारे चारों ओर उनकी स्मृतियाँ बड़े प्रश्न चिह्न बनकर आ खड़ी होती हैं, और हमसे पूछती हैं कि आपने हमारे सपनों का भारत बनाने की दिशा में क्या किया? कितना किया? और कैसे किया? जब स्वतंत्रता आंदोलन की हमारे देश में धूम मची थी, तब लगभग हर प्रांत के, लगभग हर भाषा- भाषी क्षेत्र के महान् साहित्यकारों, कवियों, लेखकों ने अपने-अपने ढंग से अपने-अपने क्षेत्र के लोगों का आजादी के आंदोलन में कूदने का आवाहन किया। माइकेल मधुसूदन ने बंगाली में, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी में, नर्मद ने गुजराती में, चिपलूणकर ने मराठी में, भारती ने तमिल में तथा अन्य अनेक साहित्यकारों ने विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण उत्कृष्ट साहित्य का सृजन किया। यह ऐसा साहित्य लेखन था जिसे पढ़कर या सुनकर हमारे देश की तत्कालीन युवा पीढ़ी के रक्त में क्रांति का उबाल आ जाता था। उनकी बाजुएँ फड़कने लगती थीं, और मन राष्ट्र वेदी पर बलि होकर देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने की भावना से ओतप्रोत हो उठता था। इन साहित्यिक कृतियों ने भारतवासियों के हृदयों में सुधार व जागृति की उमंग उत्पन्न कर दी। स्वतंत्रता के इस आंदोलन में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाम अग्रणी है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने तत्कालीन युवा पीढ़ी के भीतर ऐसा उबाल पैदा किया था कि उनके साहित्य को पढ़कर हमारे देश के अधिकांश युवा अंग्रेजी सरकार के अन्याय, प्रतिशोध और अत्याचार के विरुद्ध उठ खड़े हुए थे। उन्हें इस बात का बड़ा क्षोभ था कि अंग्रेज़ भारत की सारी सम्पत्ति लूटकर विदेश ले जा रहे हैं। उनकी लेखनी ‘भारत दुर्दशा’ से अवगत कराते हुए लिखती है-
“रोबहु सब मिलि, अबहु भारत भाई,
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।”
‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ व्यंग्य के माध्यम से भारतेन्दु जी ने तत्कालीन राजाओं की कार्यशैली पर करारा व्यंग किया था। इसके माध्यम से उन्होंने जनता को बताया था कि हमारे वर्तमान शासक घोर स्वार्थी हैं और जनता के दुख- दर्द से उन्हें कोई लेना देना नहीं है, इसलिए ऐसे स्वार्थी और कर्तव्यविमुख शासकों के विरुद्ध आंदोलन करना देशवासियों का परम धर्म है। प्रताप नारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी, राधाकृष्ण दास, ठाकुर जगमोहन सिंह, पं. अम्बिका दत्त व्यास, बाबू रामकृष्ण वर्मा आदि समस्त साहित्यकारों ने स्वतंत्रता आंदोलन की धधकती हुई ज्वाला को प्रचंड रूप दिया।
उन्होंने अपने स्तर से और अपने ढंग से क्रांति की ज्वाला को तो प्रचंड किया ही साथ ही यह बताने में भी संकोच नहीं किया कि अंग्रेजी सरकार का इस देश के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है। वह अपने देश के प्रति कर्तव्यबद्ध है और इस देश के लोगों को वह केवल और केवल अपना दास मानती है। उसके विचारों में और उसकी कार्य शैली में कहीं पर भी ऐसा भाव नहीं झलकता कि वह लोकतंत्र में विश्वास रखते हुए भारत वासियों के प्रति थोड़ी-सी भी सहानुभूति रखती हैं इन सबकी रचनाओं ने राष्ट्रीयता के विकास में बहुत योगदान दिया।
बंकिमचन्द्र ने ‘आनंद मठ’ व ‘वंदेमातरम्’ की रचना की। वंदेमातरम् गीत ने हमारे सभी देशवासियों को एक सूत्र में पिरोकर उस समय ऐसा रोमांच खड़ा किया था कि अंग्रेज सरकार इस शब्द मात्र से ही काँपने लगी थी। जहाँ पर भी ‘वंदेमातरम्’ की गूंज सुनाई दे जाती थी वहीं अंग्रेज सरकार अनुमान लगा लेती थी कि यहाँ पर निश्चय ही क्रांति की आग दहक रही है।
बंकिम बाबू की ‘आनंदमठ’ ने बंगाल में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की पाठ्य पुस्तक का कार्य किया। क्रांतिकारियों ने देश को जगाने के लिए और अपने भीतर क्रांति की ज्वाला को और भी अधिक सशक्त बनाने के लिए इस पुस्तक को अपने पास रखना आरंभ कर दिया था। जिससे वह क्रांतिकारियों की गीता बन गई थी। राष्ट्रद्रोही लोग जो उस समय प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज सरकार का समर्थन कर रहे थे या अंग्रेजों को भारत में रहने देने को भारत की शान समझ रहे थे या अंग्रेजों को ‘भारत भाग्य विधाता’ कहकर उनका गुणगान कर रहे थे, उनके लिए ‘वंदेमातरम्’ उस समय भी उपेक्षा का कारण था और आज भी उपेक्षा का कारण है। माखन लाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और सुभद्रा कुमारी चौहान ने राष्ट्र प्रेम को ही मुखरित नहीं किया अपितु स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया। माखन लाल चतुर्वेदी ने फूल के माध्यम से अपनी देशभक्ति की भावना को व्यक्त किया:-
“चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं मैं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वन माली उस पथ पर तुम देना फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएँ वीर अनेक।”
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत-भारती’ के द्वारा राष्ट्रीयता का प्रचार- प्रसार कर भारत के रणबांकुरों को स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने बहुत सरल शब्दों में देश के लोगों की चेतना को झकझोर कर रख दिया था। उनकी बनाई देश भक्ति की कविताओं को लोग आज भी पढ़ कर रोमांचित हो उठते हैं। उन्होंने सोई हुई भारतीयता को जगाते हुए कहा-
“जिसको न निज गौरव न निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, पशु निरा है और मृतक समान है।”
तत्कालीन साहित्यकारों में शिरोमणि लेखक, क़लम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद को यदि आज इस अवसर पर स्मरण नहीं किया गया तो भी यह लेख अपूर्ण ही माना जाएगा। मुंशी प्रेमचंद जी हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में साहित्यकारों की ओर से वह हस्ताक्षर हैं जिन पर हम सबको गर्व और गौरव की अनुभूति होती है। इस महान् साहित्यकार की रचनाओं ने मृतप्राय लोगों में भी प्राण फूंक दिए। उन्होंने अपने अधिकारों के प्रति उदासीन लोगों को जगाने और क्रूर तानाशाही के विरुद्ध उठ खड़े होने का सफल आवाहन किया जो अभी तक क्रूर तानाशाही के सामने बोलना तक उचित नहीं मानते थे और क्रूर तानाशाही के अत्याचारों को सहना जिनकी नियति बन चुका था। मुंशी प्रेमचन्द की न जाने कितनी रचनाओं पर रोक लगी, न जाने कितना साहित्य जलाने की कोशिश की गई, परन्तु उनकी लेखनी सदा एक सच्चे क्रांतिकारी की भाँति स्वतंत्रता आंदोलन में विस्फोटक का कार्य करती रही। मुंशी जी के पीछे अंग्रेज सरकार का गुप्तचर विभाग लगा रहा तथा उनकी रचना ‘सोजे वतन’ के विषय में उन्हें तलब किया गया। नवाब राय की स्वीकृति पर उन्हें डराया धमकाया गया तथा ‘सोजे वतन’ की प्रतियाँ जला दी गईं, परन्तु एक सच्चे क्रांतिकारी की भाँति अंग्रेजों की इस दमनकारी नीति से प्रभावित हुए बिना मुंशी प्रेमचंद की लेखनी इस आंदोलन में वैचारिक क्रांति की आग उगलती रही।
“मैं विद्रोही हूँ जग में विद्रोह कराने आया हूँ
क्रांति का सरल सुनहरा राग सुनाने आया हूँ।”
कवि नीरज की उक्त पंक्तियों से ही उनका स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान स्पष्ट झलकता है।
लोगों को अत्याचार के आगे न झुकने की प्रेरणा देते हुए नीरज ने कहा था-
” देखना है जुल्म की रफ्तार बढ़ती है कहाँ तक ।
देखना है बम की बौछार है कहाँ तक ।।”
इन दो पंक्तियों में जहाँ तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता की अत्याचार पूर्ण नीति की ओर संकेत किया गया है वहीं हमारे वीर क्रांतिकारियों के शौर्य का गुणगान भी किया गया है, जो बढ़ते हुए अत्याचारों के सामने सीना तान कर खड़े थे और जितना ही अत्याचार बढ़ता जाता था उतनी ही हमारे क्रांतिकारियों की संख्या में वृद्धि होती जाती थी।
क्रमशः
मुख्य संपादक, उगता भारत