हे मानव ! बैठ अकेले में,
चिंतन कर कुछ चिंतन कर,
में कौन कहां से आया हूं ?
मंथन कर कुछ मंथन कर।।
आने से पहले जगती में,
जो वचन दिया था ईश्वर को।
वचन का सुमिरण कर प्यारे ,
क्यों मूर्ख बनाता है नर को ?
यह देह अनमोल मिला तुझको,
श्वासों का कोष मिला अनुपम।
क्यों खर्च रहा, तू व्यर्थ इसे –
इस पर भी तो कभी मंथन कर।।
है धनियों से भी श्रेष्ठ धनी तू,
यह देह अनमोल आवास तेरा।
जिसने तुझको सब दिया बावरे,
उस पर कितना है विश्वास तेरा ।।
मुख्य संपादक, उगता भारत