स्वयं विधाता निराकार, तूने जग कैसे साकार रचा

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परमपिता परमेश्वर तूने,
किस भाँति सन्सार रचा,
स्वयं विधाता निराकार,
तूने जग कैसे साकार रचा
परमपिता ऽऽऽऽऽऽऽ

तारों से भरा नभ का आँगन,
चन्दा सूरज कर रहे गमन
घन घोर घटा करती गर्जन,
कहीं शीतल मन्द सुगन्ध पवन
यह बिन सीमा का नील गगन,
जिसमें पक्षी कर रहे भ्रमण,
दे रहा उन्हें निशिदिन भोजन,
हे जगदीश्वर !!! तुम्हें धन्य धन्य
कौन सी वस्तु की शक्ति से,
सब कुछ सर्वाधार रचा
स्वयं विधाता निराकार,
तूने जग कैसे साकार रचा
परमपिता ऽऽऽऽऽऽऽ

कहीं ऊँचें पर्वत वन उपवन,
कहीं गहरे सागर करे नमन,
कहीं रेत के टीले औषधि वन (अन्न),
कहीं हीरे मोती लाल रतन
कहीं काँटों में खिल रहे सुमन,
कहीं महक रहा शीतल चन्दन
कहीं बोल रहे हैं पक्षीगण,
कहीं भवरों की प्यारी गुन्जन
कहीं डाली पर फूल खिले हैं,
और फूल के नीचे खार रचा
स्वयं विधाता निराकार,
तूने जग कैसे साकार रचा
परमपिता ऽऽऽऽऽऽऽ

कितने सुन्दर क्या कहना,
इस मस्तक में दो नयना,
बिना तेल इन दो दीपों का,
आठों प्रहर जलते रहना
मुख में दाँतों का गहना,
रसना बोल रही बहना,
जागृत स्वप्न सुषुप्ती में भी,
श्वासों का चलते रहना
गर्भ के अन्दर मानव चोला,
बिना किसी औजार रचा
स्वयं विधाता निराकार,
तूने जग कैसे साकार रचा

तु अजर अमर तु अविनाशी,
अन्तर्यामी घट घट वासी
सुखधाम सदा तु सुखराशि
निरहंकार और निरअभिलाषी,
झलके तेरा रूप बहारों में,
सूरज चाँद सितारों में
लय स्वर की झंकारों में,
सारंगी की तारों में,
यह जीवन “बेमोल” रचा
जीवन का सच्चा सार रचा
स्वयं विधाता निराकार,
तूने जग कैसे साकार रचा
परमपिता परमेश्वर तूने,
किस भाँति सन्सार रचा,
स्वयं विधाता निराकार,
तूने जग कैसे साकार रचा

रचनाकार :- श्री लक्ष्मणसिंह जी “बेमोल”
स्वर :- श्री अंकित जी उपाध्याय

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