विगत 7 नवंबर 2024 को हमारे मार्गदर्शक, संरक्षक एवं पूज्य श्री विजेंद्र सिंह आर्य जी की अरिष्टी का आयोजन हुआ था। जिनका परलोकगमन 1 नवंबर 2024 को प्रातः 2. 20 पर हो गया था। श्री विजेंद्र सिंह आर्य जी का जन्म तीस हजारी कोर्ट दिल्ली के प्रांगण में 22 अगस्त 1947 को अर्थात भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के सही एक सप्ताह पश्चात हुआ था। इसीलिए हमारे पिताजी स्वर्गीय महाशय राजेंद्र सिंह आर्य जी के द्वारा उनका बचपन का नाम विजय रखा गया था, क्योंकि भारत की विजय प्राप्ति अर्थात स्वाधीनता की प्राप्ति के पश्चात ही उनका जन्म हुआ था। पिताजी उस समय तीस हजारी कोर्ट दिल्ली में कर्मचारी थे।
उस समय देश सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहा था। अपरिहार्य परिस्थितियों में पूज्य पिताजी को दिल्ली छोड़कर गांव आना पड़ा। अतः श्री विजेंद्र सिंह आर्य जी की प्राथमिक शिक्षा पैतृक ग्राम महावड़ में हुई थी। तत्पश्चात अपनी स्नातकोत्तर की शिक्षा उन्होंने शंभू दयाल कॉलेज गाजियाबाद से प्राप्त की तथा सरदार शहर, जनपद चुरु राजस्थान से शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त किया। तत्पश्चात हिसार हरियाणा में अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। जहां से वर्ष 2005 में वे सेवानिवृत हुए।
पूज्य अग्रज प्रोफेसर विजेन्द्र सिंह आर्य जी की मृत्यु के उपरांत 7 नवंबर 2024 को ए – 246 सेक्टर 37 ग्रेटर नोएडा जनपद गौतम बुध नगर स्थित उनके घर पर रखी गई। इस अवसर पर परिवार के द्वारा श्रद्धांजलि अर्पित करने का उत्तरदायित्व मुझे सोंपा गया, जो मेरे लिए बहुत दुरुहतम एवं गुरुतर उत्तरदायित्व था। मैं यह सोच रहा था कि मैं इतने विशाल, विस्तृत, विशेष , विशुद्ध, विराट व्यक्तित्व को किन थोड़े शब्दों में, समय की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए, दूसरे वक्ताओं पर अत्याचार न करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अपने अग्रज के प्रति कैसे अर्पित करूं ?
कैसे न्यूनतम में अधिकतम को समाहित किया जाए ? और कैसे उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज द्वारा प्रस्तुत पद्धति एवं सिद्धांतों के अनुसार श्रद्धांजलि सभा में प्रस्तुत करूं ?
मैंने श्रद्धांजलि सभा के पूर्व में ही निवेदन किया कि कोई भी विद्वान वक्ता, प्रवक्ता इस आयोजन को शोकसभा न बोले क्योंकि हमारे भाई ने जो जीवन जिया और जब वह जीवन छोड़ कर के मृत्यु के आगोश में गए तो एक पके हुए खरबूजे की भांति गए। खरबूजा जिस प्रकार बेल को छोड़ देता है, उसी को अपनाकर पूज्य भ्राता जी जीवन भर चलते रहे और अंतिम क्षणों में भी उनकी यही प्रतिज्ञा एवं इच्छा बलवती रही । वह वेद भक्त थे। ईश्वर भक्त थे। राष्ट्रभक्त थे। इसी त्रिवेणी में स्नान करना उनके जीवन का अविभाज्य और अविस्मरणीय भाव था। जो आज हमारे चित्त में एक स्मृति के रूप में अंकित हो गया है।
संस्कृति प्रेम उनके रोम रोम में झलकता था। धर्म के प्रति उनकी आस्था हम सबके लिए उनके जीते जी भी अनुकरणीय थी, आज भी अनुकरणीय है और आगे भी रहेगी। भारत भक्ति की घुट्टी उन्हें पूज्य पिताजी से मिली। जिसे उन्होंने संरक्षक के रूप में जीवन भर हमको पिलाते रहने का पवित्र कार्य किया। ईश्वर के प्रति उनकी गहन आस्था देखते ही बनती थी। उठते बैठते वह ‘ तेरी कृपा है’- इन तीन शब्दों का अक्सर प्रयोग किया करते थे। उनके हर श्वास में ओ३म की ध्वनि समाहित रहती थी। जिसका परिणाम था कि वह निर्मल चित्त में रमण करते रहते थे। जिसमें उन्हें कविता करने की प्रेरणा आंतरिक शक्तियों के माध्यम से प्राप्त होती थी। ऐसी स्थिति में जब उनकी कविता फूटती थी तो वह पूर्ण दिव्यता के साथ बाहर आई थी, जो उनके श्रोताओं पर सीधे प्रभाव डालती थी।
यही कारण था कि उनकी कविता वेद भक्ति, ईश्वर भक्ति और राष्ट्रभक्ति का अनन्य स्रोत बन जाती थी । जिसमें डुबकी लगाना कोई भी पाठक अपना सौभाग्य मानता था। उनकी चेतना में परमेश्वर की अभिव्यक्ति थी और वही चेतना जब कविता में बोलती थी तो उस कविता का दिव्या और भाव बन जाना स्वाभाविक था। उनके व्यक्तित्व की इस विलक्षणता के कारण ही लोग उनमें एक दिव्य विभूति के दर्शन किया करते थे।
7 नवंबर को पूज्य भ्राता जी की स्मृति में आयोजित की गई श्रद्धांजलि सभा में मेरा उद्बोधन था कि ” श्रद्धांजलि सभा में उपस्थित इस पंचभौतिक शरीर में अवतरित सभी पवित्रात्माओं !आदरणीय मंच, समादृत मंडप- मंडल। पूज्य भ्राता जी श्री विजेंद्र सिंह आर्य जी हमारे ज्येष्ठ थे,वे हमारे श्रेष्ठ थे। भ्राता श्री आर्य जी का का जीवन :-
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ||
पर आधारित था । वे प्राचीन वैदिक परंपरा के प्रस्तोता थे और अपने आप में अद्वितीय थे। प्रवचन कला में प्रवीण थे। प्रस्तुतीकरण कला में निपुण थे। विवेकी थे । सुहृदय थे।वे भावुक और कोमल थे। दयालु प्रवृत्ति के थे। भावुक और कोमल हुए बिना कवि नहीं हुआ जा सकता। वे क्षणिक रुष्टा क्षणिक तुष्टा वाले भी थे ।उनकी वाणी में सरलता थी ,ओज था, उत्कंठा थी। वह सार्वभौमिक वक्ता थे। उनकी वृक्तत्व शैली अनुपम और अद्वितीय थी। वे सभा में बोलने में और अपना प्रभाव छोड़ने में सिद्धहस्त थे। वे श्रेष्ठ प्रवक्ता थे। उनके अंदर औदार्य था, शौर्य था, गाम्भीर्य था। वे योग्य आचार्य, योग्य भ्राता, योग्य संतान, योग्य पिता, योग्य पति, योग्य शिक्षक, योग शिष्य, योग्य संरक्षक, योग्य कवि, योग्य लेखक ,योग्य कलाकार ,योग्य प्रस्तोता , योग्य साहित्यकार, योग्य सृजक, योग्य चिन्तक, योग्य सुधारक, योग्य विचारक, योग्य विश्लेषक, योग्य विवेचक , ,योग्य पथ- प्रदर्शक ,योग्य -मार्गदर्शक , व योग्य भविष्य दृष्टा थे।
उनकी कविताओं एवं लेखन शैली में उर्दू के शब्दों का समावेश भी बहुलता और प्रचुरता से मिलता है । उनका शब्दों का चयन एवं वाक्य संकलन बहुत ही उच्च कोटि का प्रभावोत्पादक होता था। वह लिखते हैं:-
वैदिक संपद साथ जा लौकिक यहीं रह जाय।
भजन भलाई रोज कर, तभी स्वर्ग को पाय।।
उनके जाने से आर्य बंधु परिवार को ही नहीं बल्कि आर्य जगत को असीम और अपूर्णनीय क्षति कारित हुई है। वे यज्ञ हवन से बड़ी गहराई से जुड़े थे संध्या के प्रति भी उनकी गहरी आस्था थी। संध्या में बैठकर भी कई बार इतने भावविभोर हो जाते थे कि कई बार रो पड़ते थे। वेद चर्चा, ईश्वर चर्चा, रामायण, महाभारत ,गीता, उपनिषद आदि पर होने वाला वार्तालाप उन्हें आनंदित करता था। उनकी मान्यता थी कि मनुष्य का मनुष्य ही शत्रु नहीं होता अपितु उसके दुर्गुण अथवा बुरी आदतें भी उसकी महान शत्रु होती हैं। इन पर सदैव पैनी नजर रखनी चाहिए। इनके प्रति लापरवाही मनुष्य का इस तरह से पतन कर देती है जैसे नाव में छोटा सा छेद उसे जल में डुबा देता है। रोग को कभी छोटा न समझें । कदाचित ऐसा भी होता है कि यह छोटी सी फुंसी भी लापरवाही के कारण नासूर बन जाती है।
वे बताते थे कि हवन में यह गुण है कि वह दूषित, मलीनता को जला देता है, परंतु थोड़ा सा कार्बन रहने देता है। क्योंकि हवन से निकला हुआ कार्बन वृक्षों का भोजन है। हवन से जहां वायु शुद्ध होती है, वहीं हवन से वृक्षों को भी भोजन मिलता है ।हवन जब सघन ( वृक्षावली) जंगल में होता है, तब वहां की वायु शुद्ध हो जाती है। और वन वृक्षों को भोजन भी मिल जाता है। इस प्रकार हवन सार्थक हो जाता है। उसमें कार्बन फैलाने का दोष नहीं रहता, क्योंकि यज्ञ की सामग्री भी दूध आदि पशुओं और औषधी भी जंगलों से ही प्राप्त होती है। जंगल में हमारे पशु भी चरते हैं। इसलिए यज्ञ का समस्त कार्य जंगल से ही चलता है। यज्ञ का काम ही नहीं चलता, प्रत्युत इससे प्राणी मात्र का जीवन भी जंगल पर (वनस्पति पर) ही अवलंबित है ।इसलिए यज्ञ के मुख्य उद्देश्य में वनस्पति को लाभ पहुंचाना भी वह बताया करते थे। वनस्पति को पानी और कार्बन वायु की आवश्यकता होती है। वृक्ष कार्बन वायु को खाते और वृष्टि के जल को पीते हैं ।यज्ञ अपने धुआ से कार्बन और वृष्टि की रचना एक ही साथ करते हैं और यह दोनों पदार्थ वृक्षों के खाने और पीने के काम आते हैं। ऐसा उनका यज्ञ के संबंध में प्रवचन होता था।
वे ज्ञानयज्ञ में निरंतर प्रतिक्षण डूबे रहते थे। उनकी मान्यता थी कि ज्ञान -यज्ञ के समक्ष सब कर्म -यज्ञ समाप्त हो जाते हैं। वे उपासना -यज्ञ का महत्व अलग से बताते थे।लेकिन कर्म यज्ञ को भी उत्तम बताते थे।वे परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पित श्रद्धावान तथा निष्ठावान थे। ईश्वर प्रणिधान में उनका अटूट विश्वास था। वे पुण्य आत्मा एवं कर्मनिष्ठ थे । वे वेदों के अनुसार जीवन जीते थे। वे वैदिक परंपरा के ध्वजवाहक थे।वे परमात्मा की कृपा का दर्शन प्रत्येक कार्य में प्रतिक्षण करते थे। किसी भी कार्य को संपन्न करने से पूर्व एवं पश्चात में ईश्वर का धन्यवाद करने में उनको बहुत आनंद आता था।
मैं निहाल हुआ ऐसा जेष्ठ भ्राता पाकर । आर्य बंधु परिवार सदैव उनका ऋणी रहेगा।
यादों में बसे हो भ्राता जी,
नहीं छीन सकेगा कोई भी।
जब तक है तन में प्राण मेरे,
क्यों कर दूर करेगा कोई भी?
शेष कल….
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
( अध्यक्ष : उगता भारत )