सुषुप्ति समाधि मोक्ष में, आत्मा हो तद् रूप।

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बिखरे मोती

वे कौन सी तीन अवस्थाएं हैं ? जिनमें आत्मा अपने निजी स्वरूप में अवस्थित होती हैं अथवा जिनकी रसानुभूति अलौकिक और अपरिमित है: –

सुषुप्ति समाधि मोक्ष में,
आत्मा हो तद् रूप।
ब्रह्म-शक्ति से युक्त हो,
पावै निजी स्वरूप॥2730॥

भावार्थ:- मनुष्य जब गहरी नींद में होता है,योगी जब गहन समाधि में होता है तथा जीवत्मा जब मोक्ष में होता है तब वह ब्रह्म में अवगाहन करता है, तो वह अवस्था अवर्चनीय होती है। ब्रह्म की रसानुभूति होती है ,ब्रह्म की शक्तियां आत्मा युक्त होती है और सांसारिक शोकों से मुक्त होती हैं। क्योंकि तत्क्षण वह अपने स्वरूप में अवस्थित होती है। काश! मनुष्य इस अवस्था को प्राप्त करें।

कौन किसका मूल है –

धर्म का मूल तो वेद है,
वायु का आकाश।
आत्मा का परमात्मा,
चलो उसी के पास॥ 2731॥

भावार्थ:- वेद सब सत्य विधाओं की आदि पुस्तक है। वह ईश्वरीय ज्ञान है। ऋग्वेद का ऋषि कहता है – जिसके धारण करने से इहि लोग का कल्याण और परलोक की सिद्धि होती है, उसे धर्म कहते हैं इतना ही नहीं वेद यह भी कहता है- सत्यम् वद् धर्म चल अर्थात हमेशा सत्य बोलो और धर्म पर चलो। वेद मानव को धर्म पर चलने की प्रेरणा देता है। इससे सिद्ध होता है कि धर्म का मूल वेद है।
खाली स्थान में वायु प्रवाहित होती है। आकाश खाली स्थान है अतः वायु का मूल आकाश है। ध्यान रहे! यह दृश्यमान संसार परमपिता परमात्मा के संकल्प से उत्पन्न हुआ है। उपनिषद का ऋषि कहता है – एको अहं बहुस्यामि अर्थात परमपिता परमात्मा ने जब यह इच्छा प्रकट की कि में एक से अनेक हो जाऊं तो यह दृश्यमान संसार प्रकट हो गया है। मनुष्य ! तू आनंद लोक से आया है और तेरा गंतव्य भी आनंद लोक ही है । अतःतू ऐसी क्रम -कीड़ा कर ताकि तुझे उस सच्चिदानंद की उपत्यका (गोदी) पुनः प्राप्त हो सके।
क्रमशः

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