- श्री जहूर बख्श हिंदी कोविद
(हिंदी के प्रसिद्ध बाल साहित्य के प्रणेता तथा कहानी-लेखक)
“ऋषि दयानन्द के चरित्र में अनेक सद्गुणों का विकास इस प्रकार हुआ है कि वह मुझे बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। कुछ लोग महर्षि के जिस गुण को एवं उसके विकास को दोष समझते हैं, उसे ही मैं एक महत्वपूर्ण और आवश्यक गुण समझता हूँ। बालक मूलशंकर की शिवरात्रि संबंधी घटना से लेकर ऋषि दयानन्द की पुराण, कुरान, बाइबल आदि की स्वतंत्र आलोचना तक, लोग उस पर विचार स्वातंत्र्य और अन्य धर्मों की ओर घृणात्मक दृष्टि का लांछन लगाते हैं। परंतु उसने कब और कहाँ अन्य धर्मों पर घृणात्मक दृष्टि की है, मुझे तो इसका पता नहीं चलता। उसने यह तो कहीं नहीं कहा कि अमुक धर्म बूरा व घृणा योग्य है, अतः उस धर्म के अनुयायी उसे मानना छोड़ दें। उसने ‘सत्यार्थप्रकाश’ में अन्य धर्म संबंधी जिन ग्रंथों की आलोचना की है, वह उसके विचार स्वातंत्र्य का सुंदर उदाहरण है। स्मरण रखना चाहिए कि विचार स्वातंत्र्य कोई भयंकर वस्तु नहीं है। उसी से युगान्तर उपस्थित हो सकता है। वही संसार को उत्थान के मंच पर ले जाता है। विचार स्वातंत्र्य से घबराना कोरी कायरता है। यदि ऋषि ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ में अन्य धर्मों की स्वतंत्र आलोचना की है तो पुण्यकर्म ही किया है। अन्य धर्म वालों को उससे न तो घबराना चाहिए, न ही चिढ़ना ही चाहिए। उनका कर्तव्य है कि वे स्थिर चित्त से उस पर विचार करें और उन्हें यदि ऋषि के बतलाये हुए दोष ठीक जचें तो प्रसन्नतापूर्वक अपने धर्म का संस्कार करें। इससे तो उन्नति ही होगी। अतः ऋषि की विचार स्वतंत्रता पुण्य वस्तु है। संसार उससे लाभ उठा सकता है। क्या ऋषि का यह गुण सम्मान योग्य नहीं है?”
● स्रोत : महर्षि दयानन्द: हिंदी साहित्यकारों की दृष्टि में (पृ.४२)
● संपादक : डॉ.भवानीलाल भारतीय
● प्रस्तुति : राजेश “आर्य”