उस व्यक्ति के कैसे लक्षण होते हैं जो परमात्मा की अनुभूति करना चाहता है और उसके लिए सक्षम है?
जीवन में दिव्यताओं को कैसे प्राप्त करें?
जामिः सिन्धूनां भ्रातेव स्तस्त्रामिभ्यान्न राजा वनान्यत्ति।
यद्वातजूतो वना व्यस्थादग्निर्ह दाति रोमा पृृथिव्याः ।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.65.4 (कुल मन्त्र 751)
(जामिः) भाई (सिन्धूनाम्) समुद्रों और नदियों का (भ्राता इव) भाई की तरह (स्तस्त्राम्) बहनों का (इभ्यान् न राजा) शत्रुओं के राजा की तरह (वनानि) जंगलों को (अत्ति) खा जाता है (यत्) जब (वातजूतः) वायु से प्रेरित होकर (वना) जंगलों में (व्यस्थात्) विशेष रूप से स्थापित (अग्निः ह) केवल एक अग्नि पुरुष (दाति) खाता है (रोमा) केवल घास, वनस्पतियों की शाखाएं (पृृथिव्याः) भूमि की।
व्याख्या:-
उस व्यक्ति के कैसे लक्षण होते हैं जो परमात्मा की अनुभूति करना चाहता है और उसके लिए सक्षम है?
ऋग्वेद 1.65.3 में परमात्मा के बारे में एक प्रश्न की कल्पना के बाद, यह मन्त्र अग्नि पुरुष के लक्षणों की व्याख्या करता है अर्थात् ऐसा साधक जो अपने जीवन में परमात्मा की अनुभूति प्राप्त करने में सक्षम है:-
1. जामिः सिन्धूनाम् – वह जो समुद्रों और नदियों का भाई है।
2. भ्राता इव स्तस्त्राम् – वह जो सभी बहनों के भाई की तरह है।
3. इभ्यान् न राजा – वह जो राजा की तरह है शत्रुओं को खा जाता है।
4. वनानि अत्ति – वह जो जंगलों अर्थात् केवल शाकाहारी भोजन को खाता है।
5. यत् वातजूतः वना व्यस्थात् – वह वायु से प्रेरित होकर जंगलों में विशेष रूप से स्थापित होता है।
6. दाति रोमा पृथिव्याः – वह जो केवल घास और धरती की वनस्पतियों की शाखाओं को खाता है।
जीवन में सार्थकता: –
जीवन में दिव्यताओं को कैसे प्राप्त करें?
यह सभी लक्षण एक दिव्य और श्रेष्ट व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं जो सब लोगों और सर्वत्र प्रकृति का का ध्यान रखने वाला और प्रेम करने वाला होता है, अपने शत्रुओं को रोककर उन्हें नष्ट करने के लिए पर्याप्त साहसी और दिव्य होता है। ऐसा दिव्य और श्रेष्ट व्यक्ति सबके कल्याण के लिए सभी गतिविधियाँ सम्पन्न करने के बावजूद, परमात्मा में स्थापित रहता है। वह अपने जीवन में परमात्मा को प्राप्त करने और उसकी अनुभूति के लिए सक्षम होता है। इस प्रकार संयमित जीवन से, सभी इच्छाओं और अहंकार का त्याग करके, कोई भी मनुष्य श्रेष्ठताओं को प्राप्त कर सकता है। परन्तु इन श्रेष्ठताओं की परीक्षा होने के बावजूद दिव्यता तो निश्चित रूप से परमात्मा का अनुग्रह है। जीवन में इन्द्र पुरुष बनने के बाद ही कोई व्यक्ति अग्नि पुरुष बनता है।
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