यह खलीफत आंदोलन भारत में – और केवल भारत में – चार वर्षों से चल रहा था। इस बीच 24 नवंबर 1923 को दो प्रमुख भारतीय मुस्लिम – आगा खान और अमीर अली – ने भारतीय मुसलमानों की ओर से तुर्की प्रधानमंत्री इस्मत इनोनू को एक विरोध-पत्र लिखा। इस में खलीफा का सम्मान बहाल करने की माँग थी। इस पत्र की प्रति तुर्की अखबारों को भी भेजी गई। जो प्रधानमंत्री को पहुँचने से पहले ही तीन अखबारों में प्रकाशित हो गया! इसे राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल ने गंभीर षड्यंत्र बताया। उन्होंने तुर्की संसद में चेतावनी दी कि विदेशी लोग खलीफा की आड़ में तुर्की में तख्तापलट की कोशिश करते रहेंगे। उस पत्र को नया प्रमाण दिखा कर कमाल ने खलीफत के खात्मे की सिफारिश की, क्योंकि वह देश के लिए खतरा साबित हो रहा है, और इस्लाम के नाम पर तुर्की जनता को फिर से दुनिया के मुसलमानों का जुआ ढोने पर धकेला जा रहा है।
कमाल का आरोप सही बैठा क्योंकि आगा खान अंग्रेज जीवन-शैली वाले धनाढ्य यूरोपीय जैसे थे। कई अंग्रेज नेता और राजदूत उन के दोस्त थे। अंग्रेजों ने उन्हें भारतीय मुसलमानों के प्रतिनिधि के रूप में भारी मान-सम्मान दे रखा था। सो उन्हें ब्रिटिश मोहरा समझना सरल था। मुस्तफा कमाल ने आगा खान को ‘स्पेशल ब्रिटिश एजेंट’ बताया जो तुर्की को तोड़ना चाहता है। खलीफा उसी के औजार बन रहे हैं।
मुस्तफा कमाल ने तुर्की संसद में कहा, “हर हाल में हमें अपना गणराज्य बचाना है। आटोमन साम्राज्य जर्जर मजहबी आधारों पर बनी बेढंगी संरचना था। नया गणराज्य अच्छे आधार और वैज्ञानिक संरचनाओं पर बनना है। खलीफा और उस्मानी अवशेषों को जाना ही होगा। हमें मजहबी कानून हटाकर आधुनिक वैज्ञानिक सिविल कोड बनाना है। मदरसों के बदले सेक्यूलर सरकारी स्कूल स्थापित करना है।” इस तरह, कमाल ने तुर्की संसद को कायल किया कि गणराज्य और खलीफत आपस में विरोधी हैं। फलत: संसद ने 3 मार्च 1924 को सर्वसम्मति से खलीफत के खात्मे और खलीफा को देश-निकाले का फैसला किया। उसी रात खलीफा देश से बाहर कर दिये गये। दो दिन बाद उन का परिवार भी उसी रुखाई से समेट कर सीमा-पार पहुँचा दिया गया। पूरे तुर्की में इस पर एक भी विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ।
इस प्रकार, जो भारतीय मुस्लिम नेता खलीफत के लिए सब से अधिक व्यग्र थे, वही उस के खात्मे का कारण बने! दशकों से तुर्की खलीफा का साम्राज्य टूट-फूट रहा था। दुनिया भर के मुस्लिम इस से अवगत थे। खुद अरब देश खलीफा से दूर थे। कई अरब शासक यूरोपीय देशों के साथ थे। भारत में जिन्ना भी खलीफत को ‘मृत’ चीज मानते थे। उन्होंने कांग्रेस और गाँधीजी को खलीफत आंदोलन में जुड़ने से मना किया था। जिन्ना ने उन्हें चेतावनी दी थी कि वे मुल्ले-मौलवियों को राजनीतिक मंच देकर भयंकर भूल कर रहे हैं। जिन्ना के अनुसार खलीफत आंदोलन से मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच भारी झगड़ा बनेगा। उस आंदोलन से केवल तबाही, अराजकता, और भीड़ की उत्तेजना ‘मॉब हिस्टीरिया’ पैदा होगा।
वस्तुत:, मुस्तफा कमाल ही जिन्ना के आदर्श थे। बाद में भी, हेराल्ड सी. आर्मस्ट्रांग लिखित कमाल की जीवनी ‘ग्रे वोल्फ’ (1932) जिन्ना की प्रिय पुस्तक थी। इस से समझ सकते हैं कि यदि जिन्ना की चेतावनी पर ध्यान देकर गाँधीजी खलीफत आंदोलन से दूर रहते, और मुल्लों के बदले जिन्ना जैसों को महत्व दिया होता तो भारतीय मुसलमानों पर मुस्तफा कमाल जैसी सेक्यूलर आधुनिकता का असर बन सकता था। वैसे भी तब तक आम भारतीय मुसलमान इस्लामी कट्टरवाद से अपरिचित थे। वे विचार-व्यवहार में लगभग हिन्दू थे, जिस पर यहाँ पक्के इस्लामी नेता सदियों से सिर धुनते रहे थे कि वे ‘बस नाम के’ मुस्लिम हैं! सो, यह खलीफत आंदोलन था जिस से उन्हें यहाँ आम मुसलमानों को असली मुसलमान बनाने का रास्ता मिला। अतः यदि जिन्ना की चेतावनी सुनी जाती तो भारत ही नहीं, विश्व की दिशा भी बदल सकती!
पर गाँधीजी ने मुस्लिम भीड़ समर्थन के लोभ में जिन्ना जैसों को अनसुना किया। जबकि मौलाना उन्हें बराबरी का सम्मान तक नहीं देते थे। मुहम्मद अली ने सार्वजनिक रूप से ‘बेचारे’ गाँधी को इस्लाम में ले आने की बात कही। पर गाँधीजी आदर्श धिम्मी की तरह उन मुल्ले-मौलवियों की सेवा करते रहे। खलीफत खत्म होने के बाद भी उन्होंने गर्व से कहा कि उन्हें यह पहले से मालूम होता, तब भी वे खलीफत के लिए वैसे ही समर्पित होकर लड़े होते।
बहरहाल, यहाँ खलीफत नेताओं ने मुस्तफा कमाल की दृढ़ता का गलत आकलन किया। क्योंकि कमाल ने भारतीय मुसलमानों की गतिविधियों को ही आधार बनाकर खलीफत का खात्मा कर दिया! वह अच्छा कदम भी साबित हुआ। कुछ ही वर्षों में तुर्की की भारी उन्नति हुई। दस वर्ष बाद तुर्की संसद ने मुस्तफा को ‘अता-तुर्क’ यानी तुर्कों के राष्ट्रपिता की उपाधि दी। उन के देहांत के बरसों बाद, 1951 ई. में तुर्की कानून ने मुस्तफा कमाल के प्रति असम्मान प्रकट करना दंडनीय अपराध घोषित किया, जो वहाँ आज भी है! ऐसा विशिष्ट स्थान तुर्की में किसी अन्य ऐतिहासिक व्यक्ति का नहीं है। इस से भी मुस्तफा कमाल की इस्लाम-विरोधी विरासत का महत्व समझ सकते हैं।
किसी कदम के सम्यक मूल्यांकन के लिए सौ वर्ष बहुत होते हैं। यदि इस्लाम के प्रति मुस्तफा ने गलती की होती, तो तुर्की समाज यह समझ चुका होता। किन्तु न तो तुर्की, न ही किसी अन्य मुस्लिम देश ने फिर खलीफा बनाने की सोची। यह प्रमाण है कि इस्लामी खलीफत अतीत की चीज हो चुकी है। उस के अधिकांश कायदे और विश्वास भी। तमाम मुल्ले-मौलवी बस जोर-जबर, और हिंसा बल पर ही वह सब मुस्लिम जनता पर थोपे रखते हैं। उन कायदों, मान्यताओं में स्वत: कोई दम नहीं है।
वस्तुत: खलीफत के खात्मे में ऐतिहासिक सबक हैं। जिस पर मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दुओं को भी विचार करना चाहिए। पहले तो मुस्तफा कमाल ने दिखाया कि मुस्लिम समाज को भी मजहबी अंधविश्वासों से मुक्त कर मानवीय मूल्यों से जोड़ा जा सकता है। ये मूल्य और वैज्ञानिक विचार ही उपयुक्त हैं, जिन से तुर्की की उन्नति हुई। यहाँ तक कि तुर्की सब से शक्तिशाली अंतर्राष्ट्रीय संगठन नाटो का भी सदस्य बना। पर हमारे लिए दूसरा सबक अधिक गंभीर है। भारत के मुल्ले नेताओं और गाँधीजी ने खलीफत आंदोलन चलाकर भारत की बेहिसाब हानि की। मुगलों के पतन के बाद दो सौ वर्षों में भारतीय जनजीवन पर इस्लामी दबदबा ठंढा पड़ चुका था।
फलत: शासित-शासक वाली ऊँच-नीच समाप्त होकर उच्च वर्गीय हिन्दू मुसलमान आपस में एक सहज समानता का संबंध बना चुके थे। उसे खलीफत आंदोलन के तैश-तेवर ने बुरी तरह बिगाड़ दिया। खलीफत नेताओं मौलाना आजाद, जौहर, अली बंधु, आदि ने ‘इस्लाम के लिए’ राजनीतिक भाषणों से मुसलमानों में ‘काफिरों’ के विरुद्ध जिहादी जोश भरा। भारत को ‘दारूल हरब’ यानी जिहाद युद्ध का इलाका घोषित किया। मुल्तान से मालाबार तक बेचारे हिन्दू लोग जिहादी उन्माद के भयंकर शिकार हुए। पर गाँधी के दबाव में कांग्रेस चुप रही। डॉ. अंबेडकर ने लिखा है कि कांग्रेस कार्यसमिति ने एक निन्दा प्रस्ताव तक पास नहीं किया। नेताओं की ऐसी भीरुता से हिन्दू समाज हीनता-ग्रस्त हो गया। हिन्दू-मुस्लिम उच्च वर्गों में पुनः मनोवैज्ञानिक असंतुलन बना। जो आज तक बरायनाम है। यहाँ की राजनीति में ‘तुष्टिकरण’ और ‘तृप्तिकरण’ उसी के लज्जास्पद रूप हैं।
इस तरह, जिन्ना की चेतावनी बढ़-चढ़कर सही साबित हुई। भारत में सांप्रदायिक द्वेष और अविश्वास फैला। उसी के बढ़ते-बढ़ते जल्द ही भारत-विभाजन हुआ। फिर नये बने ‘पाक’ मुल्क ने आगे वैश्विक जिहाद को प्रश्रय दिया। हक्कानी मदरसे जैसी विश्व-कुख्यात ‘जिहाद फैक्टरियाँ’ चलाई। यह तमाम घटनाक्रम खलीफत आंदोलन के ही विषैले परिणाम थे। यह हर सत्यनिष्ठ इतिहासकार ने नोट किया है।
इसीलिए, भारत में खलीफत आंदोलन की शताब्दी पर पूरा पर्दा डाला गया। क्योंकि उस आंदोलन के सभी काम और नतीजे घोर हानिकारक रहे। उसे याद करने पर अपने नेताओं और उन के कारनामों पर नजर जाती। सो, भारत में इस विषय पर घोर अज्ञान रखा गया है। अन्यथा खलीफत खात्मे के सौ साल होने पर इस के सबक से सब को शिक्षित करना उचित होता। किन्तु शिक्षा की ही बलि दे दी गई, ताकि झूठे देवताओं का देवत्व बचा रहे! पर वैसा करने से नई पीढ़ियाँ अँधेरे में रहती हैं। तब जैसा नियम है, जो इतिहास से नहीं सीखते वे उसे दुहराने को अभिशप्त होते हैं। सो कमोबेश भारत, पाकिस्तान, और बंगलादेश में उसी दुहराव का परिदृश्य दिखता रहता है।