*जब मुस्तफा कमाल ने खलीफत खत्म की! (भाग १)*
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‘खलीफा’ दुनिया के मुसलमानों के सर्वोच्च मजहबी-राजनीतिक प्रमुख होते थे। यह प्रोफेट मुहम्मद के देहांत बाद शुरू हुआ, जब उन के उत्तराधिकारी अबू बकर प्रथम खलीफा बने। वे 632 से 634 ई. तक खलीफा रहे। पर दो ही दशक बाद से मुख्यतः ईराकी और तुर्की लोग खलीफा बनते रहे। 1517 ई. से लगातार तुर्की सुलतान ही खलीफा रहे।
अंततः आधुनिक तुर्क नेता जेनरल मुस्तफा कमाल पाशा ने 1922 और 1924 में क्रमशः सल्तनत और खलीफत खत्म कर सेक्यूलर तुर्की गणराज्य बनाया। उन्होंने शरीयत कानून, मकतब-मदरसे, अरबी लिपि, मजहबी पोशाक, मुल्ले-मौलवियों के ओहदे, दरवेशी खानकाह, उन की जायदाद, आदि सारे मजहबी सरंजाम आमूल खत्म कर दिए। बदले में तुर्की को रोमन लिपि में नई भाषा, वैज्ञानिक शिक्षा और सेक्यूलर जीवनशैली में ढाला। जिस से वहाँ यूरोप जैसी तरक्की भी हुई। बाद में तुर्की संसद ने मुस्तफा कमाल को ‘अता-तुर्क’ यानी तुर्क राष्ट्रपिता की उपाधि भी दी।
यह सब एकाएक नहीं हुआ। मुस्तफा कमाल का स्पष्ट विचार था कि मजहब देश की आत्मा को जकड़ कर उसे फलने-फूलने से रोकता है। उन्होंने कहा था कि वे तुर्की से मजहब हटा देंगे जिस का जहर देश-समाज के पूरे शरीर को सड़ाता है। इस से मुक्त कर वे एक गतिशील आधुनिक तुर्की बनाना चाहते थे। मुस्तफा कमाल के शब्दों में, “पाँच सौ सालों से एक अरब शेख के नियमों मान्यताओं तथा उन पर पीढ़ियों से मुल्लों की व्याख्याओं ने तुर्की के सारे कानून निर्धारित किये। उन लोगों ने हर तुर्क का जीवन, खान-पान, सोने-जागने का समय, पोशाक, जच्चे-बच्चे के रुटीन, शिक्षा, रीति-रिवाज, विचार, यहाँ तक कि उस के जीवन की महीन तफसील तक तय की है।” यह सब लोगों पर बोझ था।
मुस्तफा कमाल कथित इलहामों को भी झूठ मानते थे, जिस का इस्तेमाल मुल्लों और सुल्तानों ने जनता को बेड़ियों में जकड़े रखने के लिए किया। कमाल के अनुसार जिस शासक को मजहब की जरूरत हो, वह कमजोर है। उन के शब्दों में, “एक अनुपयुक्त अरब का दिया हुआ मजहबी सिद्धांत अब मृत चीज है।” हो सकता है सदियों पहले किसी रेगिस्तानी कबीले को ठीक लगा हो, पर वह आज के किसी उन्नतिशील राज्य के लिए व्यर्थ है। वह किसी जहरीली लता जैसा है, जिसे हटा कर ही कोई देश रूपी पेड़ बचाया जा सकता है। इसीलिए कमाल को मुल्ले-मौलवियों से तीव्र घृणा थी। वे उन सब को निकम्मा समूह मानते थे जो आम जनता को केवल चूसते हैं। कमाल उन सब को मस्जिदों व खानकाहों से निकाल कर अन्य लोगों की तरह काम-धाम में लगाने या फिर देश से निकाल बाहर करने के हामी थे। यही उन्होंने किया।
यद्यपि तुर्की मुल्लों ने भी मुस्तफा कमाल के विरुद्ध प्रचार किया कि वह इस्लाम को खत्म करना और इस्लाम के खलीफा को वहाँ से निकाल बाहर करना चाहता है। फिर भी कमाल अपनी टेक पर डटे रहे। ताकत मिलते ही पहले तो नवंबर 1922 में खलीफा वहीदुद्दीन की सल्तनत, यानी शासन खत्म कर दिया। खलीफा केवल मजहबी मामले के सदर रह गये। शासन अपने हाथ लेकर मुस्तफा कमाल तुर्की के राष्ट्रपति बने। तब खलीफा तुर्की छोड़ कर भाग गये और अंग्रेजों से शरण ली। इस के बाद तुर्की संसद ने अब्दुल मजीद को नया खलीफा चुना।
पर मुस्तफा कमाल ने नये खलीफा को पारंपरिक तड़क-भड़क वाले समारोह की इजाजत नहीं दी। तुर्की संसद में कमाल ने कहा कि खलीफा अब केवल नाम का है, जिस के पास कोई कार्य नहीं। इसीलिए जब नये खलीफा ने अपने खर्चे वगैरह में बढ़ोतरी की माँग की तब इसे ठुकराते हुए कमाल ने दो टूक कहा कि खलीफा अवशेष निशानी भर है। उन्होंने तुर्की के प्रमुख मौलवी ‘शेख-उल-इस्लाम’ को भी देश से बाहर कर दिया। यहाँ तक कि अरबी लिपि वाली तुर्की भाषा, और अरबी लिपि में छपी पिछली सारी तुर्की किताबें आदि भी हर जगह से हटा दी! उस के बदले रोमन लिपि में नई तुर्की भाषा बनाकर देश में फैलाई।
इस काम में खुद और अपने उच्च अधिकारियों को लगाया। प्रसिद्ध तुर्की फेज (टोपी) समेत मजहबी पोशाक भी खत्म की। उस के बदले सूट, कोट, शर्ट, पैंट, टाई, और हैट पहनना जरूरी बनाया। स्त्रियों को भी बुर्के से निकल कर पुरुषों के साथ पूरी समानता के साथ रहने के लिए प्रोत्साहित किया। इस तरह, यूरोप की तरह शिक्षा-दीक्षा, सांस्कृतिक जीवन, नृत्य-संगीत, आदि को बढ़ावा दिया।
इन कदमों पर तुर्की के मुल्ले-मौलवियों का विरोध बेकार रहा। क्योंकि फौज व लोगों में मुस्तफा कमाल पहले ही तुर्की गौरव जैसे प्रतिष्ठित हो चुके थे। फिर, कमाल के राजनीतिक विरोधी नये खलीफा को अपना धुरा बना रहे थे। युवा खलीफा भी पुराना खलीफाई रौब-दाब फिर बहाल चाहते थे। इस स्थिति में मुस्तफा कमाल ने खलीफा और मुल्ले-मौलवियों को तुर्की के राष्ट्रीय हित के लिए हानिकर दिखाया। कमाल की दृढ़ता से मजहबी ताम-झाम और इस्लाम के खलीफा की तुलना में तुर्की के सम्मान व आजादी की भावना लोगों पर अधिक प्रभावी हुई।
जब तुर्की संसद में कुछ सदस्यों ने खलीफत के कूटनीतिक महत्व की बात उठाई तो मुस्तफा कमाल ने भड़क कर कहा, “क्या यह खलीफा, इस्लाम, उस के मुल्ले-मौलवी, आदि ही नहीं थे जिन के लिए तुर्क लोग सदियों से जहाँ-तहाँ लड़ते-बर्बाद होते रहे? अब समय आ गया है तुर्की अपना देखे, भारतीयों और अरबों की उपेक्षा करे, उन से छुटकारा ले, इस्लाम का नेता बनने से छुटकारा ले। खलीफत ने सदियों से तुर्की को चूस कर बेजान कर डाला है।” कमाल खलीफत को एक ‘फैंटम’ मानते थे, जिस की कोई जरूरत नहीं है।
मुस्तफा कमाल की बातें देश भर में अधिक मानी गई। मुल्ले-मौलवियों का विरोध निष्फल रहा। कमाल ने इस्तांबुल के गवर्नर को हुक्म दिया कि खलीफा का ताम-झाम बिलकुल बंद करे, उस का वेतन न्यूनतम कर दे, अमले-चमले घटा दे। कुछ लोगों ने कमाल से खुद खलीफा बन जाने की अपील की। पर कमाल ने इसे हिकारत से ठुकरा दिया। उन्होंने कहा कि, “यदि दुनिया में दूसरे मुस्लिम हमें समर्थन देते हैं तो इसलिए नहीं कि हमारे पास खलीफत है, बल्कि इसलिए कि हम ताकतवर हैं।” यह बात सदियों से अरब शासकों की हीन स्थिति देखते हुए सही भी लगती थी, जो प्रोफेट मुहम्मद के सीधे उत्तराधिकारी होकर भी पराजित होकर सदियों से भुलाए जा चुके थे।
बल्कि 656 ई. के बाद ही प्रोफेट के अपने कुरैश कबीले के लोग भी निस्तेज हो गये थे। जबकि प्रोफेट ने कहा था कि केवल उन के कबीले वाले ही खलीफा होंगे। पर यह बमुश्किल कुछ वर्ष ही चल सका। बाद की सदियों में तो तुर्क पाशाओं (राज कर्मचारियों) से सारा अरब डरता था। कुछ हद तक स्थिति आज भी वही है, जब अरब शासकों से अधिक वजनदार तुर्की शासक दिखता है। सो, कहना होगा कि मुस्तफा कमाल ने असल राजनीति और जीवन को अधिक सही समझा था। उस के सामने इस्लामी मतवाद के दावे बेकार साबित हुए।
रोचक यह है कि तुर्की से खलीफा को निष्कासित करने और खलीफत भी खत्म कर देने में भारतीय मुस्लिम नेताओं की एक निर्णायक भूमिका रही। यह दोहरा व्यंग्य है, क्योंकि 1919ई. से ही खलीफा का साम्राज्य यथावत बनाने के लिए भारत में ‘खलीफत आंदोलन’ चल रहा था। जो विश्व में कहीं अन्य नहीं हुआ था। अरब देशों में भी खलीफा से वितृष्णा थी, जिसे एक मरणासन्न शोषक संस्था समझा जाता था। पर कुछ भारतीय मुस्लिम नेता – अबुल कलाम आजाद, शौकत अली, मुहम्मद अली, अब्दुल बारी, आदि उसी खलीफत के लिए विकट उत्साहित थे। उन्होंने दुनिया भर से अपीलें की, कई शासकों से मिले, खलीफा के लिए प्रचार किया। पत्र-पर्चे बाँटे। यही खलीफत आंदोलन था जिस में महात्मा गाँधी भी उत्साह से लगे और अंत तक लगे रहे।
वस्तुत: पूरे खलीफत आंदोलन में गाँधीजी ने मानो उस के मुख्य सचिव, संगठनकर्ता, लिपिक, बल्कि दास की तरह अंधभक्ति भाव से काम किया! यह उन के ‘कलेक्टेड वर्क्स’ में 1918 से 1925 के बीच के अनेक खंडों में असंख्य लेख, भाषण, चिट्ठियों, प्रस्तावों, आदि पढ़ कर समझ सकते हैं। गाँधीजी, और उन के दबाव में कांग्रेस ने यह तब किया जब खुद तुर्की नेता मुस्तफा कमाल उसे अपने देश के मामले में हस्तक्षेप मानते थे। कमाल ने खलीफत आंदोलन को तुर्की के विरुद्ध ‘विदेशियों का षड्यंत्र’ बताया था।
— डॉ. शंकर शरण (५ नवम्बर २०२४)