सनातन काल से छठ पूजा का विधान

आचार्य डा. राधेश्याम द्विवेदी

छठ पर्व या छठ कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है। इस पूजा का महत्व सनातन काल से ही देखा जा सकता है। इसका आरंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना तथा सूर्य के आशीर्वाद स्वरूप उन्हें पुत्र कर्ण की प्राप्ति होने के समय से ही माना जाता है। इसी प्रकार द्रोपदी ने भी छठ पूजा की थी जिस कारण पांडवों के सभी कष्ट दूर हो गए और उन्हें उनका राज्य पुन: प्राप्त होता है। मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए भगवान सूर्य की आराधना की जाती है तथा गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर के किनारे पानी में खड़े होकर यह पूजा संपन्न की जाती है।

छठ त्यौहार का वैज्ञानिक दृष्टिकोण :-

छठ त्यौहार का धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी बहुत महत्व माना गया है। षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगौलीय अवसर होता है। इस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। उसके संभावित कुप्रभावों से रक्षा करने का सामर्थ्य इस परंपरा में रहा है। छठ व्रत नियम तथा निष्ठा से किया जाता है।भक्ति-भाव से किए गए इस व्रत द्वारा नि:संतान को संतान सुख प्राप्त होता है। इसे करने से धन-धान्य की प्राप्ति होती है तथा जीवन सुख-समृद्धि से परिपूर्ण रहता है।

भारत में छठ पूजा का प्रचलन

सूर्योपासना का यह लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। प्रायः हिंदुओं द्वारा मनाए जाने वाले इस पर्व को इस्लाम सहित अन्य धर्मावलंवी भी मनाते देखे गए हैं। धीरे-धीरे यह त्यौहार प्रवासी भारतीयों के साथ साथ विश्वभर मे प्रचलित व प्रसिद्ध हो गया है। राजा प्रियंवद की कहानी: कहते हैं राजा प्रियवंद को कोई संतान नहीं थी तब महर्षि कश्यप ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को आहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इससे उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई लेकिन वो पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने राजा प्रियंवद से कहा कि वो सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं और इसी कारण वो षष्ठी कहलातीं हैं। उन्होंने राजा प्रियंवद से उनकी पूजा करने और दूसरों को पूजा के लिए प्रेरित करने को कहा। जिसके बाद राजा प्रियंवद ने पुत्र इच्छा के कारण देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। तभी से छठ पूजा पूत्रों की दीर्घ आयु के लिए मनायी जाती है।

भगवान राम और लंका विजय से जुड़ी कहानी:

विजयादशमी के दिन लंकापति रावण के वध के बाद दिवाली के दिन भगवान राम अयोध्या पहुंचे। रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए भगवान राम ने ऋषि-मुनियों की सलाह से राजसूर्य यज्ञ किया। इस यज्ञ के लिए अयोध्या में मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया गया। मुग्दल ऋषि ने मां सीता को कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने की सलाह दी। इसके बाद मां सीता मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी। इसके बाद से ही यह पर्व मनाया जाता है। योद्धा कर्ण और माता कुंती से जुड़ी कहानी: एक मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। जिसकी शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वो रोज घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है।

द्रौपदी के छठ व्रत से राज वापस मिला था

छठ पर्व के बारे में एक कथा और भी है। इस कथा के मुताबिक जब पांडव अपना सारा राजपाठ जुए में हार गए तब दौपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को अपना राजपाठ वापस मिल गया था। लोक परंपरा के मुताबिक सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई।

पौराणिक एवं वैज्ञानिक महत्त्व:-

सूर्य देव की उपासना ही छठ पर्व से जुड़ा है और इसका पौराणिक तथा वैज्ञानिक महत्व भी है। कहा जाता है कि अस्ताचलगामी और उगते सूर्य को अघ्र्य देने के दौरान इसकी रोशनी के प्रभाव में आने से कोई चर्म रोग नहीं होता और इंसान निरोगी रहता है। हिंदू धर्म के देवताओं में सूर्य देव का अग्रीण स्थान है और हिंदू धर्म में इन्हें विशेष स्थान प्राप्त है. प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण को अघ्र्य देकर दोनों का नमन किया जाता है सूर्योपासना की परंपरा ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य की पूजा महत्व के विषय में विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में विस्तार पूर्वक उल्लेख प्राप्त होता है। सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के अनेक विकास क्रमों में देखी जा सकती है। पौराणिक काल से ही सूर्य को आरोग्य के देवता माना गया है वैज्ञानिक दृष्टि से भी सूर्य की किरणों में कई रोगों को समाप्त करने की क्षमता पाई गई है।सूर्य की वंदना का उल्लेख ऋगवेद में मिलता है तथा अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद आदि वैदिक ग्रंथों में इसकी महत्ता व्यक्त कि गई है।

सूर्य ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत:-

सम्पूर्ण जगत में सूर्य ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत है। मूलत: प्रकृति पूजा की संस्कृति वाले इस देश में, सूर्य की पूजा किसी भी परम्परा से बहुत- बहुत पुरानी है। यह वैदिक काल से है। लेकिन शास्त्रीयता और पांडित्य को लोक अपनी शर्तो पर स्वीकार करता है और उसका मानवीकरण भी करता है। लोक मूलत: हमारा कृषि आधारित समाज ही है।कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी की सूर्य पूजा (सूर्य षष्ठी) को भी अभिजन शास्त्रीयता के खिलाफ, किसानी जीवन (लोक) ने, अपना रंग दे दिया। जहां मां भगवती नीम की डाल पर झूला झूलती हैं और मालिन से पानी मांगती हैं। जहां सम्राट दशरथ की रानी कौशिल्या मचिया पर बैठती हैं लोक उसे ही स्वीकार करता है जो उसके बीच का हो, उस जैसा हो। शायद इसीलिए लोक ने सूर्य की शक्तियों और उसकी ऊर्जा का मानवीकरण छठ मैया के रूप में कर दिया हो। गीतों में भइया से छठ पर पूजा की मोटरी लाने का और धरती की हरीतिमा और सघन करने का आग्रह भी है। परदेसी पति को याद दिलाया जाता है कि घर पर छठ होने वाला है और अपनी जमीन से उखड़ने के दर्द को उत्सवधर्मिता से हटा दिया जाता है। पूजा के लिए लाए पके केले को सुग्गा के जूठा कर देने का गुस्सा है। लेकिन मूर्छित सुग्गे को जीवन दान के लिए आदित्य से आराधना भी है। सूर्य से बिनती भी है कि वह जल्दी उदित हों ताकि उन्हें अर्घ्य दिया जा सके। पूजा में वही चीजें चढ़ेगीं जो किसानी जीवन में सर्वाधिक सुलभ है। गुड़, गन्ना, सिंघाड़ा, नारियल, केला, नींबू, हल्दी, अदरक, सुपारी, साठी का चावल, जमीरी, संतरा, मूली आदि।

चतुर्थी से सप्तमी चार दिवसीय व्रत :- कार्तिक महीने की चतुर्थी से शुरू होकर सप्तमी तक मनाया जाने वाला ये त्यौहार चार दिनों तक चलता है। इस बार छठ पूजा की तिथि चार नवंबर से लेकर सात नवंबर तक है। इस दिन सूर्य की भी पूजा की जाती है। माना जाता है जो व्यक्ति छठ माता की इन दिनों पूजा करता है छठ माता उनकी संतानों की रक्षा करती हैं। प्रथम दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी नहाय-खाय के रूप में मनाया जाता है नहाए-खाए के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को खरना किया जाता है।पंचमी को दिनभर खरना का व्रत रखने वाले व्रती शाम के समय गुड़ से बनी खीर, रोटी और फल का सेवन प्रसाद रूप में करते हैं इसके उपरांत व्रती 36 घंटे का निर्जला व्रत करते हैं व्रत समाप्त होने के बाद ही व्रती अन्न और जल ग्रहण करते हैं। खरना पूजन से ही घर में देवी षष्ठी का आगमन हो जाता है। इस प्रकार भगवान सूर्य के इस पावन पर्व में शक्ति व ब्रह्मा दोनों की उपासना का फल एक साथ प्राप्त होता है। षष्ठी के दिन घर के समीप ही की सी नदी या जलाशय के किनारे पर एकत्रित होकर पर अस्ताचलगामी और दूसरे दिन उदीयमान सूर्य को अर्ध्य समर्पित कर पर्व की समाप्ति होती है।

राष्ट्रीय पर्व का दर्जा:-

छठ पूजा उत्तर भारत खासकर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। बिहार और झारखण्ड का छठ पर्व फैलते-फैलते अब लगभग देश के तमाम राज्यों में पूरी श्रद्धा से मनाया जाता है. ये पर्व अपने आप में अनोखा है भी क्योंकि इसमें बिना किसी बाह्रय आडंबर के प्रकृति की पूजा की जाती है और सूर्यदेव को अर्घ्य दिया जाता है। तमाम बातों के बावजूद ‘मन की बात’ में छठ के महत्व पर खासतौर पर बोलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे राष्ट्रीय पर्व का दर्जा दिलवाया है । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि दुनिया भर में लोग उगते सूर्य की पूजा करते हैं, लेकिन छठ एकमात्र ऐसा त्योहार है, जिसमें लोग अस्त होते सूर्य की भी आराधना करते हैं, जो एक बड़ा सामाजिक संदेश देता है। उन्होंने आगे कहा, छठ पूर्वी भारत का बड़ा त्योहार है और यह पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह चार दिनों तक चलता है. उन्होंने ये भी कहा कि छठ पूजा सूर्य को धन्यवाद अदा करने के लिए किया जाता है, जिन्हें ऊर्जा का भगवान माना जाता है। सूर्य की पूजा स्वास्थ्य, समृद्धि और प्रगति के लिए की जाती है।

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

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