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हमें अपने जीवन में कीर्तिशेष महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी के दर्शन करने, उनके वृहद वेद पारायण यज्ञों में भाग लेने तथा उनके तपोवन आश्रम, देहरादून में यज्ञ की वेदी व आश्रम के मंच से विचारों को सुनने का अवसर मिला है। उनकी पुत्री श्रीमती सुरेन्द्र अरोड़ा जी यज्ञ पारायण महिला हैं। वह देहरादून में रहती हैं और वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून से जुड़ी हुई हैं। वह आश्रम के कार्यों में प्रशंसनीय आर्थिक सहयोग करती हैं। आश्रम में आयोजित यज्ञों में माता जी के दर्शन करने व उनके द्वारा संचालित महिला सम्मेलन आदि में उपस्थित रहकर उनकी वैदिक विचारधारा पर अधिकारपूर्वक बातें कहने को भी हमने अपने चर्म चक्षुओं से देखा व कर्णों से सुना है। हम दिनांक 7-12-2018 को उनसे उनके निवास पर मिले थे। इस अवसर पर उन्होंने हमें एक पुस्तक उपदेश-माला भेंट की थी जिसमें महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी के लेखन वा उपदेशों को प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के संग्रहकत्र्ता श्री शशिमुनि आर्य एवं स्वर्गीय सुदर्शना मल्होत्रा जी हैं। यह पुस्तक वैदिक भक्ति साधन आश्रम, आर्यनगर, रोहतक-124001 से प्रकाशित है एवं वहीं से इसे प्राप्त किया जा सकता है। प्रकाशक के फोन नम्बर 01262-253214 एवं मोबाइल नम्बर 9899364721 हैं। इसी पुस्तक से हम आज एक लेख यज्ञ की प्रेरणा किसको प्रस्तुत कर रहे। लेख वा उपदेश प्रस्तुत है।
‘‘भारतवर्ष का पूर्व इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है कि वैदिक काल में यज्ञों की बहुत महिमा थी। समय-समय पर हमारे ऋषि-मुनियों ने इस पर प्रकाश डाला और बताने का प्रयत्न किया कि वेदों में बड़े-बड़े यज्ञों की विशेषता क्या है? और उनके करने से भौतिक तथा आध्यात्मिक लाभ क्या हैं? यज्ञ की श्रेष्ठताओं के कारण ही वेद भगवान् ने कहा है-‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ अर्थात् यज्ञ ही जीवन का श्रेष्ठ कर्म है और यह भी कहा-‘यज्ञेन वर्धत’ यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त करो अर्थात् आगे बढ़ो।
आज हमारे सामने प्रश्न है कि प्रभु किसको वेदों के बड़े-बड़े यज्ञ करने की प्रेरणा करते हैं और किसके लिए करते हैं? इसका उत्तर है कि प्रभु संसार में दो प्रकार के व्यक्तियों को प्रेरणा करते हैं। प्रथम वह व्यक्ति हैं, जिनके पुण्य जन्म के पुण्य उदय होने पर उनके यश कमाई सफल कराने के लिए प्रभु प्रेरणा करते हैं। दूसरे वह व्यक्ति हैं जिनको प्रभु स्थायी रूप से सुमार्ग पर लगाना चाहते हैं। प्रथम प्रकार के व्यक्ति एक बार ही यज्ञ करके फिर रह जाते हैं और इस यज्ञ में भी वह अपनी आत्मिक उन्नति के साधनों को भूल जाते हैं, व्रत तोड़ते रहते हैं तथा इसमें अनेक त्रुटियां करते रहते हैं। दूसरे प्रकार वाले व्यक्ति यज्ञ से बंध जाते हैं। वह प्रत्येक बात को ध्यान और विचार से मस्तिष्क में रखते हैं तथा उन पर आचरण करने में बहुत प्रसन्न होते हैं। ऐसे व्यक्ति ज्यों-ज्यों आचरण करते हैं, त्यों-त्यों उनको उसमें रस आने लगता है। फलस्वरूप उत्साह भी बढ़ता रहता है। यह स्थायीरूप से सन्मार्ग के पथिक बन जाते हैं। यह सब जानकर हम प्रभु से प्रेरणा प्राप्त कर बड़े-बड़े वेदों के यज्ञ करें और वृद्धि को प्राप्त करें।’’
हमने महात्मा दयानन्द जी को अनेक वर्षों तक वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून निवास करते एवं उन्हें समय-समय पर वृहद यज्ञों का आयोजन करते व उपदेश देते देखा व सुना है। वह समय अब से चालीस-पचास वर्ष पूर्व का है। उन दिनों यहां स्वामी विद्यानन्द विदेह, महात्मा आर्यभिक्षु जी, महात्मा बलदेव जी तथा स्वामी सत्यपति जी आते रहते थे। हमने इन विद्वानों को भी आश्रम में कई बार सुना है। यह स्वाभाविक नियम है कि कीर्तिशेष विद्वानों को समय के साथ भुला दिया जाता है। अतः हमने आज महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी के यज्ञ पर कुछ संक्षिप्त विचार प्रस्तुत इसलिए किए हैं जिससे हमारे मित्र उनकी एक झलक प्राप्त कर सकें। यह भी बता दें कि महात्मा जी महात्मा प्रभु आश्रित जी के जीवन व उपदेशों से प्रभावित होकर आर्यसमाज के सम्पर्क में आये थे। उन्होंने जीवन में रेलवे विभाग में अपनी सेवाएं दी थी। चालीस-पचास वर्ष पूर्व जब तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम् गांव में भय एवं प्रलोभन देकर एक पूरे गांव का धर्मान्तरण कर ईसाई बना दिया गया था तो महात्मा जी ने सार्वदेशिक सभा, दिल्ली के सहयोग से वहां जाकर सभी ग्रामवासियों को शुद्ध कर उन्हें पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित किया था। महात्मा जी को देशभर में आयोजित होने वाले वृहद् वेदपारायण यज्ञों का ब्रह्मा बनाया जाता था और वह उन यज्ञों में वेदोपदेश करके धर्म का प्रचार करते थे। उनका जीवन मनसा, वाचा कर्मणा वैदिक आचरणों का जीवन्त आदर्श था। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य