बहुधा मनुष्य अन्य वस्तु को ईश्वर मान लेते हैं, और ईश्वर सदृश वस्तु को मान कर उसका गुणगान करते हैं ।
किसी वस्तु के स्थान पर, यदि हम किसी वस्तु को लाते हैं, तो लाई हुई वस्तु की सदृशता पूर्व वस्तु से होनी चाहिये ।
हमें अष्टाध्यायी में एक सूत्र पढ़ाया जाता है –
“स्थानेsन्तरतमः ।”
(१/१/४९)
जो आदेश जिस-जिस के स्थान में प्राप्त हो, वह सदृशतम हो । सदृशतम अर्थात जो सबसे अधिक मिलता हो ।
सादृश्य चार प्रकार का होता है –
१) स्थानकृत – अर्थात जैसा स्थान ईश्वर का है, वैसे सदृशतम उस वस्तु का होना चाहिये, जैसे ईश्वर सर्वव्यापक है, वैसे ही उसके स्थान पर लायी गयी वस्तु भी व्यापक होनी चाहिये, यदि लायी गयी वस्तु व्यापक नहीं एकदेशीय है । तो फिर उसके स्थान पर यह वस्तु है, ऎसा कहना अनुचित है । अतः यहां सादृश्य नहीं बन पा रही है ।
२) अर्थकृत – जैसा ईश्वर का अर्थ है, वैसा ही अर्थ उसके स्थान पर लायी गयी वस्तु में घटना चाहिये । जैसे ईश्वर का मुख्य नाम “ओम् ” है, उस ओम् के अर्थ उसके स्थान पर लायी गयी वस्तु के अर्थ में घटना ही चाहिये । यदि नहीं घटते तो यहां भी ईश्वर का सादृश्य कोई नहीं बन सकता है ।
३) प्रमाणकृत – यहां प्रमाण का अर्थ उसकी मात्रा/माप से है ।
ईश्वर अनन्त है, अनादि है, ये उसका प्रमाण(परिमाण) है । तो आपने जिसे ईश्वर के स्थान पर उसका सदृशतम माना है, वो अनादि एवं अनन्त से युक्त है वा नहीं । यदि नहीं है, तो उसको ईश्वर के सादृश्य मान लेना उचित नहीं ।
४) गुणकृत – ईश्वर के अंदर सृष्टि बनाने का गुण विद्यमान है । अब हमने जिसे ईश्वर के स्थान पर मानी है, क्या वह वस्तु सृष्टि बनाने की गुण रखती है वा नहीं ? क्या कोई ईश्वर के सदृश सूर्य, चंद्र, बड़े-बड़े तारे, बहुत बड़ी-बड़ी गैलेक्सी और सूक्ष्म से सूक्ष्म रचनाएं बना सकता है ? यदि नहीं, तो फिर उसको ईश्वर के सदृश नहीं समझना चाहिये ।
इस प्रकार कोई भी ईश्वर का सादृश्य नहीं हो सकता है ।
……. सुशील गुप्ता आर्य ।