(यह लेख उन मतांधों के लिए है जो आज के दिन औरंगज़ेब की जयंती गर्व से बनाने की मूर्खता कर रहे है)
मुगल खानदान में सबसे लम्बे समय तक राज औरंगज़ेब का रहा था। जितना लम्बा औरंगज़ेब का राज था उतनी ही लम्बी उसके अत्याचारों की सूची थी। भारत के 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात पाठ्यक्रम में इतिहास के उन रक्तरंजित पृष्ठों को जिनमें मुसलमानों ने हिन्दुओं पर अथाह अत्याचार किये थे स्थान नहीं दिया गया। देश के नीति कारों का मानना था कि इससे हिन्दू -मुस्लिम वैमनस्य फैलेगा। मेरे विचार से यह सोच अपरिपक्वता की बोधक है। देशवासियों को सत्य के दिग्दर्शन करवाने से देश के नागरिकों विशेष रूप से मुसलमानों को जितना सत्य का बोध होगा, उतने वे अपने आपको भारतीयता के निकट समझेंगे। जब समस्त देशवासियों को चाहे हिन्दू हो या मुसलमान यह बोध होगा कि सभी के पूर्वज श्री राम और श्री कृष्ण जी को आराध्य रूप में मानते थे। इससे धर्म के नाम पर होने वाले विवाद अपने आप रुक जाते। सत्य की आवाज़ का गला दबाने के कारण रह रहकर यह उठती रही और इस समस्या का हल निकालने के स्थान पर उसे और अधिक विकट बनता रहा। कुछ अवसरवादी लोग अपने क्षणिक लाभों की पूर्ति के लिए उनका गलत फायदा उठाते रहते हैं। ऐसा ही अन्याय औरंगज़ेब को आलमगीर, जिन्दा पीर और महान शासक बताने वाले लोगों ने देशवासियों के साथ किया हैं।
औरंगजेब को न्यायप्रिय एवं शांति-दूत सिद्ध करने के लिए एक छोटी सी पुस्तक “इतिहास के साथ यह अन्याय: प्रो बी एन पाण्डेय” हाल ही में प्रकाशित हुई है । पुस्तक के लेखक दुनिया के सबसे अनभिज्ञ प्राणी के समान व्यवहार करते हुए लिखता है कि औरंगजेब ने अपने आदेशों में किसी भी हिन्दू मंदिर को कभी तोड़ने का हुकुम नहीं दिया। अपितु औरंगज़ेब द्वारा अनेक हिन्दू मंदिरों को दान देने का उल्लेख मिलता हैं। लेखक ने बनारस के विश्वनाथ मंदिर को दहाने के पीछे यह कारण बताया है कि औरंगजेब बंगाल जाते समय बनारस से गुजर रहा था। उसके काफिले के हिन्दू राजाओं ने उससे विनती की कि अगर बनारस में एक दिन का पड़ाव कर लिया जाये तो उनकी रानियाँ बनारस में गंगा स्नान और विश्वनाथ मंदिर में पूजा अर्चना करना चाहती हैं। औरंगजेब ने यह प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लिया। सैनिकों की सुरक्षा में रानियां गंगा स्नान करने गई। उनकी रानियों ने गंगा स्नान भी किया और मंदिर में पूजा करने भी गई। लेकिन एक रानी मंदिर से वापिस नहीं लौटी। औरंगजेब ने अपने बड़े अधिकारियों को मंदिर की खोज में लगाया। उन्होंने देखा की दीवार में लगी हुई मूर्ति के पीछे एक खुफियाँ रास्ता है और मूर्ति हटाने पर यह रास्ता एक तहखाने में जाता है। उन्होंने तहखाने में जाकर देखा की यहाँ रानी मौजूद है। जिसकी इज्जत लूटी गई और वह चिल्ला रही थी। यह तहखाना मूर्ति के ठीक नीचे बना हुआ था। राजाओं ने सख्त कार्यवाही की मांग की। औरंगजेब ने हुक्म दिया की चूंकि इस पावन स्थल की अवमानना की गयी है। इसलिए विश्वनाथ की मूर्ति यहाँ से हटाकर कही और रख दी जाये और मंदिर को तोड़कर दोषी महंत को सख्त से सख्त सजा दी जाये। यह थी विश्वनाथ मंदिर तोड़ने की पृष्ठभूमि जिसे डॉक्टर पट्टाभि सीतारमैया ने अपनी पुस्तक “Feather and the stones” में भी लिखा हैं। आइये लेखक के इस प्रमाण की परीक्षा करे –
- सर्वप्रथम तो औरंगजेब के किसी भी जीवन चरित में ऐसा नहीं लिखा है कि वह अपने जीवन काल में युद्ध के लिए कभी बंगाल गया था।
- औरंगजेब के व्यक्तित्व से स्पष्ट था कि वह हिन्दू राजाओं को अपने साथ रखना नापसंद करता था क्योंकि वह उन्हें “काफ़िर” समझता था।
- युद्ध में लाव लश्कर को ले जाया जाता हैं ना कि सोने से लदी हुई रानियों की डोलियाँ लेकर जाई जाती हैं।
- जब रानी गंगा स्नान और मंदिर में पूजा करने गयी तो उनके साथ सुरक्षा की दृष्टि से कोई सैनिक थे तो फिर एक रानी का अपहरण बिना कोलाहल के कैसे हो गया?
- दोष विश्वनाथ की मूर्ति का था अथवा पाखंडी महंत का तो सजा केवल महंत को मिलनी चाहिए थी। हिन्दुओं के मंदिर को तोड़कर औरंगजेब क्या हिन्दुओं की आस्था से खिलवाड़ नहीं कर रहा था?
- पट्टाभि जी की जिस पुस्तक का प्रमाण लेखक दे रहे है सर्वप्रथम तो वह पुस्तक अब अप्राप्य है। दूसरे उस पुस्तक में इस घटना के सन्दर्भ में लिखा है कि इस तथ्य का कोई लिखित प्रमाण आज तक नहीं मिला है। केवल लखनऊ में रहना वाले किसी मुस्लिम व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति ने इसका मौखिक वर्णन देने के बाद। इस का प्रमाण देने का वचन दिया था। परन्तु उसकी असमय मृत्यु से उसका प्रमाण प्राप्त न हो सका। इस व्यक्ति के मौखिक वर्णन को प्रमाण बताना इतिहास का मजाक बनाने के समान ही है। कूल मिला कर यह औरंगजेब को निष्पक्ष घोषित करने का एक असफल प्रयास के अतिरिक्त ओर कुछ नहीं है।
सत्य तो इतिहास है और इतिहास का आकलन अगर औरंगजेब के फरमानों से ही किया जाये तो निष्पक्षता उसे ही कहेंगे। फ्रेंच इतिहासकार फ्रैंकोइस गौटियर (Francois Gautier) ने औरंगजेब द्वारा फारसी भाषा में जारी किये गए फरमानों को पूरे विश्व के समक्ष प्रस्तुत कर सभी छद्म इतिहासकारों के मुंह पर ताला लगा दिया। जिसमें हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने और हिन्दू मंदिरों को तोड़ने की स्पष्ट आज्ञा थी। ध्यान दीजिये औरंगजेब ने “आलमगीर” बनने की चाहत में अपनी सगे भाइयों की गर्दन पर छुरा चलाने से लेकर अपने बूढ़े बाप को जेल में डालकर प्यासा मारा था। तो उससे हिन्दू प्रजा की सलामती की इच्छा रखना बेईमानी होगी।
औरंगजेब द्वारा हिन्दू मंदिरों को तोड़ने के लिए जारी किये गए फरमानों का कच्चा चिट्ठा
- 13 अक्तूबर,1666- औरंगजेब ने मथुरा के केशव राय मंदिर से नक्काशीदार जालियों को जोकि उसके बड़े भाई दारा शिकोह द्वारा भेंट की गयी थी को तोड़ने का हुक्म यह कहते हुए दिया कि किसी भी मुसलमान के लिए एक मंदिर की तरफ देखने तक की मनाही है। और दारा शिकोह ने जो किया वह एक मुसलमान के लिए नाजायज है।
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12 सितम्बर 1667- औरंगजेब के आदेश पर दिल्ली के प्रसिद्ध कालकाजी मंदिर को तोड़ दिया गया।
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9 अप्रैल 1669 को मिर्जा राजा जय सिंह अम्बेर की मौत के बाद औरंगजेब के हुक्म से उसके पूरे राज्य में जितने भी हिन्दू मंदिर थे, उनको तोड़ने का हुक्म दे दिया गया और किसी भी प्रकार की हिन्दू पूजा पर पाबन्दी लगा दी गयी। जिसके बाद केशव देव राय के मंदिर को तोड़ दिया गया और उसके स्थान पर मस्जिद बना दी गयी। मंदिर की मूर्तियों को तोड़ कर आगरा लेकर जाया गया और उन्हें मस्जिद की सीढ़ियों में गाड़ दिया गया और मथुरा का नाम बदल कर इस्लामाबाद कर दिया गया। इसके बाद औरंगजेब ने गुजरात में सोमनाथ मंदिर का भी विध्वंस कर दिया।
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5 दिसम्बर 1671 औरंगजेब के शरीया को लागु करने के फरमान से गोवर्धन स्थित श्री नाथ जी की मूर्ति को पंडित लोग मेवाड़ राजस्थान के सिहाद गाँव ले गए। जहाँ के राणा जी ने उन्हें आश्वासन दिया की औरंगजेब की इस मूर्ति तक पहुँचने से पहले एक लाख वीर राजपूत योद्धाओं को मरना पड़ेगा।
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25 मई 1679 को जोधपुर से लूटकर लाई गयी मूर्तियों के बारे में औरंगजेब ने हुकुम दिया कि सोने-चाँदी-हीरे से सज्जित मूर्तियों को जिलालखाना में सुसज्जित कर दिया जाये और बाकि मूर्तियों को जामा मस्जिद की सीढ़ियों में गाड़ दिया जाये।’
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23 दिसम्बर 1679 औरंगजेब के हुक्म से उदयपुर के महाराणा झील के किनारे बनाये गए मंदिरों को तोड़ा गया। महाराणा के महल के सामने बने जगन्नाथ के मंदिर को मुट्ठी भर वीर राजपूत सिपाहियों ने अपनी बहादुरी से बचा लिया।
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22 फरवरी 1680 को औरंगजेब ने चित्तोड पर आक्रमण कर महाराणा कुम्भा द्वारा बनाएँ गए 63 मंदिरों को तोड़ डाला।
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1 जून 1681 औरंगजेब ने प्रसिद्ध पूरी का जगन्नाथ मंदिर को तोड़ने का हुकुम दिया।
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13 अक्टूबर 1681 को बुरहानपुर में स्थित मंदिर को मस्जिद बनाने का हुकुम औरंगजेब द्वारा दिया गया।
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13 सितम्बर 1682 को मथुरा के नन्द माधव मंदिर को तोड़ने का हुकुम औरंगजेब द्वारा दिया गया। इस प्रकार अनेक फरमान औरंगजेब द्वारा हिन्दू मंदिरों को तोड़ने के लिए जारी किये गए।
हिन्दुओं पर औरंगजेब द्वारा अत्याचार करना
2 अप्रैल 1679 को औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया गया जिसका हिन्दुओं ने दिल्ली में बड़े पैमाने पर शांतिपूर्वक विरोध किया परन्तु उसे बेरहमी से कुचल दिया गया। इसके साथ-साथ मुसलमानों को करों में छूट दे दी गयी जिससे हिन्दू अपनी निर्धनता और कर न चूका पाने की दशा में इस्लाम ग्रहण कर ले। 16 अप्रैल 1667 को औरंगजेब ने दीवाली के अवसर पर आतिशबाजी चलाने से और त्यौहार बनाने से मना कर दिया गया। इसके बाद सभी सरकारी नौकरियों से हिन्दू कर्मचारियों को निकाल कर उनके स्थान पर मुस्लिम कर्मचारियों की भरती का फरमान भी जारी कर दिया गया। हिन्दुओं को शीतला माता, पीर प्रभु आदि के मेलों में इकट्ठा न होने का हुकुम दिया गया। हिन्दुओं को पालकी, हाथी, घोड़े की सवारी की मनाई कर दी गयी। कोई हिन्दू अगर इस्लाम ग्रहण करता तो उसे कानूनगो बनाया जाता और हिन्दू पुरुष को इस्लाम ग्रहण करने पर 4 रुपये और हिन्दू स्त्री को 2 रुपये मुसलमान बनने के लिए दिए जाते थे। ऐसे न जाने कितने अत्याचार औरंगजेब ने हिन्दू जनता पर किये और आज उसी द्वारा जबरन मुस्लिम बनाये गए लोगों के वंशज उसका गुण गान करते नहीं थकते हैं।
एक मुहावरा है कि एक जूठ को छुपाने के लिए हज़ार जूठ बोलने पड़ते हैं। औरंगज़ेब को न्यायप्रिय घोषित करने वालों ने तो उसके अत्याचार और मतान्धता को छुपाने के लिए इतने कमजोर साक्ष्य प्रस्तुत किये जो एक ही परीक्षा में ताश के पत्तों के समान उड़ गए। यह भारत के मुसलमानों के समक्ष यक्ष प्रश्न है कि उनके लिए आदर्श कौन है?
औरंगज़ेब जैसा अत्याचारी अथवा उसके अत्याचार का प्रतिकार करने वाले वीर शिवाजी महाराज।