राम का अंतर्द्वंद्व : राम के जीवन का अछूता पक्ष और लेखक

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भगवान श्री राम के बारे में यह बात कुछ असहज सी लगती है कि उन्हें भी कभी अंतर्द्वंद्व हुआ होगा । क्योंकि जनमानस में उनको लेकर एक ऐसी छवि स्थापित है , जिसमें वे प्रत्येक प्रकार के द्वंद्वभाव से ऊपर उठे हुए दिखाई देते हैं। इसके उपरान्त भी डॉ विनय कुमार सिंगला ‘ निश्छल’ जी ने श्री राम के भीतर एक साधारण मनुष्य की छिपी भावनाओं को समझकर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि कहीं ना कहीं उनके भीतर भी द्वंद्व रहा होगा। उन्होंने स्वयं यह स्वीकार किया है कि “मैं श्री राम के जीवन के उन पक्षों पर लिखना चाहता था जो अब तक अछूते थे।”
राम की पीड़ा को समझना और उसे शब्दों में प्रस्तुत करना सचमुच एक बड़ी चुनौती है। परंतु अपने साहित्यिक क्षेत्र में अन्य लोगों के लिए स्वयं ही एक चुनौती बन गए, सिंघल जी ने इस चुनौती को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। संभवतः इसमें भी उनका ‘ निश्छल ‘ भाव है कि उन्हें राम के भीतर छुपी हुई पीड़ा दिखाई दी और उसे उन्होंने सहज रूप में प्रकट करने का संकल्प ले लिया। निश्छल जी की यह अद्भुत कवित्व शैली है कि वे अपने साथ अपने पाठक को बांधकर चलने की क्षमता रखते हैं। इस खंडकाव्य के माध्यम से श्री सिंघल जी ने एक अलौकिक सी यात्रा करवाने का लौकिक प्रयास किया है।
लेखक ने अनेक स्थलों पर श्रीराम के भीतर के अंतर्द्वंद्व को अपनी इस कालजयी रचना के माध्यम से प्रकट करने का अभिनंदनीय प्रयास किया है । अपने इस अनोखे प्रयास के माध्यम से सिंघल जी हम सबको ही श्री राम के सूक्ष्म जगत के सूक्ष्म भाव जगत में प्रवेश कराने में सफल हुए हैं । उदाहरण के रूप में कवि की ये पंक्तियां प्रस्तुत की जा सकती हैं :-

मन के झंझावात हृदय को, विचलित तो करते ही होंगे,
भारत लादी में पला बढ़ा है ,क्या उसकी सब सुनते होंगे।

रामचंद्र जी को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। यह ठीक है कि उन्होंने हर समय मर्यादाओं को बांधने का अभिनंदनीय प्रयास किया , परन्तु जब मर्यादाएं टूटी होंगी या लूटी गई होंगी या कहीं छूट गई हों तो निश्चय ही उनके भाव जगत में वेदना झलकी होगी । जैसे :-

स्वर्ण का मृग नहीं , माया थी ,मैं भी क्यों मतिहीन हो गया।
सिया भ्रमित थी, राम नहीं था, फिर भी बुद्धि विहीन हो गया।

इस प्रकार के भाव जगत को लेखक ने बहुत ही उत्तमता और सुंदरता के साथ शब्दों का सौंदर्य बोध कराते हुए हमारे हृदय के भीतर उतारने का अनोखा और सफल प्रयास किया है।

देख अकेले भरत शत्रुघ्न , शत्रु भी संधि करते होंगे।
भरत शत्रुघ्न मिलकर दोनों छलबल अरि के दलते होंगे।।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी ने सदा दूसरों को सम्मान देने का प्रयास किया। यहां तक कि मर्यादा तोड़ने वाले लोगों को भी समय आने पर उन्होंने क्षमा कर दिया और कैकेई जैसी विमाता को तो मर्यादा तोड़ते देखकर भी कभी कुछ नहीं कहा। वह सहज और सरल बने रहे । परंतु इसके उपरांत भी यदि लेखक के साथ तारतम्य स्थापित किया जाए तो स्पष्ट होता है कि श्री राम के भाव जगत में कहीं ना कहीं पीड़ा तो हुई होगी। इस पीड़ा को शब्द देना और शब्दों को कविता की वीणा पर तानकर उसके संगीत का आनंद लेना ,फिर उस आनंद को अलौकिक शक्ति के साथ समन्वित करना लेखक की विद्वत्ता , कविता के प्रति उसके समर्पण की उत्कृष्टतम पवित्र भावना को तो प्रकट करता ही है, साथ ही भारतीय सांस्कृतिक परंपरा के प्रति उनके अनुराग और भक्ति भावना को भी प्रकट करती है। राम की पीड़ा में भी लेखक संकल्प खोजते हैं और उन संकल्पों को राम के लिए विकल्पविहीन बनाकर राम की मर्यादा को और भी ऊंचाई प्रदान कर देते हैं।
हम सभी जानते हैं कि शूर्पणखा का कार्य अनैतिक और अनुचित था। जिसके अनुचित और अनैतिक कार्य का सही फल लक्ष्मण जी ने उसे दे दिया था। इसके पश्चात अब वे परिस्थितियां बननी आरंभ हुईं जो उस कालखंड की ऐतिहासिक क्रांति का सूत्रपात करने वाली थीं। यह घटना राक्षस वंश के लिए ऐसी घटना सिद्ध हुई जिसने उसके विनाश की प्रक्रिया आरंभ कर दी। रामचंद्र जी ने राक्षस वध का संकल्प पहले ही ले लिया था। वह शूरवीर थे ,साहसी और पराक्रमी व्यक्तित्व के स्वामी थे। युद्ध के मैदान से भागना उन्होंने सीखा नहीं था। उन्होंने भी यह संकल्प ले लिया था कि उनका संपूर्ण जीवन यदि राक्षस वध करने में व्यतीत हो तो उन्हें आनंद प्राप्त होगा। यद्यपि इस संकल्प की रक्षा के लिए भी उन्हें अनेक प्रकार की पीड़ाओं से और अंतर्द्वंदों से गुजरना पड़ा होगा।

महासंकल्प लिया जीवन का,
आतंक मिटा दूंगा वन से ।
जो वृत्तियाँ पाप कराती हैं ,
हटा दूंगा उनको आसन से ।।
यज्ञ योग से जुड़े मनुज जो,
भूषण कहलाते वसुधा भर के ।
जो वेद धर्म के लिए समर्पित
हर क्षण गाते गीत सनातन के।।
उनकी रक्षा का भार उठाकर,
निशंक चलूंगा जीवन पथ पर ।
रघुकुल की रीत यही है मेरी ,
निर्वाह करूंगा जीवन भर।।

वास्तव में महापुरुष अपने संकल्प के साथ जीना सीख लेते हैं। उनके लिए ‘कल्पवृक्ष’ नाम का कोई काल्पनिक वृक्ष नहीं है जो उन्हें ऐसी अद्भुत और अलौकिक चीजों को प्राप्त कराने में सहायक होगा, जिनके लिए संसार का कोई साधारण मनुष्य कभी-कभी सपने ही ले लिया करता है। महापुरुष वही होते हैं जो अपने आप संकल्प का वृक्ष लगाते हैं और उसके मीठे फल खाते हैं । इतिहास संकल्प वृक्ष के लगाने वाले ऐसे महापुरुषों के ही गुणगान किया करता है। जिनके संकल्पों में शिथिलता होती है, वह कभी महान कार्य संपादित नहीं कर पाते। उनके जीवन शिथिल पड़ जाते हैं और जब चुनौतियां उनके सामने आती हैं तो उन्हें देख कर वे भाग जाते हैं ।
रामचंद्र जी भी संकल्प वृक्ष के नीचे बैठकर अपनी साधना कर रहे थे। आतंक, आतंकी और आतंकवाद से उन्होंने शत्रुता मोल ले ली थी। अब इन तीनों को मिटाना उनके जीवन का ध्येय हो गया था। यद्यपि कुछ लोगों ने रामचंद्र जी के जीवन चरित्र का उल्लेख करते हुए कुछ इस प्रकार प्रभाव डालने का प्रयास किया है कि उनके समय में राक्षसी वृत्तियां नगण्य थीं और धार्मिक लोगों का वर्चस्व चारों ओर था। माना कि धार्मिक पुरुषों की संख्या उस समय अधिक थी, परंतु यह भी सत्य है कि उनके काल में राक्षसी वृत्तियां भूमंडल के अधिकांश भाग पर अपना शासन करने में सफल हो गई थीं। जिससे जनसाधारण का जीवन कठिनाइयों और विषमताओं से भर गया था। जिनका विनाश करने का महा संकल्प श्री राम ने लिया। लेखक के दृष्टिकोण से श्री राम ने अपने अन्तर्जगत में अनेक प्रकार के भावों को संकल्प रूप में प्रकट होने दिया, उनकी पीड़ा या उनका अंतर्द्वंद्व सात्विक के साथ प्रकट होता रहा।
लेखक के इन शब्दों पर यदि विचार किया जाए तो पता चलता है कि श्री राम के भीतर जहां अद्भुत संकल्प शक्ति भरी हुई थी, वहीं वे किसी अदृश्य से अंतर्द्वंद्व से भी जूझ रहे थे: –

मैं लौटूंगा अब किस मुंह से ,
मां पूछेगी सिया कहां है ,
नहीं नहीं मैं क्यों लौटूंगा
जाना मुझको सिया जहां है।।

भावों का उठना अलग बात है परन्तु उन्हें विचारों के मोतियों के रूप में पिरोना अलग बात है, … लेखक मोतियों को भी इतनी धार देते हैं कि वह हीरे की भांति चमक उठते हैं। बस, यही उनकी कलम की वह दिव्य और अलौकिक शक्ति है जो हम सबको उनकी लेखनी का लोहा मानने के लिए प्रेरित करती है।

दिनांक 21. 10. 2024

                                         भवदीय


                            डॉ राकेश कुमार आर्य 
संपादक उगता भारत समाचार पत्र 

एवं राष्ट्रीय प्रणेता : भारत को समझो अभियान समिति

दयानंद स्ट्रीट, सत्यराज भवन, (महर्षि दयानंद वाटिका के पास)
निवास : सी ई 121 , अंसल गोल्फ लिंक – 2, तिलपता चौक , ग्रेटर नोएडा, जनपद गौतमबुध नगर , उत्तर प्रदेश । पिन 201309 (भारत)
चलभाष : 9911169917
email ID : [email protected]

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