लेखक-पंडित धर्मदेव विद्यामार्तण्ड
[Monotheism अंग्रेजी के इस शब्द से बहुत लोग एक असमंजस की स्थिति में हैं। इसका अर्थ है एकेश्वरवाद अर्थात ईश्वर एक है। पश्चिमी विचारकों ने वेदों को लेकर एक भ्रान्ति है कि वेदों में ईश्वर अनेक है अर्थात वेद बहुदेवतावाद का समर्थन करते है। उनकी दूसरी मान्यता यह है कि सेमेटिक मत जैसे ईसाई/इस्लाम में ईश्वर एक है। उनकी इस मान्यता का अनेक भारतीय विचारक भी अंधानुसरण करते मिलते हैं। स्वामी दयानन्द ने वेदों पर व्यापक अनुसन्धान करने के पश्चात यह सिद्धांत स्थापित किया कि वेदों में एकेश्वरवाद का सन्देश दिया गया हैं। एक ईश्वर के अनेक गुणों के कारण अनेक नाम है। उनका हर गुण उनके एक या अनेक नामों का प्रतिपादक हैं। इस व्याख्या को न समझ कर अनेक विचारकों ने स्वामी जी पर यह दोषारोपण भी कर दिया कि स्वामी जी सेमेटिक मतों से प्रभावित थे। जबकि सत्य यह है कि ईसाई में में एकेश्वरवाद नहीं अपितु थ्योरी ऑफ़ ट्रिनिटी अर्थात ईश्वर, पवित्र आत्मा और ईश्वर का पुत्र तीन को माना गया है। जबकि इस्लाम में अल्लाह, रसूल और उनके मध्य लाखों मध्यस्त यानि फरिश्ते संदेशवाहक हैं। इसलिए विशुद्ध एकेश्वरवाद तो केवल वेदों में ही मिलता है। मेरी इस विषय पर अनेक विचारकों से चर्चा हुई है। मगर वे पश्चिमी मान्यता को ही समर्थन करने में लगे हुए हैं। सीता राम गोयल से लेकर रामस्वरूप भी पश्चिमी मान्यता को समर्थन करते मिले। उनका अनुसरण करने वाले बेल्जियम निवासी कॉनरेड एल्स्ट (koenraad elst), श्रीकांत तालगिरी (Shrikant G Talageri) आदि से भी मेरी निजी चर्चा हुई। वो भी वेदों में एकेश्वरवाद को मानने को तैयार नहीं है। अभी हाल ही में प्रसिद्द ट्विटर हैंडल TrueIndology ने भी ऐसा ही किया हैं। सत्य यह है कि इन सभी ने वेदों का व्यापक और गंभीर अध्ययन नहीं किया हैं। केवल कुछ पश्चिमी और भारतीय लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन मात्र किया हैं। इसलिए इन्हें यह भ्रान्ति बनी रहती है। मैं पंडित धर्मदेव मार्तण्ड जी के इस लेख के माध्यम से इस भ्रान्ति का निवारण करना चाहता हूँ। -डॉ विवेक आर्य ]
वेदों में ईश्वर के एक होने (Monotheism) का वर्णन है जबकि पश्चिमी विद्वानों द्वारा वेदों में अनेक ईश्वर (Polytheism) होना बताया गया है। स्वामी दयानंद द्वारा वेद विषयक वैचारिक क्रान्ति का मैक्समूलर पर इतना प्रभाव हुआ कि कालान्तर में मैक्समूलर भी वेदों में एकेश्वरवाद की धारणा का समर्थन करने पर विवश हो गये। इस सन्दर्भ में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् पण्डित धर्मदेव विद्यामार्तण्ड जी द्वारा लिखित यह अलभ्य लेख “वैदिक ईश्वरवाद” हमारी शंका का समाधान करने के साथ-साथ अत्यन्त रोचक और विचारणीय है।
(१) कई विद्वान ‘वेद असभ्य जंगली लोगों द्वारा बनाये गये और उनमें इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार के लिये अग्नि, वायु, सूर्य, नदी, समुद्र, पर्वत आदि की पूजा का इन्द्र, मित्र, वरुण, मरुत आदि देवों के नाम से उपदेश है’ ऐसा बताते हैं।
(२) अन्य कई विद्वान् वेदों में अनेकेश्वरवाद का जिसे अंग्रेजी में (Polytheism) कहते हैं विधान नहीं किन्तु Henotheism वा हीनदेवतावाद का प्रतिपादन है ऐसा कहते हैं। जिसका अभिप्राय यह है कि जब कोई भक्त अग्नि की स्तुति करने लगता है तो वह उसी को सर्वोत्तम, सबका उत्पादक और सर्वशक्तिमान् मानकर उसकी पूजा करता है और दूसरे सब देवताओं को उसकी अपेक्षा हीन मानता है। जब वही कवि इन्द्र की स्तुति करने लगता है तो उसे ही सबका स्वामी, सबका पिता और सर्वशक्तिमान् मानता और अन्य सब देवों को उसकी अपेक्षा हीन बताता है। इसी प्रकार वरुण, सविता आदि के विषय में भी समझना चाहिए। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रो० मैक्समूलर ने बहुत देर तक इसी मत का समर्थन किया था यद्यपि अपने अंतिम ग्रन्थ “Six Systems Of Philosophy” के लिखने के समय में उसके विचारों में परिवर्तन हो चुका था ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है।
(३) अन्य कई विकासवादी और ऐतिहासिक यह कहते हैं कि वैदिक कवि लोग पहले अनेकेश्वरवाद वा बहुदेवतावाद (Poly-theism) को ही मानते थे फिर वे हीनदेवतावाद को मानने लगे गये। क्रम से जब उनकी बुद्धि विकसित होती गई तो विशुद्ध एकेश्वरवाद (Pure monotheism) की कल्पना उनके मन में उत्पन्न हुई। इस प्रकार विकासवाद की दृष्टि से एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करने वाले मन्त्र नवीन हैं।
(४) अन्य विद्वान ऐसा मानते हैं कि वेद ईश्वरीय ज्ञान रूप है। ऋषि मन्त्रों के कर्त्ता नहीं किन्तु “ऋषयो मन्त्र द्रष्टार” “ऋषिर्दर्शनान् सहीमान् ददर्शेति” “तद् यदेनास्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वम्भ्य भ्यानर्शत् तदृषीणामृषित्वमिति विज्ञायते” (निरुक्तम्)।
इत्यादि प्रमाणों से वे मन्त्रों के द्रष्टा अर्थात् वेदों के गूढ़ अर्थ को समझ कर उनका प्रचार करने वाले थे। परमदयालु सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्राणिमात्र के उपकार के लिये सृष्टि के शुरू में प्रकट किये जाने के कारण वेद विशुद्ध रूप में एकेश्वरवाद का ही प्रतिपादन करते हैं न कि अनेकेश्वरवाद का। यह अन्तिम पक्ष ही हमको मान्य है। उसके समर्थक कुछ स्पष्ट प्रमाणों का यहां उल्लेख करके दूसरे विचारों की आलोचना की जायगी। निम्नलिखित वेद मन्त्र एकेश्वरवाद का अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन करते हैं।
(१) इंद्र मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:।। ऋ० १/१६४/४६
इस मन्त्र में यह स्पष्टतया बताया गया है कि परमेश्वर एक ही है किन्तु विद्वान् उसके अनन्त गुणों को सूचित करने के लिए इन्द्र मित्र वरुण आदि नामों से पुकारते हैं। इस प्रकार इन्द्र मित्र वरुणादि शब्द मुख्यतया ईश्वर-वाचक हैं यह स्पष्ट सिद्ध होता है। परमात्मा परमैश्वर्य सम्पन्न होने से इन्द्र, सबका मित्र तथा प्रेममय होने से मित्र, सबसे उत्तम और वरणीय तथा अविद्यादि दोष निवारक होने से वरुण, ज्ञान स्वरूप और अग्रणी सबसे श्रेष्ठ होने से अग्नि पद से उसे कहा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, महेश्वर, महादेव, बृहस्पति इत्यादि शब्द प्रधानतया उसी एक परमेश्वर को सूचित करते हैं। यह निम्न मन्त्रों से सिद्ध होता है।
(२) त्वमग्न इन्द्रो वृषभ: सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्य:। त्वं ब्रह्मा रयिविद्ब्रह्मणस्पते त्वं विधर्त: सचसे पुरंध्या।। ऋ० २/१/३
(३) त्वमग्ने राजा वरुणो धृतव्रतस्त्वं मित्रो भवसि दस्म ईड्य:। त्वमर्यमा सत्पतिर्यस्य सम्भुजं त्वमंशो विदथे देव भाजयु:।। ऋ० २/१/४
(४) त्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवस्त्वं शर्धो मारुतं पृक्ष ईशिषे। त्वं वातैररुणैर्यासि शंगयस्त्वं पूषा विधत: पासि नु त्मना।। ऋ० २/१/६
(५) सोऽर्यमा स वरुण: स रुद्र: स महादेव:।
सो अग्नि: स उ सूर्य: स उ एव महायम:। अथर्व० १३/४/४, ५
(६) त्वमिन्द्रस्त्वम्महेन्द्रस्त्वं लोकस्त्वं प्रजापति:। तुभ्यं यज्ञो वि तायते तुभ्यं जुह्वति जुह्वतस्तवेद्विष्णो बहुधा वीर्याणि।। अथर्व० १७/१/१८
इन मन्त्रों पर यदि निष्पक्ष विचार किया जाये तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि एक ही परमात्मा के ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र, वृषभ, बृहस्पति, अग्नि, प्रजापति, वरुण, मित्र, अर्यमा, पूषा आदि नाम हैं और इस प्रकार वेदों में अनेकेश्वरवाद के भ्रम का कोई स्थान नहीं रहता। सत्य ग्रहण करने में उद्यत और पाश्चात्य विद्वानों की मानसिक दासता को स्वीकार करने वाले विद्वानों को इन मन्त्रों का अच्छी प्रकार मनन करना चाहिए तब उनका वैदिक एकेश्वरवाद में दृढ़ विश्वास हो जायेगा, इसमें सन्देह नहीं। इन मन्त्रों पर विचार करने से हीन देवतावाद का भी खण्डन हो जाता है।
(७) तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा:।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआप: स प्रजापति:।। यजु० ३२/१
यह मन्त्र भी एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करते हुए उसी परमेश्वर के अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रादि नाम हैं, इस बात को स्पष्ट घोषित करता है। ऐसे मन्त्रों के भाव को लेकर ही कैवल्योपनिषद् में-
सब्रह्मा सविष्णु सरुद्र: सशिव: सोऽक्षर:।
स परम:स्वराट्। स इन्द्र: स कालाग्नि: स चन्द्रमा:।।
ऐसे कहा है।
भगवान् मनु ने भी-
प्रशासितारं सर्वेषां अणीयांसं अणोरपि।
रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम्।।
एतं एके वदन्त्यग्निं मनुं अन्ये प्रजापतिम्।
इन्द्रं एके परे प्राणं अपरे ब्रह्म शाश्वतम्।। मनु० १२/१२१-१२३
इत्यादि श्लोकों द्वारा उसी वैदिक भाव का समर्थन किया है।
(८) यो नः पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यो देवानां नामध एक एव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या।। ऋ० १०/८२/३
इस मन्त्र में भी परमात्मा एक ही है जो देवों के नाम अग्नि, मित्र, वरुणादि को धारण करनेवाला है। ऐसा साफ कहा है। यही मन्त्र अथर्ववेद के २/१/३ में थोड़े पाठ भेद के साथ इस प्रकार पाया जाता है-
“स नः पिता जनिता स उत बन्धुर्धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यो देवानां नामध एक एव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्ति सर्वा।।”
इन दोनों मन्त्रों में प्रयुक्त “यो देवानां नामध एक एव” यह अंश विशेष मननीय है जो वेदों में अनेकेश्वर वाद विषय के भ्रम को दूर करने को पर्याप्त है।
(९) परमात्मा एक ही है जो सर्वदा और सर्वशक्तिमान होने से एक मात्र स्तुति करने योग्य है ऐसा निम्नलिखित ऋग्वेदीय मन्त्र में उपदेश किया गया है।
“य एक इत्तमु ष्टुहि कृष्टीनां विचर्षणि:। पतिर्जज्ञे वृषक्रतु:।।” ऋ० ६/४५/१६
इस मन्त्र में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में एकेश्वरवाद का प्रतिपादन है। ऐसी अवस्था में वेद अनेकेश्वरवाद वा हीन-देवतावाद का समर्थन करते हैं, ऐसा कहना कितना अशुद्ध तथा पक्षपात सूचक है यह बुद्धिमान स्वयं निश्चय कर सकते हैं।
(१०) ऋग्वेद ८/१/१ साम-द ३/१/१० में पाया जाने वाला निम्न मन्त्र इन्द्र पद से परमात्मा का बोध कराते हुए अनेकेश्वरवाद का खण्डन और एकेश्वरवाद का प्रबल समर्थन करता है।
“मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत। इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत।।”
अर्थ- हे मित्रो! केवल सर्वैश्वर्य सम्पन्न परमात्मा की स्तुति करो अन्य किसी की नहीं। इस प्रकार अन्यों की स्तुति करके दुःखी न होओ। बार-बार यज्ञादि सब शुभ कर्मों में समस्त सुखवर्षक भगवान् की ही स्तुति करते रहो।
(११) वही एक इन्द्रादि पद वाच्य परमात्मा ही पूजा करने योग्य है अन्य नहीं, यह भाव निम्न मन्त्र में भी स्पष्टतया पाया जाता है।
“य एक इद्धव्यश्चर्षणीनामिन्द्रं तं गीर्भिरभ्यर्च आभि:। य: पत्यते वृषभो वृष्ण्यावान्त्सत्य: सत्वा पुरुमाय: सहस्वान्।।” ऋ० ६/२२/१
‘चर्षणी’ शब्द का अर्थ निघण्टु में मनुष्य दिया ही है अतः वह एक परमेश्वर ही सब मनुष्यों का पूजनीय है यह मन्त्रार्थ है।
(१२) प्रजापति (सारी प्रजा का पालक) परमात्मा एक ही है और वही सर्व व्यापक, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ होने से पूजनीय है, यह हिरण्यगर्भ सूक्त में अनेकेश्वरवाद का निराकरण करते हुए इस प्रकार स्पष्ट बताया गया है।
“प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।।”
इसी सुप्रसिद्ध हिरण्यगर्भ सूक्त के “हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे”। इसी प्रथम मन्त्र को पहले उद्धत किया ही जा चुका है। उसी सूक्त में।
“यो देवेष्वधिदेव एक आसीत कस्मै देवाय हविषा विधेम।।” यही मन्त्र परमात्मा को देवाधिदेव बताते हुए उसी की पूजनीयता का प्रतिपादन करता है। इस सूक्त के बारे में प्रो० मैक्समूलर ने “History of the Sanskrit Literature” पृ० ५६८ में इस प्रकार लिखा है।
“I add only one more hymn (RIG 10.121) in which the idea of one God is expressed with such power and decision, that it will make us hesitate before we deny to the Aryan nature an instinctive monotheism.”
अर्थात् मैं एक और सूक्त ऋ० १०/१२१ को उद्धृत करता हूं जिसमें एकेश्वरवाद का इतने स्पष्ट तथा प्रबल शब्दों में प्रतिपादन है कि हमें आर्य जाति में स्वाभाविक एकेश्वरवाद से इन्कार करने में बहुत ही संकुचित होना पड़ेगा।
(१३) अथर्व वेद के १३ काण्ड में भी अनेकेश्वर का निराकरण करते हुए एकेश्वरवाद का इन स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन है।
“न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते न पञ्चमो न षष्ठ: सप्तमो नाप्युच्यते। नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते स एष एक एक वृदेक एव।।” अथर्व० १३/४/१६-२१
यहां एक (वृत् का अर्थ एक सन् वृणोति- व्याप्नोति सर्वे जगत्) इस व्युत्पत्ति से सर्वव्यापक है। क्या इनसे साफ एकेश्वरवाद का प्रतिपादन हो सकता है? ऐसा होने पर भी जो महानुभाव वेदों को अनेकेश्वरवाद प्रतिपादक बताते हैं उनका विकासवादादि विषय में पक्षपात ही सूचित होता है न कि सत्य ग्रहण करने की इच्छा।
(१४) वह एक परमेश्वर ही सारे संसार का स्वामी और पूजनीय है इस विषय को निम्नलिखित दो अथर्ववेद के मन्त्र भी स्पष्टतया बताते हैं।
“दिव्यो गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्यो विक्ष्वीड्य:। तं त्वा यौमि ब्रह्मणा दिव्य देव नमस्ते अस्तु दिवि ते सधस्थम्।।” अथर्व० २/२/१
(१५) मृडाद्गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्य: सुशेवा:।। अथर्व० २/२/२
यहां गन्धर्व: का अर्थ (गा वाणी सूर्य भूमि वा धरतीति गन्धर्व) इस व्युत्पत्ति के अनुसार वाणी सूर्य वा भूमि का धारण करने वाला और सुशेवा का उत्तम, सुखदायक है। इस मन्त्र में प्रयुक्त ‘एक एव नमस्य’ वह एक परमेश्वर ही पूजा करने योग्य है ये शब्द वेदों में अनेकेश्वरवाद विषयक भ्रम को दूर करने के लिये पर्याप्त हैं यदि इन पर निष्पक्ष होकर विचार किया जाए। और भी सैकड़ों प्रमाण वेदों के विशुद्ध एकेश्वरवाद को सिद्ध करने के लिये दिये जा सकते हैं किन्तु विस्तारभय से इस विषय को यहीं समाप्त किया जाता है। भिन्न २ वेदों और स्थलों से उद्धृत ये मन्त्र स्पष्ट सिद्ध करते हैं कि वेदों में एकेश्वरवाद ओत प्रोत है। अनेकेश्वरवाद हीनदेवतावाद (Henotheism) वा विकासवाद (Evolution theory) के द्वारा इन मन्त्रों की किसी प्रकार भी व्याख्या नहीं की जा सकती। इसलिये निष्पक्ष अनेक प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् भी अब वेदों में एकेश्वरवाद का प्रतिपादन है इस बात को मानने लगे गये हैं- जैसा कि निम्न उद्धरणों से प्रमाणित होता है।
पाश्चात्य विद्वान और वैदिक एकेश्वरवाद
(१) प्रो० मैक्समूलर के History of the Sanskrit Literature से एक उद्धरण पहिले दिया जा चुका है। निम्न उद्धरण उनके अन्तिम ग्रन्थ “Six Systems Of Philosophy” से दिया जाता है जिसमें उन्होंने स्पष्टतया स्वीकार किया है कि इन्द्र, अग्नि, मातरिश्वा, प्रजापति आदि नामों से वेदों में वस्तुतः एक ईश्वर का ही प्रतिपादन है।
“Whatever is the age when the collection of our Rigveda Sanhita was finished, it was before that age that the conception had been formed that there is but one, One Being, neither male nor female, a Being raised high above all the conditions and limitations of personality and nevertheless the Being that was really meant by all such names as Indra, Agni, Matarishva and by the name of Praja Pati- Lord of creatures. In fact, the Vedic Poets had arrived at a conception of Godhood which was reached once more by some of the Christian Philosophers of Alexandria, but which even at present is beyond the reach of many who call themselves Christians.”
(२) मि० चार्ल्स कोलमैन (Charles Coleman) नामक सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् ने वैदिक ईश्वरवाद के विषय में अपना अभिप्राय इन शब्दों में प्रकट किया है।
“The Almighty, Infinite, Eternal, Incomprehensible, Self-existent, Being, He who sees everything though never seen is Brahma, the One Unknown True Being, the Creator, the Preserver and Destroyer of the Universe. Under such and innumerable other definitions is the Deity acknowledged in the Vedas.”
(Mythology of the Hindus)
भावार्थ यह है कि वेदों में परमात्मा को एक सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक, अनन्त, नित्य, अविक्षेय, स्वयम्भू, सर्व द्रष्टा, जगत् का कर्ता, धर्ता और संहर्ता आदि रूप से बताया गया है।
(३) कौन्ट जार्न्स जर्ना नामक प्रसिद्ध विद्वान् ने ‘Theogony of the Hindus’ नामक पुस्तक में वेद मन्त्रों के प्रमाण देते हुए लिखा है-
“These truly sublime ideas can not fail to convince us that the Vedas recognise only one God, which is Almighty, Infinite, Eternal, Self-existent, the Light and Lord of the Universe.”
अर्थात इन उदाहरणों से हमें यह विश्वास हुए बिना नहीं रह सकता कि वेद एक ही परमात्मा को स्वीकार करते और उसका प्रतिपादन करते हैं जो सर्वशक्तिमान, अनन्त, नित्य, स्वयम्भू, जगत का प्रकाशक और स्वामी है।
(४) कोलब्रूक (Colebrook) नामक प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान ने प्राचीन हिन्दू धर्म के विषय में इस प्रकार लिखा है-
“The ancient Hindu Religion as founded on the hindu scriptures (Vedas) recognise but one God.”
(Asiatic Researches Vol III P 385)
सारांश यह है कि हिन्दू धर्म ग्रन्थों (वेदादि शास्त्रों) पर आश्रित हिन्दू धर्म एकेश्वरवाद का ही प्रतिपादन करता है।
(५) अर्नेस्ट वुड (Ernest Wood) नामक सुप्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान ने “An English man defends mother Indra” नामक पुस्तक में ईश्वरवाद के विषय में यों लिखा-
In the eyes of the Hindus, there is but one, Supreme God. This was stated long ago in the Rigveda in the following words “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” Which may be translated, “The sages name the One Being variously.”
(Page 128.)
अर्थात् हिन्दुओं की दृष्टि में एक ही परमात्मा है। इसका प्रतिपादन बहुत प्राचीन समय में ऋग्वेद में ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ इत्यादि शब्दों द्वारा किया गया था जिसका अर्थ है कि विद्वान् लोग एक ही परमेश्वर को अनेक नामों से पुकारते हैं।
अन्य भी अनेक उद्धरण पाश्चात्य विद्वानों के ग्रन्थों से वैदिक एकेश्वरवाद के समर्थन में दिये जा सकते हैं किन्तु विस्तार के भय से अभी इतने ही पर्याप्त समझकर देवों के विषय में विचार प्रारम्भ किया जाता है।
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मुख्य संपादक, उगता भारत