शिवाजी के पश्चात उनके पुत्र संभाजी महाराज ने उनके उत्तराधिकारी के रूप में गद्दी संभाली। इतिहासकारों का मानना है कि संभाजी महाराज यद्यपि अपने पिता शिवाजी महाराज की भांति तो संघर्षशील और साहसी नहीं थे, परंतु फिर भी उन्होंने इतिहास में अपना विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान बनाया। उन्होंने भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलने का संकल्प लिया और न केवल संकल्प लिया, अपितु अपने संकल्प को उन्होंने पूर्ण करके भी दिखाया। उनका रोमांचकारी इतिहास हमें इस बात के स्पष्ट संकेत और प्रमाण देता है कि वह भी हिंदवी स्वराज्य के प्रति वचनबद्ध रहे और उसी के लिए संपूर्ण जीवन कार्य करते रहे। उनके भीतर पिता के दिए संस्कार प्रबल रूप से समाहित थे। जिन्होंने उन्हें इस बात की प्रेरणा दी थी कि हिंदवी स्वराज्य के माध्यम से भारत की संस्कृति, धर्म और इतिहास की परंपराओं का संरक्षण करना उनका प्रथम दायित्व है। सम्भाजी महाराज को अपने बाल्यकाल से ही अपने पिता का तेजस्वी संरक्षण मिला था। जिसके अंतर्गत रहते हुए वह राष्ट्रधर्म की अच्छी शिक्षा ले सके थे। यद्यपि उन्हें अपनी दादी का भी सानिध्य मिला था और पिता से उनके मतभेद भी रहे, परंतु इसके उपरांत भी पिता के यशस्वी, तेजस्वी और ओजस्वी जीवन ने उनके अपने जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया। यही कारण था कि कई विरोधाभासी बातों के होने के उपरान्त भी उन्होंने बड़े होकर पिता के अनुसार कार्य करने का संकल्प लिया।
जन्म और बाल्यकाल
संभाजी महाराज का जन्म 14 मई, 1657 को हुआ। उनका जन्म स्थान पुरंदर के किले को माना जाता है। उनकी माता का नाम सईबाई और पिता का नाम छत्रपति शिवाजी महाराज था। सम्भाजी महाराज जब केवल दो ही वर्ष के थे तभी उनकी माता का देहांत हो गया था, इसलिए उनका लालन-पालन उनकी दादी जीजाबाई के द्वारा किया गया। जीजाबाई ने उन्हें वही संस्कार देने का प्रयास किया जो उन्होंने अपने बेटे शिवाजी को देने का प्रयास किया था। संभाजी को उनकी दादी जीजाबाई छवा कहकर भी पुकारती थी। जिसका अभिप्राय शावक अर्थात शेर का बच्चा होता है। संभाजी महाराज को आठ भाषाओं का ज्ञान था। जिससे स्पष्ट है कि वह शिक्षा के क्षेत्र में तीव्र बुद्धि रखते थे। संभाजी महाराज पर अपनी दादी जीजाबाई और दादा शाहजी भोंसले के विचारों का भी प्रभाव था।
इनके भाई का नाम राजाराम और बहन का नाम शकुबाई, अंबिकाबाई, रेणुवाई जाधव, दीपाबाई, कमलाबाई पलकर, राजकुँवारीबाई थीं।
संभाजी महाराज के जीवन का सबसे अधिक दुर्बल और उन्हें कलंकित करने वाला पक्ष यह है कि उनका अपने पिता शिवाजी महाराज से विवाद रहा। जिसके चलते उन्हें स्थानबद्ध भी किया गया। इसके पश्चात वह पिता की स्थानबद्धता से निकल भागे और भागकर मुगलों के साथ जा मिले। इस अवस्था में उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया। इससे उनके दुर्बल चरित्र का पता चलता है। यह अलग बात है कि कालांतर में उन्होंने जब देखा कि इस्लाम स्वीकार करने के पश्चात भी मुगलों के उन पर अत्याचार और भी भयंकर हो चले हैं तो वह फिर से हिंदू बन गये। इस सब के उपरांत भी निष्पक्ष रूप से यह कहना ही पड़ेगा कि वह अपने शेष जीवन में मुगलों और विशेष रूप से औरंगजेब से कभी भयभीत नहीं हुए। संभाजी महाराज औरंगजेब से अंतिम समय तक युद्ध करते रहे। उनके साहस और पराक्रम को देखकर मुगलों की रात की नींद उड़ जाती थी। मुगल यह जानकर भी कि शिवाजी महाराज का यह पुत्र एक बार इस्लाम ग्रहण कर चुका है, यह भली-भांति जानते थे कि वह अपने पिता शिवाजी की भांति ही उनके लिए रातों की नींद भगाने वाला है।
पारिवारिक राजनीति और संभाजी महाराज
संभाजी महाराज ने औरंगजेब की दमनकारी नीतियों का सफलतापूर्वक विरोध करते रहे और अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उसकी दमनकारी नीतियों के सामने डट कर खड़े रहे। उन्होंने इस्लाम ग्रहण करने के पश्चात मुसलमानों के अत्याचारों को अपनी आँखों से देखा था। अतः शिवाजी महाराज के इस सुपुत्र ने राजगद्दी संभालने के पश्चात यह सुनिश्चित किया कि जो हिंदू घर वापसी करना चाहते हैं वे निर्भीक होकर अपने मूल धर्म अर्थात हिंदू धर्म में आ सकते हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि जो हिंदू घर वापसी करेंगे, उन्हें पूर्ण सुरक्षा और सम्मान मिलेगा। उनकी इस अपील का बहुत से ऐसे मुसलमानों पर प्रभाव भी पड़ा जो हिंदू धर्म छोड़कर मुसलमान बने थे, फलस्वरुप बड़ी संख्या में घर वापसी हुई।
संभाजी का परिवार
शिवाजी महाराज की तीन पत्नियां थीं। उनके नाम साईंबाई, सोयराबाई और पुतलीबाई थे। संभाजी साईबाई से उत्पन्न हुए थे, जबकि दूसरी पत्नी सोयराबाई से एक अन्य पुत्र राजाराम का जन्म हुआ था। सम्भाजी राजे के परिवार में पिता शिवाजी और माता सईबाई के अलावा दादा शाहजी राजे, दादी जीजाबाई और भाई-बहन थे। जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। सम्भाजी का विवाह येसूबाई से हुआ था और इनके पुत्र का नाम छत्रपति साहू था।
पिता से कड़वे संबंध
यह एक दुखद तथ्य है कि शिवाजी के अपने इस योग्य पुत्र संभाजी से अच्छे संबंध नहीं रह पाए। सम्भाजी का बचपन बहुत कठिनाइयों और विषम परिस्थितियों में व्यतीत हुआ था। संभाजी की सौतेली माता सोयराबाई की इच्छा थी कि अपने पुत्र राजाराम को शिवाजी का उत्तराधिकारी घोषित कराया जाए। इसके लिए वह जितनी भी कुटिल चालें चल सकती थीं, उन्हें चलने का प्रयास करती रहीं। जिससे पारिवारिक परिवेश बड़ा ही विषाक्त हो गया था। प्रदूषित और विषाक्त परिवेश में पुत्र और पिता के संबंध परस्पर कड़वाहट भरे हो गए। जिन्हें हिंदवी स्वराज के लिए भी शुभ नहीं कहा जा सकता था।
सोयराबाई के कारण संभाजी और छत्रपति शिवाजी के मध्य सम्बन्ध जितने ही कड़वाहट भरे होते जाते थे, उतना ही पारिवारिक परिवेश भी दूषित प्रदूषित होता जा रहा था और उनका प्रभाव साम्राज्य पर पड़ना भी स्वभाविक ही था। इस परिवेश का एक परिणाम यह निकला कि यदि संभाजी कहीं अपनी वीरता और शौर्य का प्रदर्शन भी करते थे तो पिता की ओर से अपेक्षित प्रोत्साहन उन्हें नहीं मिलता था। इतना ही नहीं परिवार के अन्य लोग भी उनकी उपेक्षा करते थे, जिससे उनके मन में पिता और परिवार के प्रति कुंठा का विकास हुआ। ऐसे ही परिवेश में शिवाजी ने अपने पुत्र संभाजी को किसी बात पर एक बार स्थानबद्धता का कठोर दंड भी दिया था। जिससे खिन्न होकर संभाजी मुगलों के साथ जा मिले थे और उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। यह निर्णय वास्तव में ही हिंदवी स्वराज्य और उसके शुभचिंतकों और उसके लिए समर्पित होकर कार्य करने वाले अनेकों महारथियों, योद्धाओं और वीरों व उनके अपने परिवार के लिए बहुत ही कष्टकारी था क्योंकि जिस उद्देश्य को लेकर हिंदवी स्वराज्य की स्थापना शिवाजी और उनकी माता जीजाबाई ने की थी, उसी का एक पुत्र यदि इस्लाम धर्म स्वीकार करता है तो यह अपने आप में बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह था।
फिर भी एक बात अच्छी रही कि जब मुगलों के अत्याचारों को संभाजी ने झेला तो उन्हें अपनी की गई भूल का आभास हुआ और उन्होंने इस्लाम को छोड़कर पुनः हिंदू धर्म स्वीकार करते हुए पिता के पास लौटकर उनसे क्षमा याचना की। पिता ने भी सहृदयता दिखाई और अपने पुत्र की भूल को क्षमा कर दिया।
संभाजी की कवि कलश से मित्रता
यह भी एक शुभ संयोग ही था कि पिता-पुत्र के मध्य कड़वाहट होने के उपरांत भी शिवाजी का सानिध्य पाने का संभाजी को पर्याप्त अवसर मिला था। जब शिवाजी को गिरफ्तार कर औरंगजेब ने अपनी जेल में डलवा दिया था तो उस समय भी संभाजी उनके साथ थे और जेल में उन्होंने पिता के साथ उन परिस्थितियों में जो समय व्यतीत किया था, उससे उन्हें विषमताओं में रहकर भी धैर्य बनाए रखने का एक सच्चा पाठ पढ़ने को मिल गया था। उन्हें इस बात की भी शिक्षा मिल गई थी कि विषम से विषम परिस्थिति में भी समाधान खोजने के लिए अपने बौद्धिक चातुर्य का सदैव प्रयोग करते रहना चाहिए। जिससे समस्या का समाधान देर सबेर मिल जाता है।
जब संभाजी अपने पिता शिवाजी के साथ औरंगजेब की जेल से निकल कर भागे थे तो शिवाजी ने उन्हें अपने एक दूर के संबंधी रघुनाथ कोर्डे के यहाँ पर छोड़ दिया था। रघुनाथ कोर्डे शिवाजी के मंत्री भी थे। जिनके यहाँ लगभग डेढ़ वर्ष रुकने का अवसर मिला था। तब उन्होंने अज्ञातवास में रहते हुए कुछ समय के लिए ब्राह्मण बालक के रूप में जीवन यापन किया था। इसके लिए मथुरा में उनका उपनयन संस्कार भी किया गया और उन्हें संस्कृत भी सिखाई गयी। जिससे कि शत्रु या उसके गुप्तचर किसी भी स्थिति परिस्थिति में संभाजी की वास्तविकता को भांप न सकें। अज्ञातवास की इसी अवधि में संभाजी का परिचय कवि कलश से हुआ। शिवाजी के पुत्र संभाजी का उग्र और विद्रोही स्वभाव था। जिसे कवि कलश ने सुधारने और संभालने का हर संभव प्रयास किया था। इन दोनों की मित्रता भविष्य के लिए बहुत ही सार्थक सिद्ध हुई।
संभाजी महाराज के द्वारा साहित्य सृजन
संभाजी के भीतर बौद्धिक प्रतिभा पर्याप्त थी। वह 8 भाषाओं के ज्ञाता थे और यह तभी संभव था, जब व्यक्ति की अपनी बौद्धिक क्षमताएं और प्रतिभा उच्चतम स्तर की हों। यही कारण रहा कि जब उन्हें कवि कलश का संपर्क और सानिध्य प्राप्त हुआ तो वह साहित्य की ओर झुके। फलस्वरूप उनके भीतर की प्रतिभा ने उन्हें लेखन कार्य के लिए भी प्रभावित और प्रेरित किया। वास्तव में अच्छा परिवेश और अच्छे मित्र संयोग से ही मिलते हैं और जब यह मिल जाते हैं तो तब समझना चाहिए कि अब व्यक्ति की भीतरी प्रतिभा मुखरित होगी और वह सफलता के उच्चतम बिंदु को छुएगा और यही हुआ भी। अब संभाजी लेखन कार्य करने में जुट गए। जिसके फलस्वरूप उन्होंने अपने पिताजी को ही अपना आदर्श नायक मानते हुए उन्हीं पर एक पुस्तक सृजन किया। जिसका नाम उन्होंने बुद्धचरित्र दिया। इसके अतिरिक्त मध्य काल के संस्कृत का उपयोग करते हुए संभाजी ने श्रृंगारिका भी लिखा था।
एक शासक के रूप में संभाजी
पिता शिवाजी के साथ रहते हुए अनेकों अवसरों पर संभाजी को राजनीति का पाठ पढ़ने का अवसर मिला। ऐसा ही एक अवसर उस समय आया था, जिस समय शिवाजी ने पुरंदर की संधि कर मुगलों को अपने जीते हुए 23 किले सौंप दिए थे। 11 जून, 1665 को यह पुरन्दर की संधि सम्पन्न हुई थी। जिसमें शिवाजी ने यह सहमति दी थी कि उनका पुत्र मुगल सेना को अपनी सेवाएं देगा। उस समय संभाजी की अवस्था मात्र 8 वर्ष की थी। अल्पायु संभाजी ने अपने पिता के साथ बीजापुर सरकार के विरुद्ध औरंगजेब का साथ दिया था। शिवाजी और संभाजी ने स्वयं को औरंगजेब के दरबार में प्रस्तुत किया, जहाँ उन्हें स्थानबद्ध करने का आदेश दे दिया गया, परंतु वे वहाँ से भी अपने बौद्धिक चातुर्य का प्रयोग करते हुए सफलतापूर्वक भाग निकलने में सफल हो गए थे। इस घटना ने बालक संभाजी को जीवन के लिए कई पाठ पढ़ाए।
3 अप्रैल, 1680 को शिवाजी का देहांत हो गया था। तब उनके योग्य उत्तराधिकारी के रूप में 30 जुलाई, 1680 को संभाजी और उनके अन्य सहयोगियों को सत्ता सौंपी गयी। सम्भाजी को अपने पिता के सहयोगियों पर विश्वास नहीं था, इसलिए उन्होंने कवि कलश को अपना सलाहकार नियुक्त किया। जो कि हिन्दी और संस्कृत के विद्वान थे। परंतु गैर-मराठी होने के कारण उन्हें मराठा अधिकारियों ने पसंद नहीं किया, इस तरह संभाजी के विरुद्ध वातावरण बनता चला गया और उनके द्वारा ऐसी परिस्थितियों में कोई बड़ी उपलब्धि भी प्राप्त नहीं की जा सकी।
सम्भाजी महाराज की उपलब्धियाँ
1680 से लेकर 1689 तक ही संभाजी को शासन करने का अवसर मिला और जब वह मात्र 31 वर्ष के थे तभी एक भारी षड्यंत्र के अंतर्गत उनकी जीवन लीला तत्कालीन मुगल बादशाह औरंगजेब ने समाप्त करा दी थी। इसके उपरांत भी संभाजी महाराज ने कई ऐसी उल्लेखनीय उपलब्धियाँ प्राप्त कीं, जिनसे राष्ट्र और समाज का बहुत हित हुआ। ये सारी उपलब्धियाँ उन्होंने हिंदवी स्वराज्य के हित में ही प्राप्त की थीं। जिन पर आज तक प्रत्येक हिंदू देशभक्त का मस्तक गर्व से उन्नत हो उठता है।
संभाजी महाराज ने अपने पिता शिवाजी की भांति ही औरंगजेब जैसे शक्तिशाली बादशाह का सफलता के साथ सामना किया। उनकी वीरता और साहस का परिचय इसी बात से मिल जाता है कि उनके अपने संक्षिप्त और सीमित साधन थे, जबकि औरंगजेब बादशाह के पास उस समय की सबसे बड़ी शक्तिशाली 8 लाख सैनिकों की सेना थी। उसके सामने भी संभाजी चट्टान की भांति सीना तान कर खड़े रहे।
इस विशाल मुगल सेना को संभाजी ने कई युद्धों में पराजित किया था। यहाँ पर हमें यह भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि जब मुगल बादशाह औरंगजेब दक्षिण में शिवाजी और उनके पुत्र संभाजी के साथ युद्ध में उलझा रहा था, तब उत्तर भारत में हमारे कई ऐसे हिंदू राजा थे, जिनको अपना राज्य प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हो गया था। दूसरी, बात यह भी है कि यदि शिवाजी और उनके पुत्र संभाजी औरंगजेब जैसे अत्याचारी शासक को दक्षिण के दीर्घकालीन युद्ध में न उलझाते तो उत्तर भारत के हिंदुओं का बड़ी संख्या में धर्मांतरण हो गया होता। अतः यदि उस समय उत्तर भारत के हिंदू अपने सम्मान और अपने धर्म को बचाने में सफल हुए तो इसमें भी शिवाजी और संभाजी के योगदान को भूलना नहीं चाहिए।
इस कारण वीर मराठाओं के प्रति केवल दक्षिण ही नहीं, अपितु पूरे राष्ट्र के हिन्दू उनके ऋणी हैं, क्योंकि उस समय यदि संभाजी औरंगजेब के सामने समर्पण कर देते या कोई संधि कर लेते, तो औरगंजेब अगले 2-3 वर्षों में उत्तर भारत के राज्यों को पुनः प्राप्त कर लेता और वहाँ के हिंदुओं और हिन्दू राजाओं की समस्याएँ बढ़ जातीं। शिवाजी और संभाजी सहित अन्य मराठा शासकों से मुगल बादशाह औरंगजेब 27 वर्षों के दीर्घकालीन युद्ध में उलझा रहा था। इतनी देर तक इस अत्याचारी शासक की ऊर्जा और शक्ति का अपव्यय एक ही स्थान पर कराते रहना और इसके उपरांत भी पराजय स्वीकार न करना सचमुच मराठा शासकों की वीरता और देशभक्ति का ही प्रमाण है। जिसके कारण उत्तर में बुंदेलखंड, पंजाब और राजस्थान में हिन्दू राज्यों में हिंदुत्व को सुरक्षित रखा जा सका।
संभाजी ने कई वर्षों तक मुगलों को महाराष्ट्र में उलझाए रखा। देश के पश्चिमी घाट पर मराठा सैनिक और मुगल कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं था। संभाजी वास्तव में केवल बाहरी आक्रामकों से ही नहीं, अपितु अपने राज्य के भीतर भी अपने शत्रुओं से घिरे हुए थे। इसके उपरांत भी संभाजी जैसे शेर ने हर मोर्चे पर वीरता के साथ शत्रुओं का सामना किया और किसी से भी झुके नहीं। यही कारण रहा कि उनकी वीरता का लोहा अब उनकी प्रजा भी मानने लगी थी और सभी प्रजाजन उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो गए थे। अपनी महान उपलब्धियों के कारण संभाजी अपनी प्रजा के हृदय सम्राट बन गये थे ।
संभाजी महाराज ने औरंगजेब के विरुद्ध अपने पिता की भांति ही गुरिल्ला युद्ध का प्रयोग किया था। इस गुरिल्ला युद्ध में उनके हारने की संभावना बहुत ही कम होती थी। इस गुरिल्ला युद्ध में ही 7 वर्षों का समय व्यतीत हो गया था। यदि कहीं कभी मुगल किसी गढ़ को जीतने में सफल भी होते तो हमारे मराठा सैनिक उसे पुनः प्राप्त करने में भी देर नहीं करते थे। दक्षिण में मराठों ने संभाजी के नेतृत्व में औरंगजेब को किस प्रकार उलझा लिया था? इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर भारत के लोगों में यह विश्वास घर कर गया था कि अब औरंगजेब दक्षिण से उत्तर की ओर अर्थात दिल्ली में पुनः लौट नहीं पाएगा और वह दक्षिण में ही उलझ कर मर जाएगा। इस बीच संभाजी ने 1682 में औरंगजेब के एक विद्रोही पुत्र अकबर को शरण देने की भी सोची थी, जिसे राजपूत राजाओं ने बचा लिया। संभाजी जैसे वीर पुरुषों के बारे में ही *किसी शायर ने लिखा है-*
हद से बड़ी उड़ान की ख्वाहिश तो यूँ लगा।
जैसे कोई परों को कतरता चला गया।
मंजिल समझ कर बैठ गए जिनको चंद लोग ।
मैं ऐसे रास्तों से गुजरता चला गया।।
और यह भी- दर्द सबके एक हैं मगर,
हौसले सब के अलग-अलग हैं,
कोई हताश होकर बिखर गया,
तो कोई संघर्ष करके निखर गया॥
मुस्लिम हो गए हिन्दुओं की घर वापिसी
शिवाजी की भांति ही संभाजी ने भी अपने शासनकाल में ऐसे हिंदुओं की घर वापसी का मार्ग सुनिश्चित किया जो किन्ही कारणों से मुस्लिम सत्ता के रहते या उनके अत्याचारों के चलते मुसलमान बन गए थे। स्वयं शिवाजी ने भी नेताजी पल्लकर जैसे सेनापति को मुसलमान से पुनः हिंदू बनाया था।
संभाजी ने अपने पिता के सपने को साकार करने के लिए, इसे आगे ले जाते हुए इस दिशा में कई सराहनीय कार्य किये। संभाजी महाराज ने इसके लिए अलग से विभाग ही बना दिया था, जो कि घर वापसी के कार्य को संपन्न कराता था। इस प्रकार का निर्णय लेकर संभाजी ने हिंदू समाज की बहुत बड़ी सेवा की थी। जिस पर कुछ लोग आज तक यह सोचते हैं कि ऐसा किया जाना उचित नहीं है, इस बड़े और महान कार्य को संभाजी और उनके पिता शिवाजी ने अपने शासनकाल में संपन्न करके दिखाया था।
इसके बारे में एक प्रसिद्ध किस्सा है कि हसुल गाँव में एक 'कुलकर्णी नाम का ब्राह्मण हुआ करता था, जिसे मुगलों ने बलात मुसलमान बना दिया था। उसने पुनः हिन्दू धर्म में आने की इच्छा व्यक्त की थी, परंतु गाँव के ब्राह्मणों ने इसके लिए मना कर दिया, क्योंकि उन्हें लगता था कि कुलकर्णी अब वेद-विरुद्ध पद्धति को अपनाकर अशुद्ध हो गया है। अंत में वह जाकर संभाजी महाराज से मिला और उन्होंने कुलकर्णी के लिए पुनः धर्मांतरण की विधि और अनुष्ठान का आयोजन किया। संभाजी के इस प्रकार के कार्यों से ऐसे अनेकों मुसलमान जो पहले हिंदू रहे थे, फिर से हिंदू बनने के लिए प्रेरित हुए और बड़ी संख्या में धर्मांतरण कर अपने मूल धर्म में लौट आए। इससे पता चलता है कि संभाजी के भीतर ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध लड़ने की भी क्षमताएं थीं। उन्होंने धर्म की चादर ओढ़ कर धर्म को ही भ्रष्ट करने वाले लोगों की आपत्तियों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और अपने क्रांतिकारी निर्णय पर अडिग रहे। संभाजी का यह निर्णय तब और भी अधिक प्रशंसनीय हो जाता है जब ऐसे भी अनेकों प्रमाण हमारे देश के इतिहास में मिलते हों कि अमुक अमुक राजा अपने ब्राह्मणों और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध अमुक समय पर निर्णय नहीं ले पाए थे और उनके निर्णय न लेने की स्थिति के कारण कालांतर में देश को उसके बहुत ही कष्टकारी परिणाम भुगतने पड़े।
संभाजी की गिरफ्तारी और कठोर यातनाएँ
वास्तव में महान शिवाजी के देहांत के पश्चात 1680 में मराठों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। औरंगजेब को लगा था कि शिवाजी के पश्चात उनका पुत्र संभाजी अधिक समय तक उसकी सेनाओं का सामना नहीं कर पाएगा। यह सोचकर शिवाजी की मृत्यु के पश्चात औरगंजेब दक्षिण की पठार की ओर चला गया। उसके साथ 4,00000 जानवर और 50 लाख की सेना थी। औरंगजेब ने बीजापुर की सल्तनत के आदिलशाह और गोलकोंडा की सल्तनत के कुतुबशाही को परस्त किया और वहाँ अपने सेनापति क्रमशः मुबारक खान और शार्जखन को नियुक्त किया। इसके पश्चात औरंगजेब ने मराठा राज्य की ओर प्रस्थान किया और वहां संभाजी की सेना का सामना किया। 1682 में मुगलों ने मराठों के रामसेई दुर्ग को घेरने का प्रयास किया। 5 महीने के प्रयासों के फलस्वरूप भी वे अपने उद्देश्य में सफल न हो सके। 1687 में वाई के युद्ध में मराठा सैनिकों की शक्ति मुगलों के सामने क्षीण पड़ने लगीं। वीर मराठों के सेनापति हम्बिराव मोहिते का इस युद्ध में बलिदान हो गया और सैनिक सेना छोड़कर भागने लगे। संभाजी इसी समय संघमेश्वर में 1689 के फरवरी माह में मुगलों के हाथ लग गए।
1689 तक स्थितियाँ परिवर्तित चुकी थीं। मराठा राज संगमेश्वर में शत्रुओं के आगमन से अनभिज्ञ था। ऐसे में मुक़र्राब खान के अचानक आक्रमण से मुगल सेना महल तक पहुँच गयी और संभाजी के साथ कवि कलश को बंदी बना लिया। उन दोनों को कारागार में डाला गया और उन्हें वेद-विरुद्ध इस्लाम अपनाने को पुनःविवश किया गया।
औरंगजेब के शासन काल के आधिकारिक इतिहासकार मसिर प्रथम अम्बारी और क्कुछ मराठा सूत्रों के अनुसार इन दोनों को चैनों से जकड़कर हाथी के हौदे से बाँधकर औरंगजेब के शिविर तक ले जाया जाता था जो कि अकलूज में था। मुगल शासक तक ये सूचना पहले ही पहुँच चुकी थी और उन्होंने इसके लिए एक बड़े महोत्सव के आयोजन की घोषणा की। मुगलों ने पूरे मार्ग में विजयी सेनापतियों के लिए उत्सव का आयोजन और स्वागत किया। मुगलों की जीत के उत्सव के लिए शेख निजाम का चित्र बनवाया गया। मुगल पुरुष सड़कों पर और झरोखों से झाँकती महिलाएँ बुके के भीतर से हारे हुए मराठा को देखने को उत्सुक थीं, जबकि राह में पड़ने वाले हर मुगल उनकी हँसी उड़ा रहे थे और कोई तो अपमान में मुँह पर थूक भी रहा था। मुगलों में मिले हुए राजपूत सैनिकों को संभाजी के लिए बहुत सहानुभूति थी। संभाजी ने उन्होंने ललकारते हुए कहा था कि या तो वे उन्हें खुला छोड़कर सन्मुख युद्ध कर लें या फिर उन्हें मारकर इस अपमान से मुक्ति दें, पर मुगलों के डर से वे सैनिक मौन थे। इस प्रकार 5 दिन तक चलने के पश्चात वे लोग औरंगजेब के दरबार में पहुँचे।
औरंगजेब संभाजी को देखकर अपने सिंहासन से नीचे उतरकर आया और उसने कहा कि तुम्हारा आतंक कुछ अधिक ही हो गया था। उसने कहा कि वीर शिवाजी के पुत्र संभाजी का भी मेरे सामने इस स्थिति में खड़ा होना मेरे लिए सचमुच गौरव की बात है। तभी औरंगजेब अपने अल्लाह को याद करते हुए घुटने टेक कर बैठ गया। इस अवस्था में बैठे देखकर कवि कलश ने संभाजी की ओर देखते हुए कहा कि "संभाजी! देखिए, औरंगजेब बादशाह का अपने सिंहासन से उतरकर आप के सामने घुटने टेके बैठे हैं?" कवि कलश के इस प्रकार के वीरतापूर्ण व्यंग्य को सुनकर बादशाह औरंगजेब के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने क्रोध में आकर उन दोनों को तहखाने में डालने का आदेश दे दिया। इस अवसर पर औरंगजेब ने शेख निजाम को फ़तेह जंग खान-ए-आजम की उपाधि देने की घोषणा की। साथ ही 50,000 रुपये, एक घोड़ा, एक हाथी और 6000 सैनिकों की टुकड़ी देने की भी घोषणा की। इसके अतिरिक्त उसके पुत्र इकलास और भतीजे को भी उपहार और सेना में उच्च पद देने की घोषणा की।
मुगल नायकों ने संभाजी को सुझाव दिया कि वे यदि अपना पूरा राज्य और सभी किले औरंगजेब को सौप दें तो औरंगजेब संभाजी और उनके साथियों को प्राणदान दे सकता है, परंतु यह समय प्राणदान लेने का नहीं था। यह समय तो अपनी वीरता के प्रदर्शन का था। अतः मराठा योद्धा संभाजी से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वह और कवि कलश जैसे साहसी पुरुष अपने प्राणों का दान एक अत्याचारी बादशाह से माँगते। अतः संभाजी ने इस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया।
इसके पश्चात स्वयं बादशाह औरंगजेब ने भी अपने दूतों के माध्यम से संभाजी के समक्ष यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि यदि वह इस्लाम स्वीकार कर लेते हैं, तो उन्हें सभी सुख साधनों से संपन्न जीवन जीने के लिए सारी सुविधाएँ दी जाएँगी। परंतु संभाजी ने औरंगजेब के इस प्रस्ताव को मानने से भी स्पष्ट इंकार कर दिया। तब संभाजी और कवि कलश को कैद से निकालकर घंटी वाली टोपी पहना दी गई। उनके हाथ में झुनझुना बाँध कर उन्हें ऊँटों से बाँध दिया गया और तुलापुर के बाजार में घसीटा जाने लगा, मुगल लगातार उनका अपमान कर रहे थे और उन पर थूक रहे थे। उन्हें घसीटा जा रहा था, जिसके कारण झुनझुने की आवाज को स्पष्ट सुना जा सकता था। संभाजी और कवि कलश इन सभी अपमानों को सहन करते हुए एक वीर योद्धा की भांति अब मृत्यु की ओर बढ़ते जा रहे थे। मंत्री कलश इस समय जहाँ ईश्वर का जाप कर रहे थे, वहीं संभाजी अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हुए अपने धर्म के सार्वभौम सत्य का उद्घोष कर रहे थे। अतः जब मुगलों की ओर से उन्हें इस्लाम स्वीकार करने की बात कही जा रही थी, तब वह अपने वैदिक धर्म की महानता और उसकी सर्वोत्कृष्टता का उद्घोष कर रहे थे।
संभाजी की मृत्यु
औरंगजेब ने संभाजी को अनेकों बार समझाने का प्रयास किया कि यदि वह इस्लाम स्वीकार कर ले तो उसको प्राणदान दिया जा सकता है, परंतु उस शेर पिता के शेर पुत्र ने औरंगजेब के प्रत्येक प्रकार के प्रलोभनों को ठुकरा दिया। अब वह अपने धर्म के गीत गा रहा था और उसकी महानता से ओतप्रोत हो उल्टा बादशाह के लोगों को समझा रहा था कि मेरे धर्म के समान संसार में कोई भी धर्म नहीं है। अतः इस्लाम को स्वीकार करना अब किसी भी स्थिति में संभव नहीं है।
संभाजी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह अपने पवित्र हिंदू धर्म को छोड़कर म्लेच्छ मुस्लिम मजहब को स्वीकार करने के लिए कदापि तैयार नहीं हो सकते। औरंगजेब ने इससे क्रोधित होकर आदेश दिया कि संभाजी के घावों पर नमक छिड़ककर उन्हें घसीटकर मेरे सिंहासन के निकट लाया जाए। ऐसा ही किया गया।
बादशाह के आदेश से उनकी जीभ काट दी गई और आलमगीर के पैरों में रख दी गयी। जिसने उनकी जीभ को कुत्तों को खिलाने का आदेश दे दिया। इस असीम यातना को झेलकर भी संभाजी शांतमना मुस्कुराते रहे। इसके पश्चात संभाजी की आँखें निकाल दी गयीं और फिर उनके दोनों हाथ भी एक-एक कर काट दिए गए।
ये सारी यातनाएँ धीरे-धीरे कई दिन तक संभाजी को दी जाती रहीं। संभाजी इस समय अपने तेजस्वी पिता का स्मरण करते रहे और मुस्कुराते हुए इन यातनाओं को झेलते रहे। हाथ काटने के भी लगभग 2 सप्ताह के बाद 11 मार्च, 1689 को उनका सिर भी धड़ से अलग किया गया। उनका कटा हुआ सिर महाराष्ट्र के कस्बों में जनता के सामने चौराहों पर रखा गया, जिससे कि मराठों में मुगलों का भय व्याप्त हो सके। इतना सब कुछ करने के उपरांत भी मुगल सत्ताधीशों ने अपने अत्याचारों की इतिश्री नहीं की। उनके शरीर को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर तुलापुर के कुत्तों को खिलाया गया।
इन सारी घटनाओं का प्रभाव यह हुआ कि मराठों में देश के प्रति बलिदान होने की भावना और भी बलवती हो उठी। उन्होंने देखा कि उनके वीर योद्धा संभाजी और कवि कलश ने अनेकों यातनाओं को सहन करने के उपरांत भी निजधर्म को नहीं छोड़ा तो उन्हें भी उनकी परंपरा को आगे बढ़ाना ही होगा। इस प्रकार वीर संभाजी की मृत्यु ने भी वह काम कर दिया जो कोई व्यक्ति जीवित रहते हुए पूरे जीवन भर नहीं कर पाता।
ऐसे वीर बलिदानी और वीर पिता के वीर पुत्र को हमारा कोटिशः नमन, जिसने अपने पूरे जीवन को इस देश की संस्कृति, धर्म और ऐतिहासिक परंपराओं के लिए बलिदान कर दिया। जिस पर मराठों को ही नहीं, अपितु इस देश के हर व्यक्ति को गर्व है। ऐसे लोगों के बलिदानों से और उनकी बलिदानी परम्परा से ही किसी भी देश का गौरवमयी इतिहास बना करता है। हम लोगों को इस बात पर गर्व है कि ऐसे संभाजी हमारे देश की इस धर्म धरा पर अवतीर्ण हुए, उनकी पावन ज्योति को हम कभी को जीने नहीं देंगे।
कवि के शब्दों में-
कलम आज उनकी जय बोल ..
जला अस्थियां बारी बारी
चटकाई जिनमें चिंगारी
जो चढ़ गए पुण्य वेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम आज उनकी जय बोल ..
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे
जला-जला कर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम आज उनकी जय बोल ..
पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही सौ लपट दिशाएँ जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल
कलम आज उनकी जय बोल ..
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा
साक्षी है उनकी महिमा के
सूर्य चंद्र भूगोल खगोल
कलम आज उनकी जय बोल ..
क्रमशः
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)
मुख्य संपादक, उगता भारत