“यह असुर अपने स्वार्थपूर्ण अभिप्रायों को इस प्रकार उच्च सिद्धान्तों में लपेटकर लोगों के सामने पेश करते हैं कि लोग इन्हें ‘देव’ समझने लगते हैं।”
ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमानाऽ असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति।
परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टाँल्लोकात् प्रणुदात्यस्मात्।।
-यजुः० २।३०
ऋषिः – वामदेवः।
देवता – अग्निः।
छन्दः – भुरिक पङ्क्तिः।
विनय – हे जगदीश्वर ! यहाँ से असुरों को दूर कर दो, प्रच्छन्न असुरों को दूर भगा दो। यह लोक, यह स्थान तो देवों के लिए है। इस मेरे अध्यात्म, अधिभूत और अधिदेव लोक में दैव भाव, देव मनुष्य, दैवी शक्तियाँ ही रहनी चाहिएँ। किन्तु हे अग्ने ! आसुर भाव, असुर लोग, आसूरी शक्तियाँ भी यहाँ आ घुसती हैं। ये असुर अपने नग्नस्वरूप में तो यहाँ आ नहीं सकते, इसलिए ये अपने अज्ञान, अधर्म, अनैश्वर्य के असली स्वरूपों को छिपाकर ज्ञान, धर्म और ऐश्वर्य के रूपों को दिखलाते हए यहाँ आते हैं। अपने असली दुर्भावों को अन्दर दबाकर अपने को बड़े सदभावों से प्रेरित हुए प्रकट करते हैं। अपने स्वार्थपूर्ण अभिप्रायों को इस प्रकार उच्च सिद्धान्तों में लपेटकर लोगों के सामने पेश करते हैं कि लोग इन्हें ‘देव’ समझते हैं। इसीलिए असुर होते हुए भी ये यहाँ की ‘स्वधा’ को प्राप्त करते हैं, यहाँ के अन्न से, रस से, स्थूल पार्थिव शक्ति से युक्त होकर ये विचरते हैं। परन्तु अन्दर से ये बिलकुल असुर होते हैं, अशोभन, बुरे पुरुष होते हैं। यज्ञ का, श्रेष्ठ संगठन का ध्वंस करनेवाले होते हैं। वसुओं में (प्राणों में) ही रमनेवाले इन्द्रिय-भोगरत होते हैं। इसलिए ये स्वार्थी लोग सदा अपने ही पेट भरने में लगे रहते हैं। ये ‘परापुर’ और ‘निपुर’ होते हैं, धर्म से बहुत दूर होकर, बिलकुल विमुख होकर भी अपने आपको भरते हैं और धर्म से नीचे गिरकर निकृष्ट उपायों से भी अपने को भरते हैं। अधर्म, अन्याय द्वारा दूसरों को हरते हुए और अपने स्वार्थों को पूरा करते हुए, किन्तु ऊपर से अपने आपको धार्मिक सच्चे दिखलाते हुए ये असुर इस लोक में धन-सुख-यश पाते हुए विचरते हैं। इसलिए हे अग्ने ! इन प्रच्छन्न असुरों को, जो कि खुले असुरों की अपेक्षा बहुत भयंकर होते हैं, इस पवित्र लोक से दूर कर दो। निःसन्देह तेरी सन्तापक शक्ति के सामने ये ठहर नहीं सकते हैं, तेरे तेज को यह सह नहीं सकते हैं। अतः अब इन असुरों को यहाँ से बहिष्कृत कर दो और इस स्थान को, इस समाज को, इस पवित्र संगठन को असुररहित कर दो।
शब्दार्थ – (ये) जो (रूपाणि प्रतिमुञ्चमानाः) अपने रूपों को छिपाकर, रोचक रूपों को दिखलाते हुए (असुराः सन्तः) असुर, राक्षस होते हुए भी (स्वधया) अन्न से, रस से, स्थूल पार्थिवशक्ति से [युक्त होकर इस लोक में] (चरन्ति) विचरते हैं और (ये) जो (परापुरः) धर्म से दूर हटकर अपने-आपको पूरते हैं (निपुरः) नीचे गिरकर निकृष्ट उपायों से भी अपने को पूरते हैं (भरन्ति) इस प्रकार अपने को भरते हैं या दूसरों को हरते हैं (तान्) उन (छिपे असुरों) को (अग्निः) तेजोमय संतापक अग्नि (अस्मात् लोकात्) इस लोक से (प्रणुदाति) दूर कर देवे, हटा देवे।
स्रोत – वैदिक विनय। (मार्गशीर्ष १७)
लेखक – आचार्य अभयदेव।
प्रस्तुति – आर्य रमेश चन्द्र बावा।