स्वर्ग का प्रवेश-द्वार किन के लिए खुला है :-
दैवी-सम्पद साथ जा,
लौकिक यहीं रह जाय।
भजन – भलाई रोज कर,
तभी स्वर्ग को पाय॥2726॥
पूर्व-जन्म के तप को कौन नष्ट करता है :-
अहंकार के कारणै,
पिछला तप घट जाय।
धन-यश भी घटने लगै,
होंसला टूटता जाय॥2727॥
पूर्व-जन्म का तप पुनः प्रभावी कब होता है:-
धन-यश मन का हौंसला,
पुन: लौटकै आय।
अमानित्त्व के भाव से,
जो जन यज्ञ रचाय॥2728॥
तत्त्वार्थ :- भाव यह है कि धन-यश और मन का हौसला पुन: लौटकर तभी आते हैं, जब मनुष्य श्रेष्ठ पुरुषों का संगतिकरण करे तथा यज्ञ अथवा पुन्य के कार्य अहंकार शून्य होकर आत्मप्रदर्शन के लिए नहीं अपितु परम पिता परमात्मा को प्रसन्नता के लिए निष्काम भाव से करे और निधिध्यासन करे अर्थात् अपने आचरण में पवित्रता का समावेश करे, तो पूर्व – जन्म का तप पुनः प्रभावी हो जाता है।
इन तीनों को कभी छोटा न समझें :-
अग्नि शत्रु रोग को,
कभी लघु मत जान।
एक जरा सी चूक से,
करते क्षति महान॥2729॥
भावार्थ:- कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य को चहिए कि वह सर्वदा अग्नि, शत्रु और रोग को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए क्योंकि इनका विकराल रूप अत्यन्त भयावह होता है। अग्नि की एक छोटी सी चिंगारी बड़े से बड़े, ढेर को देखते ही देखते नष्ट कर देती है। अतः उसे प्राथमिक अवस्था में बुझाना ही श्रेयस्कर है।
मनुष्य का मनुष्य ही शत्रु नहीं होता अपितु उसके दुर्गुण अथवा बुरी आदतें भी महान शत्रु होती हैं। इन पर सदैव पैनी नजर रखे। इनके प्रति लापरवाही, मनुष्य का इस तरह से पतन कर देती है, जैसे नाव में छोटा सा छेद उसे जल में डुबा देता है। रोग को कभी भी छोटा न समझे। कदाचित् ऐसा भी होता है कि एक फुन्सी लापरवाही के कारण नासूर बन जाती है। अतः सारांश यही है कि अग्नि,शत्रु और रोग को काभी छोटा समझकर इनकी उपेक्षा न करें। इनसे हमेशा सतर्क रहे।
क्रमशः