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संपादकीय

प्रकाश पर्व दीपावली पर विशेष : धर्मनिरपेक्षता और भारत का सर्वोच्च न्यायालय

हमारे देश की राजनीति जिस प्रकार परस्पर राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के बीच उलझी हुई दिखाई देती है, उसके चलते अनेक बार ऐसा आभास होता है कि जैसे देश को राजनीति के द्वारा शासित न करके सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा शासित किया जा रहा है। जब देश के लोगों ने अपने जनमत से देश को एक साफ सुथरी स्थिर सरकार देने का निर्णय दिया हो, तब सर्वोच्च न्यायालय को इतने अधिकार मिलना चिंता का भी विषय हो सकता है। यह इस बात का परिचायक है कि या तो राजनीति सही से काम नहीं कर रही है या उसे करने नहीं दिया जा रहा है ।
हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने देश में धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत मजहबी आधार पर तुष्टीकरण के लिए स्थापित नहीं किया था अपितु इसके पीछे उनका उद्देश्य मजहब को राष्ट्र नीति से दूर रखने का था। जिसके माध्यम से राजनीति को बिना किसी सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के काम करने का संकेत हमारे संविधान निर्माताओं के द्वारा दिया गया था। वास्तव में हमारे संविधान निर्माता इस बात को भली प्रकार जानते थे कि पिछली कई शताब्दियों से जिस प्रकार मुसलमानों और उसके पश्चात अंग्रेजों के शासनकाल में मजहबी आधार पर राजनीतिक निर्णय लिए गए, उनसे समाज का बहुत भारी अहित हुआ था। इसी के दृष्टिगत उन्होंने भविष्य में किसी भी मजहब को या उसकी मान्यताओं को प्राथमिकता न देकर विशुद्ध राष्ट्रनीति को लागू करते हुए मानवीय आधार पर प्राकृतिक न्याय लोगों को देने के उद्देश्य से प्रेरित होकर पंथनिरपेक्ष शासन के स्वरूप को प्राथमिकता दी। यद्यपि राजनीति ने संविधान के निर्माण में बरती गई इस शुचिता का पालन नहीं किया। उसने पंथनिरपेक्षता का अभिप्राय सनातन के मानवीय मूल्यों को मिटाकर उन सभी मजहबों की सांप्रदायिक मान्यता को स्थापित करना आरंभ कर दिया जिनकी सोच में ही संकीर्णता थी या एक दूसरे के मजहब को मिटा देने की निंदनीय दुर्भावना थी। यही कारण रहा कि हमारे देश में राजनीतिक सोच संकीर्ण होती चली गई । अब स्थिति यह है कि भारत के जितने भी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल हैं, वे सभी इस्लामिक मान्यताओं को अपना खुला समर्थन दे रहे हैं। जिसके चलते देश में आतंकवाद बढ़ रहा है । राजनीतिक सांप्रदायिकता इस समय मजहबी सांप्रदायिकता से भी अधिक निंदनीय स्वरुप ले चुकी है। अब हमारे देश में धार्मिक सहिष्णुता समानता और बंधुत्व की भावना को देखना दुर्लभ होता जा रहा है। यदि भारत का सनातनी हिंदू समाज अपनी इन पवित्र भावनाओं को प्रकट भी करता है तो उसे इस्लाम के मानने वालों की ओर से अपने विस्तार का एक स्वर्णिम अवसर माना जाता है। यही सोच भारत में ईसामसीह की शिक्षाओं को लागू करने वालों की हो चुकी है। वास्तव में यह वह दौर है जब सनातन के मानवीय मूल्यों को अपने लिए स्वर्णिम अवसर पर समझकर इस्लाम और ईसाइयत दोनों अपना खेल खेल रही हैं। विवेकशील राष्ट्रभक्त लोग इस स्थिति को देखकर अत्यधिक चिंता में हैं।
अब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के संविधान के 42 वें संशोधन के संदर्भ में अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा है कि “भारत में धर्मनिरपेक्षता को पश्चिमी देशों से आयातित शब्द के नजरिये से देखने के स्थान पर भारतीय संविधान की आत्मा के रूप में देखना चाहिए। संविधान में वर्णित समानता व बंधुत्व शब्द इसी भावना के आलोक में वर्णित हैं। यह समाज में व्यापक दृष्टि वाली उदार सोच को विकसित करने में सहायक है। जिसके बिना स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। जो राष्ट्रीय एकता का भी आवश्यक अंग है।”
हम भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दी गई इस व्यवस्था से पूर्णतया सहमत हो सकते हैं, बशर्ते कि सर्वोच्च न्यायालय की इस भावना या इस व्यवस्था को अनिवार्य रूप से देश के प्रत्येक नागरिक को या प्रत्येक मजहब के मानने वाले को समान रूप से मनवाने की व्यवस्था देने पर भी सर्वोच्च न्यायालय का मत स्पष्ट हो जाए। यदि भारत का सर्वोच्च न्यायालय सनातन से अलग किसी भी मजहब या संप्रदाय के मानने वाले लोगों की निजी सांप्रदायिक मान्यताओं को उनके द्वारा मानने का समर्थन करता है या उन्हें संवैधानिक संरक्षण प्रदान करता है तो फिर ऐसी स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय की इस व्यवस्था को किसी भी स्थिति में लागू नहीं किया जा सकता । बस, यही वह कमजोर नस है जो भारत में सांप्रदायिक सद्भाव को स्थापित नहीं होने देती। भारत में सांप्रदायिक सद्भाव को स्थापित करना कथित धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत का यदि वास्तविक उद्देश्य है तो यह तभी संभव है, जब मानवीय मूल्यों के सामने सांप्रदायिक मान्यताओं को सर्वथा उपेक्षित करने की नीति, रणनीति और राजनीति पर देश का सर्वोच्च न्यायालय और देश की राजनीति काम करना आरंभ करे। हम इसी स्थिति को राष्ट्र नीति कहते हैं। जब देश का कानून लोगों के बीच सांप्रदायिक आधार पर विभेद पैदा करता हो या उन्हें सांप्रदायिक आधार पर विशेष सुविधा उपलब्ध कराने का सुरक्षा कवच पहनाता हो या उन्हें अपने निजी शैक्षणिक संस्थान केवल इस बात के लिए खोलने की अनुमति प्रदान करता हो कि वह इनके माध्यम से अपनी सांप्रदायिक मान्यताओं को लागू कर सकते हैं तब यह कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि देश के प्रतीक नागरिक को ऐसे कानून के माध्यम से न्यायालय के द्वारा न्याय मिल सकता है या देश का पंथनिरपेक्ष स्वरूप सुरक्षित रह सकता है? जब न्याय प्राप्त होने का मौलिक आधार अर्थात कानून ही सांप्रदायिक विभेदकारी हो तो न्याय में विभेद उत्पन्न होना स्वाभाविक है, क्या इस ओर देश का सर्वोच्च न्यायालय ध्यान देना अपेक्षित नहीं मानता ? यदि मानता है तो उसे देश की राजनीति को भी इस बात के लिए प्रेरित करना चाहिए कि वह सांप्रदायिक विभेदकारी नीति, रणनीति और राजनीति को त्याग कर राजनीति का पालन करते हुए प्रत्येक ऐसी सांप्रदायिक मान्यता का विरोध करना सीखे जो देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा पैदा कर सकती है या सामाजिक सद्भाव को विकृत कर सकती है। जिस दिन देश का सर्वोच्च न्यायालय राजनीति को राष्ट्रनीति का पालन करने के लिए प्रेरित करने लगेगा, उस दिन समझा जाएगा कि राजनीति के ऊपर धर्म का शासन है। समझ लीजिए कि राजनीति संप्रदाय गत विचारधारा की प्रतिनिधि है और राष्ट्रनीति धर्मगत विचारधारा की प्रतिनिधि है। संप्रदाय तोड़ता है और धर्म जोड़ता है। इसी बात को राजनीति और राष्ट्रनीति के संदर्भ में स्वीकार करना चाहिए। प्रकाश के पावन पर्व दीपावली पर हमें इसी राष्ट्रनीति के पालन का संकल्प लेना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं)

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