ईश्वरप्रणिधानाद्वा- योगदर्शन- 1.23 ईश्वर के प्रति दृढ़ विश्वास, प्रेम व समर्पण से समाधि शीघ्र लग जाती है। इसके लिए शब्द प्रमाण, अनुमान प्रमाण और ईश्वर द्वारा किए जा रहे बेजोड़ उपकारों का चिन्तन करते रहना आवश्यक है।
तप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग: (योगदर्शन 2.1) तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान क्रिया योग है। ध्यानं निर्विषयं मन: (सांख्य दर्शन- 6.25) ईश्वर के विषय से भिन्न विषय में मन का न जाना ध्यान है।
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्- पतंजलि योगदर्शन- 3.2
धारणा स्थल पर ईश्वर के ज्ञान का एक समान बने रहना ध्यान है। ध्यान ईश्वर का होता है। ईश्वर का ध्यान करने के लिए साधकों को शब्द प्रमाण व अनुमान प्रमाण से ईश्वर के स्वरुप को ठीक-ठीक जान लेना चाहिए। पतंजलि योगदर्शन सूत्र संख्या 23 से 33 में उपदेश किया गया है कि ईश्वर क्लेश,कर्म, कर्मफल व कर्मों की वासनाओं से रहित है, सर्वज्ञ हैं, कालातीत है, गुरुओं का गुरु है। उसका निज नाम प्रणव अर्थात ओम् है। ओम् का अर्थ सहित जप व ध्यान करने से आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार होता है, समाधि फलीभूत होती है और विघ्नों व उपविघ्नों का नाश होता है।
ईश्वर की उपासना,भक्ति वा ध्यान के दो भाग हैं- व्यवहार काल व उपासना काल। १.व्यवहार काल में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान आदि यम नियमों का पालन करना होता है।२.उपासना काल में केवल और केवल ईश्वर के निज ओम् नाम का अर्थ सहित जप करना होता है। ओम् का अर्थ है- अनन्त ज्ञान, बल व आनन्द से युक्त एक दिव्य चेतन निराकार सर्वव्यापक पुरुष जो सृष्टि का कर्ता,धर्ता, हर्ता व कर्मफल प्रदाता है।
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