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परमात्मा ने जीवात्मा को उसके पूर्वजन्म के कर्मानुसार मनुष्य जीवन एवं प्राणी योनियां प्रदान की हैं। हमारा सौभाग्य हैं कि हम मनुष्य बनाये गये हैं। मनुष्य के रूप में हम एक जीवात्मा हैं जिसे परमात्मा ने मनुष्य व अन्य अनेक प्रकार के शरीर प्रदान किये हैं। विचार करने पर ज्ञान होता है कि मनुष्य के जन्म का आधार कर्म होते हैं। जन्म से पूर्व कर्म कहां से आते हैं? इसका उत्तर है कि मनुष्य जन्म से पूर्व उसके पूर्वजन्म के वह कर्म जिसका फल उसने नहीं भोगा होता, उनके आधार पर जीवात्मा को मनुष्य जन्म व अन्य जन्मों सहित उसके भोग अर्थात् सुख व दुःख परमात्मा की ओर से निर्धारित होकर प्राप्त होते हैं। मनुष्य को मनुष्य जन्म उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोगने के लिये मिला है, परन्तु केवल सुख-दुःख भोग ही मनुष्य जीवन का प्रयोजन नहीं है। भोग अवश्यम्भावी हैं परन्तु जीवात्मा का जन्म व मरण का कारण उसके पूर्वकर्मों का भोग व इसके साथ ही दुःखों की पूर्ण निवृत्ति भी है। दुःख क्योंकि अशुभ व पापमय कर्मों का परिणाम होते हैं अतः पाप व अशुभ कर्मों को न करने से मनुष्य दुःखों से बच सकते हैं। जिन मनुष्यों के जीवन में दुःख कम तथा सुख अधिक होते हैं, उसका आधार भी उसके पूर्वजन्म व इस जन्म के अशुभ व पाप कर्मों की न्यूनता तथा उत्तम शुभ व पुण्य कर्मों की अधिकता होती है। आलस्य, विद्या न पढ़ना तथा सत्कर्म न करना भी दुःख का कारण होता है और इसके विपरीत पुरुषार्थ से युक्त जीवन, विद्या प्राप्त करना तथा सदाचरण करने वाले मनुष्य सुखी देखे जाते हैं। इस रहस्य को समझ कर जीवन जीने से मनुष्य को उत्साह मिलता तथा सुखों की वृद्धि होती है। विवेचन करने पर यही देखा जाता है कि शुभ व पुण्य कर्म, जिसे धर्म कहते हैं, वही सुख का आधार हैं तथा अशुभ व पापकर्म जो अधर्म कहलाते हैं, वहीं मनुष्य के दुःखों का कारण होते हैं।
सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक देश व विश्व में वेदों का प्रचार था। इस 1.96 अरब वर्षों कोई वेदेतर वा अवैदिक मत प्रचलित नहीं हुआ। देश-देशान्तर में सभी वैदिक मत के अनुयायी थे। वेद विद्या के ग्रन्थ हैं। वेद अज्ञान को दूर करते हैं तथा मनुष्य को सत्कर्मों में प्रवृत्त करते हैं। महाभारत युद्ध के बाद ऐसा समय आरम्भ हुआ कि जब वेद के सत्य अर्थों को भुला दिया गया और उसके स्थान पर वेदों के सत्य अर्थों के विपरीत दूषित अर्थ किये गये जिनके व्यवहार से मनुष्य व समाज में अशुभ व अपकर्मों की प्रवृत्ति हुई। यही कारण था कि देश छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों व जनपदों में बंट गया। सत्य वेदार्थ का प्रचार न होने के कारण समाज में अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां आदि उत्पन्न हुईं जिससे मनुष्य का सामान्य सुखमय जीवन कुप्रभावित हुआ। यह सामान्य नियम है कि विद्या सुखमय जीवन का आधार तथा अविद्या दुःखों का कारण होती है। यदि किसी मनुष्य के जीवन में दुःख होते हैं तो उसे अपनी अविद्या पर विचार कर उसे दूर करना होता है। अविद्या दूर होने से मनुष्य के दुःख दूर हो जाते हैं। ऐसे समय में जब अविद्या अपने शिखर व चरम पर थी, तब फाल्गुन कृष्णा दशमी सम्वत् 1881 विक्रमी अर्थात् 12 फरवरी, सन् 1825 को ऋषि दयानन्द जी का जन्म गुजरात के टंकारा ग्राम में हुआ था। ऋषि दयानन्द बचपन से ही जिज्ञासु प्रवृत्ति के मेधावी बालक थे तथा किसी बात को बिना प्रमाणों व आत्मा द्वारा स्वीकार किये केवल सुनकर व पढ़कर स्वीकार नहीं करते थे। यही कारण था कि उन्होंने जब अपनी आयु के 14 वें वर्ष में शिवरात्रि का व्रत किया तो शिव की पिण्डी वा मूर्ति पर चूहों को अबाध गति से उछल-कूद करते देख उन्हें मूर्ति की सत्यता व उसकी शक्तियों पर विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने अपने पिता व मन्दिर के पण्डे पुरोहितों से प्रश्न किये कि शिव वा शिव की मूर्ति उन क्षुद्र चूहों को अपने ऊपर से हटाती व भगाती क्यों नहीं? इसका उत्तर न मिलने के कारण उन्होंने मूर्तिपूजा का त्याग कर दिया था।
शिवरात्रि की घटना के कुछ दिनों बाद अपनी बड़ी बहिन और चाचा की मृत्यु से उन्हें वैराग्य हो गया था। इन घटनाओं से उन्हें सच्चे ईश्वर व सद्ज्ञान-विद्या की खोज करने की प्रेरणा मिली। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिये उन्होंने अपनी आयु के 22वें वर्ष में अपने पितृगृह का त्याग कर कुछ समय बाद संन्यास ले लिया और अपने जीवन को अध्ययन, अनुसंधान, ईश्वर-आत्मा व सृष्टि विषयक कठिन व जटिल प्रश्नों के उत्तरों की खोज सहित ईश्वर उपासना का सत्यस्वरूप व उसकी प्राप्ति के साधनों आदि विषयों पर केन्द्रित किया। लगभग 14 वर्ष तक इस कार्य में प्राणपण से लगे रहकर उन्होंने योग, उपासना, ईश्वर तथा आत्मा आदि विषयों के ज्ञान में प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। इस अवधि में वह देश के प्रायः सभी प्रमुख साधु, संन्यासी, विद्वानों तथा साधकों से मिले थे और उनसे जो ज्ञान व अनुभव प्राप्त कर सकते थे, वह उन्होंने प्राप्त किये थे। इसके बाद उनकी एक ही इच्छा शेष रही थी, वह थी विद्या, सद्ज्ञान व सृष्टि के अनजाने रहस्यों को जानने की। इसके लिये सच्चे गुरु का पता भी उन्हें मिल चुका था और वह स्थान था मथुरा में दण्डी प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की पाठशाला जहां वेदांग के अन्तर्गत अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति से अध्ययन कराया जाता था। ऋषि दयानन्द सन् 1860 में स्वामी विरजानन्द जी की पाठशाला में पहुंचें थे और उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लगभग तीन वर्षों में अपना अध्ययन पूरा किया। गुरु की प्रेरणा से ही उन्होंने देश व संसार से अविद्या दूर कर विद्या को स्थापित करने का संकल्प लिया था जिसे उन्होंने सन् 1863 से आरम्भ कर अपनी 30 अक्टूबर सन् 1883 को मृत्युपर्यन्त प्राणपण से पूरा किया।
ऋषि दयानन्द ने वेदों को प्राप्त कर उनकी परीक्षा की। वेदों में सर्वत्र पूर्ण सत्य विचारों, मान्यताओं, नियमों व सिद्धान्तों को अनुभव कर उन्होंने उसका प्रचार आरम्भ किया। सत्य को स्थापित करने के लिये असत्य को हटाना व दूर करना होता है। अस्वच्छ व अशुद्ध विचारों व कृत्यों को शुद्ध करने के लिये ही उन्होंने असत्य व अशुद्ध अवैदिक मान्यताओं, पूजा पद्धतियों व परम्पराओं का खण्डन किया। वह अपने उपदेशों तथा व्याख्यानों में सत्य के पक्ष में प्रमाण भी देते थे और असत्य मतों का खण्डन करते हुए ज्ञान-विज्ञान पर आधारित तर्क एवं युक्तियां भी देते थे। वह सभी मतों व विद्वान मनुष्यों को चुनौती देते थे कि वह उनके वैदिक सिद्धान्तों पर उनसे चर्चा, वार्ता व शास्त्रार्थ कर सकते हैं। मत-मतान्तरों के जो भी विपक्षी विद्वान उनके सम्मुख आयें, उन्होंने प्रेमपूर्वक उनकी अवैदिक मान्यताओं के दोष उन्हें बताये और सत्य वैदिक मान्यताओं से उनका परिचय कराया। बहुत से विद्वान मनुष्यों ने उनकी सत्य व प्रमाणिक बातों को स्वीकार किया तथा वह वेदमत के अनुयायी बन गये। इसी क्रम में उनका काशी में 16 नवम्बर, 1869 को जड़ मूर्तिपूजा पर सनातन व पौराणिक विद्वानों से ऐतिहासिक शास्त्रार्थ हुआ था जिसमें उनकी विजय हुई थी। वेदों को मानने वाले प्रतिपक्षी विद्वानों की मण्डली मूर्तिपूजा के समर्थन में वेदों का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकी थी। इन दिनों व इसके बाद भी वह ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित योग व समाधि का भी प्रचार करते रहे जिसका उल्लेख उनके ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं वेदभाष्य आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। सत्य वैदिक मान्यताओं के प्रचार के लिये ही उन्होंने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई नगरी में वेद प्रचार आन्दोलन को चलाने के लिये वैदिक मान्यताओं पर आधारित ‘‘आर्यसमाज” संगठन की स्थापना की थी जिसने अन्धविश्वास, पाखण्ड, अविद्या तथा देश व समाज को कमजोर करने वाली सभी प्रवृत्तियों व बुराईयों को दूर करने का प्रशंसनीय कार्य किया। देश में आजादी के आन्दोलन का सूत्रपात भी ऋषि दयानन्द के अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखी पंक्तियां ‘कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है….विचार सहित अनेकानेक गुणों से युक्त होने पर भी विेदेशी राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं है’ आदि विचारों को मान सकते हैं। देश में ज्ञान व विज्ञान की जो उन्नति हुई है उसमें भी ऋषि दयानन्द के शिक्षा व विद्या विषयक विचारों सहित गुरुकुलों तथा डी.ए.वी. स्कूल व कालेजों का मुख्य योगदान है।
ऋषि दयानन्द की प्रमुख देन उनके द्वारा लिखे गये सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थ तथा उनका यजुर्वेद सम्पूर्ण तथा ऋग्वेद पर आंशिक संस्कृत-हिन्दी भाष्य है। सत्यार्थप्रकाश में ऋषि दयानन्द ने वेदों के सभी सिद्धान्तों व मान्यताओं को सार रूप में संग्रहित किया है। इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप प्रकाशित होकर प्राप्त होता है। ईश्वर व आत्मा विषयक सभी अविद्याजन्य विचारों का समाधान होकर मनुष्य उन्हें छोड़कर सत्य को ग्रहण करता है। मनुष्य जीवन का आरम्भ जन्म से तथा समाप्ति मृत्यु पर होती है। जन्म से पूर्व, जन्म व मृत्यु पर्यन्त मनुष्य जीवन जीने का दर्शन, जीवन पद्धति, उसके प्रयोजन, उद्देश्य व लक्ष्यों को भी सत्यार्थप्रकाश के प्रथम दश समुल्लासों में बताया गया है। संसार के सभी देशी व विेदेशी मतों की सत्यता की परीक्षा भी इस ग्रन्थ के उत्तरार्ध के चार समुल्लासों में की गई है जिससे वेदेतर सभी मतों की अविद्या का बोध होता है तथा असत्य के त्याग तथा सत्य के ग्रहण की प्रेरणा प्राप्त होती है। सत्यार्थप्रकाश मनुष्य के लिये समग्र जीवन दर्शन प्रस्तुत करता है और तुलनात्मक दृष्टि से यह पूर्ण जीवन दर्शन वा सत्य प्रमाणों, तर्क व युक्तियों पर आधारित धर्मग्रन्थ है। इसे अपनाने से मनुष्य अपने जीवन की उन्नति करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। मोक्ष ही वास्तविक स्वर्ग, सभी दुःखों से रहित तथा सुख व आनन्द से युक्त अमर जीवात्मा की अवस्था वा स्थान है। यह मोक्ष ही मनुष्यों का अभीष्ट एवं मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। यह लक्ष्य अन्य मतों की शरण में जाने पर प्राप्त नहीं होता। वहां इसका उल्लेख भी नहीं है और इसके साधनों व उपायों की चर्चा भी नहीं है। मोक्ष धर्म का पालन व तदनुरूप पुरुषार्थ का परिणाम होता है जो ईश्वर का साक्षात्कार करने पर ही सुलभ होता है। ईश्वर का साक्षात्कार वैदिक धर्म में महर्षि पतंजलि की योग विधि से ही सम्भव है। अतः वैदिक धर्म ही सबके लिये ग्राह्य एवं आचरणीय है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ मनुष्य को जन्म की किसी भी परिस्थिति से ऊपर उठाकर उसे मोक्ष तक ले जाने में समर्थ है। अतः सत्यार्थप्रकाश संसार का श्रेष्ठतम ग्रन्थ है। सबको इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिये। जिसने इसको नहीं पढ़ा व इसकी सत्य शिक्षाओं को नहीं अपनाया उसका जीवन अधूरा रह जाता है। वह आवागमन के चक्र को तोड़ने में सफल नहीं होता। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य