महर्षि दयानंद जी की अपनी निर्बलताओं को दूर करने तथा दूसरों से गुणग्रहण करने में तत्परता •
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- पंडित आत्माराम अमृतसरी
पंडित और विद्वान् शब्द का व्यावहारिक लक्षण यह है कि जो अपने बराबर के पंडित को मूर्ख और अपने से बढ़िया पंडित को उन्मत्त बतलाये। विद्वानों के हृदय फट जाते हैं और पंडितों की आंखें लाल हो जाती हैं जब वे अपने सामने किसी और पंडित के सम्बन्ध में प्रशंसा के शब्द सुनें परन्तु ऋषिजीवन ईर्ष्या, द्वेष से रहित होते हैं। वे किसी का गौरव सुनकर जलते नहीं प्रत्युत प्रसन्न होकर गुणीजन के पास उसके गुण की भिक्षा लेने को जाते हैं। महर्षि दयानन्द की यात्रा बतला रही है कि उन्होंने इस बात को क्रियात्मक रूप से सिद्ध किया था। जहां जिस पंडित और योगी की प्रशंसा उनके कान में पहुंची, तत्काल श्रद्धा की भेंट लेकर उस पंडित या योगी से अपनी न्यूनता को पूर्ण करने का प्रयत्न किया और फिर जीवनभर अपने सिखाने वाले गुरुओं के प्रशंसक रहे। स्वामी जी आबू के भवानीगिरि जैसे योगिराजों और हिमालय की केदारघाट के गंगागिरि की, जिन्होंने उनको योगविद्या के सूक्ष्म रहस्य बताये थे और मथुरा के स्वामी विरजानन्द जी की प्रशंसा करते हुये नहीं थकते। वे जिसमें गुण देखते थे, उसको सदा प्रशंसा करते थे, चाहे वह मनुष्य विद्या आदि गुणों में उनसे छोटा ही क्यों न हो। एक बार की बात है कि मुरादाबाद में वे रोग की दशा में पलंग पर लेटे हुये थे। एक वैद्य चरक-सुश्रुत के जानने वाले शाहजहांपुर से वहां आये और आकर फर्श पर बैठ गये। जब स्वामी जी से वैद्य जी ने बातचीत की तो बातचीत के बीच में वैद्यराज ने एक श्रेष्ठ बात कही। यह सुनते ही स्वामी जी रोगी होने पर भी तत्काल पलंग से उठे और साथ ही कमरे से स्वयं कुर्सी उठाकर ले आये और आदर-सत्कार से वैद्य जी को कहा कि आप यहां पधारिये, यह कहते हुये कि हमें विदित न था कि आप ऐसे विद्वान हैं।
[स्रोत : पंडित लेखराम आर्य मुसाफिर रचित “महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र” (हिंदी), संस्करण 2007, पृष्ठ 860-861, प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा]