खिलाफत आंदोलन को लेकर गांधी जी के विचारों के सर्वथा विपरीत काम कर रहा था तुर्की
◆ ऐतिहासिक भूल के सौ साल: जब गांधीजी “खिलाफत आंदोलन” चला रहे थे तब तुर्क उसे खत्म करना चाह रहे थे…
[आज से ठीक 104 वर्ष पहले खिलाफत आंदोलन की शुरुआत हुई थी। महात्मा गाँधी ने मुसलमानों के निजी आंदोलन को भारत के स्वाधीनता संग्राम के साथ जबरन यह सोच कर नत्थी कर दिया था कि इससे मुसलमानों का सहयोग मिलेगा। आंदोलन असफल होने पर मुसलमानों का गुस्सा निरपराध हिन्दुओं पर दंगों के रूप में निकला। गाँधी जी की इस अदूरदर्शिता का परिणाम भारत पाक विभाजन के रूप में निकला। -डॉ विवेक आर्य]
भारत में महात्मा गांधी का पहला बड़ा राजनीतिक अभियान खिलाफत आंदोलन में भाग लेना था। यह मुहिम कुछ भारतीय मुसलमानों द्वारा शुरू की गई थी। उद्देश्य था तुर्की में इस्लाम के खलीफा सुल्तान की गद्दी और उसका साम्राज्य बचाना। मई 1919 से खिलाफत सभाओं में गांधी जी के भाषण शुरू हुए। खिलाफतवादियों ने 17 अक्टूबर, 1919 को ‘खिलाफत दिवस’ मनाया। उसका गांधी जी ने खूब प्रचार किया था। दिल्ली में 23 नवंबर, 1919 को ‘अखिल भारतीय खिलाफत कांफ्रेंस’ हुई जिसकी अध्यक्षता गांधी जी ने की थी। इन सम्मेलनों में आंदोलन विस्तार की योजना बनी जिसमें सरकार द्वारा दी गई उपाधियां लौटाने, सरकारी नौकरियों का बहिष्कार करने और टैक्स न देने का आह्वान किया गया। ये आह्वान अपने यहां इतिहास के पाठों में पढ़े-पढ़ाए जाते हैं, मगर वह सब खिलाफत के लिए हुआ था।
डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ (1940) में लिखा, ‘सच्चाई यह है कि असहयोग आंदोलन का उद्गम खिलाफत आंदोलन से हुआ, न कि स्वराज्य के लिए कांग्र्रेसी आंदोलन से। खिलाफतवादियों ने तुर्की की सहायता के लिए इसे शुरू किया और कांग्रेस ने उसे खिलाफतवादियों की सहायता के लिए अपनाया। उसका मूल उद्देश्य स्वराज्य नहीं, बल्कि खिलाफत था और स्वराज्य का गौण उद्देश्य बनाकर उससे (बाद में) जोड़ दिया गया था, ताकि हिंदू भी उसमें भाग लें।’ इसी प्रकार एनी बेसेंट के शब्दों में, ‘खिलाफत-गांधी एक्सप्रेस’ का तूफान चला। यह आंधी ऐसी चली कि कांग्रेस की पिछली परंपरा झटके में उड़ गई।
गांधी जी ने खिलाफत को ‘मुसलमानों की गाय’ कहकर हिंदुओं को प्रेरित किया। यानी जैसे हिंदू गाय पूजते हैं, उसी तरह मुसलमान अपने खलीफा को, जबकि मुस्लिम जगत में कहीं खिलाफत की परवाह न थी। उलटे अरब के मुसलमान तुर्की के खलीफा से मुक्ति चाहते थे। खुद तुर्क लोग ‘खिलाफत’ के भार से आजिज थे। यह स्वयं महान तुर्क नेता कमाल पाशा ने कहा था। उन्होंने ही पहले ऑटोमन-तुर्क सल्तनत और फिर खिलाफत को 1924 में खत्म कर दिया।
जब गांधी जी खिलाफत आंदोलन चला रहे थे, उसी समय तुर्क उसे खत्म कर रहे थे। सामान्य बुद्धि से भी खिलाफत के उद्देश्य समर्थन योग्य नहीं थे। तुर्की साम्राज्य बनाए रखने का मतलब था कई देशों को तुर्की का उपनिवेश बनाए रखना, पर गांधी जी ने यंग इंडिया (2 जून, 1920) में लिखा, ‘मेरे विचार से तुर्की का दावा न केवल नैतिक एवं न्यायपूर्ण है, बल्कि पूर्णत: न्यायोचित है, क्योंकि तुर्की वही चाहता है जो उसका अपना है। गैर-मुस्लिम और गैर-तुर्की जातियां अपने संरक्षण के लिए जो गारंटी आवश्यक समझें, ले सकती हैं, ताकि तुर्की के आधिपत्य के अंतर्गत ईसाई अपना और अरब अपना स्वायत्त शासन चला सकें।’ गांधी जी ने आगे लिखा, ‘मैं यह विश्वास नहीं करता कि तुर्क निर्बल, अक्षम या क्रूर हैं।’ यह भी गलत था, क्योंकि तुर्कों ने आर्मेनियाई जनसंहार (1915) किया था। उसमें दस-पंद्रह लाख आर्मेनियाई लोगों का तुर्कों ने सफाया किया। उन्हीं को गांधी जी दयालु कह रहे थे।
जिन्ना ने भी कहा कि खिलाफत ‘पुराने जमाने’ की चीज है और उसका साम्राज्य अब नहीं रह सकता। वैसी साम्राज्यवादी सत्ता बचाने में कुछ कठमुल्लों के साथ जुड़ जाना बहुत बड़ी भूल थी। चौरी-चौरा कांड के बहाने गांधी जी ने जब आंदोलन वापस लिया तो इसीलिए कि उन्हें वास्तविकता समझ आ गई थी। बहरहाल इस्लाम के लिए मुसलमानों में आवेश पैदा कर, उसमें हिंदुओं को झोंककर, ‘एक साल में स्वराज’ लेने का प्रलोभन देकर गांधी जी ने जो आंधी पैदा की, उससे समाज में गहरी दरार पड़ी। ‘इस्लाम खतरे में’ के नारे से मुसलमानों में ‘काफिरों’ के विरुद्ध जिहादी जोश भरा। फलत: मालाबार में अगस्त 1920 में हिंदुओं पर ऐसे हृदयविदारक अत्याचार किए गए कि डॉ. आंबेडकर के शब्दों में, ‘समग्र दक्षिण भारत के हिंदुओं में भय की एक भयानक लहर दौड़ गई।’ किंतु गांधी जी ने उन अत्याचारों की निंदा तो दूर, बल्कि प्रच्छन्न प्रशंसा की। उन्होंने कांग्रेस को भी मोपला अत्याचारों पर कोई ऐसा प्रस्ताव लेने से रोका, ताकि ‘मुसलमानों की भावनाओं को आघात न पहुंचे।’
कांग्रेस नेता और विद्वान केएम मुंशी के अनुसार अधिकांश नेता मानते थे कि गांधी जी एक गलत उद्देश्य के लिए अनैतिक काम कर रहे हैं जिससे बड़े पैमाने पर हिंसा होगी और सुशिक्षित हिंदू-मुस्लिमों की राजनीतिक भागीदारी घटेगी। जिन्ना ने भी गांधी जी को चेतावनी दी थी कि मुल्ले-मौलवियों को राजनीतिक मंच देकर वह बड़ी भूल कर रहे हैं। इस मसले पर लाला लाजपत राय, एनी बेसेंट, रवींद्रनाथ टैगोर, श्रीअरविंद आदि मनीषियों ने भी सार्वजनिक चिंता प्रकट की थी। मौलाना आजाद सुभानी जैसे मुस्लिम नेता अंग्रेजों से भी बड़ा दुश्मन ‘22 करोड़ हिंदुओं’ को मानते थे।
स्वामी श्रद्धानंद ने एक खिलाफत सभा का विवरण दिया है जिसमें वह गांधी जी के साथ सम्मिलित हुए थे। उसमें मौलाना लोग बार-बार हिंसा का आह्वान कर रहे थे। स्वामी श्रद्धानंद के शब्दों में, ‘जब मैंने खिलाफत आंदोलन के इस पहलू की ओर ध्यान दिलाया तो महात्मा जी मुस्कुराए और कहने लगे कि वह ब्रिटिश नौकरशाही की ओर इंगित कर रहे हैं। उत्तर में मैंने कहा कि यह सब तो अहिंसा के विचार का विनाश करने जैसा है और जब मुस्लिम मौलानाओं के मन में उलटी भावनाएं आ गई हैं तो उन्हें इस हिंसा का इस्तेमाल हिंदुओं के विरुद्ध करने से कोई रोक नहीं सकेगा।’ आखिर वही हुआ। खिलाफत आंदोलन के दौरान और खिलाफत के खात्मे के बाद हिंदुओं को इस्लामी रोष का शिकार बनाया गया।
स्टैनले वोलपार्ट ने अपनी पुस्तक ‘जिन्ना ऑफ पाकिस्तान’ (1984) में लिखा है कि खिलाफत के खात्मे पर पूरे भारत में जहां-तहां मुसलमानों ने हिंदुओं पर गुस्सा उतारा। हत्या, दुष्कर्म, जबरन धर्मांतरण, अंग-भंग और क्रूर अत्याचार किए। पूरे खिलाफत आंदोलन के दौर की परख करने पर आश्चर्य होता है कि गांधी जी के अहिंसा संबंधी दोहरेपन तथा खिलाफत आंदोलन की किस बड़े पैमाने पर लीपा-पोती हुई है। उस आंदोलन के दुष्परिणामों से देश आज तक पूरी तरह नहीं उबर सका है। इसीलिए अपने-अपने कारणों से यहां सभी राजनीतिक धाराएं उसकी चर्चा से बचती हैं। जबकि यह उस ऐतिहासिक आंदोलन का शताब्दी वर्ष है।
– डॉ. शंकर शरण (17 अक्टूबर 2019)
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