भारत के जनमानस को आज भी प्रभावित करते हैं आदिकवि वाल्मीकि के विचार

-डॉ. सौरभ मालवी

विगत एक दशक से देशभर में भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण का स्वर्णिम युग चल रहा है। उत्तर प्रदेश सहित देशभर में सांस्कृतिक, धार्मिक एवं सामाजिक कार्य तीव्र गति से चल रहे हैं। भारतीय संस्कृति का विश्वुभर में प्रचार-प्रसार हो रहा है। यह सब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अथक प्रयासों से ही संभव हो रहा है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार राज्य में धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को निरंतर प्रोत्साहित कर रही है। इसी कड़ी में महर्षि वाल्मीकि जयंती धूमधाम से मनाई जा रही है। वाल्मीकि जयंती प्रत्येक वर्ष आश्विन मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है। इसे महर्षि वाल्मीकि प्रकट दिवस भी कहा जाता है। इस दिन वाल्मीकि मंदिरों को सजाया जाता है। मंदिरों में पूजा-अर्चना की जाती है। श्रद्धालु सभा का आयोजन करते हैं। मंदिरों में कीर्तन एवं रामायण का पाठ होता है। इस दिन शोभायात्रा भी निकाली जाती है।

योगी सरकार के आदेशानुसार राज्य के सभी जनपदों में वाल्मीकि जयंती हर्षोल्लास से मनाई जा रही है। महर्षि वाल्मीकि से संबंधित सभी स्थलों एवं मंदिरों में दीप प्रज्ज्वलन, दीपदान एवं रामायण के पाठ भी हो रहे हैं। यह कार्यक्रम जनपद, तहसील एवं विकास खंड स्तर पर आयोजित किए जा रहे हैं। इनके सफल आयोजन के लिए शासन ने विशेष प्रबंध किए हैं। आयोजन स्थलों पर स्वच्छता, पेयजल एवं विद्युत आदि का विशेष प्रबंध किया गया है। योगी सरकार ने इसके लिए अधिकारियों को विशेष निर्देश दिए हैं। समन्वय संस्कृति विभाग, सूचना-जनसंपर्क विभाग एवं पर्यटन एवं संस्कृति परिषद मिलकर कार्य कर रहे हैं। योगी सरकार धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान दे रही है।

उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व देश के अनेक स्थानों पर वाल्मीकि जयंती केवल वाल्मीकि समाज के लोगों तक ही सीमित थी। केवल वाल्मीकि मंदिरों में ही वाल्मीकि जयंती पर कार्यक्रमों का आयोजन होता था। पूर्वाग्रहों अथवा अपरिहार्य कारणों से वाल्मीकि जयंती मनाने का समाज में अधिक चलन नहीं था। किंतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के प्रयासों ने वाल्मीकि जयंती व्यापक स्तर पर धूमधाम से मनाई जाने लगी है। अब यह एक बड़ा पर्व बन चुकी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाल्मीकि जयंती पर लोगों को शुभकामनाएं देते हुए कहा था कि सामाजिक समानता और सद्भावना से जुड़े उनके अनमोल विचार आज भी भारतीय समाज को सिंचित कर रहे हैं। मानवता के अपने संदेशों के माध्यम से वे युगों-युगों तक हमारी सभ्यता और संस्कृति की अमूल्य धरोहर बने रहेंगे। महर्षि वाल्मीकि के विचार आज भी भारतीय समाज को प्रेरित करते हैं। महर्षि वाल्मीकि के आदर्श लाखों लोगों को प्रेरित करते हैं। महर्षि वाल्मीकि गरीब और दलितों के लिए आशा की किरण हैं। उनकी सरकार के कदम महर्षि वाल्मीकि के विचारों से प्रेरित हैं। भगवान राम के आदर्श आज भारत के कोने-कोने में एक-दूसरे को जोड़ रहे हैं, इसका बहुत बड़ा श्रेय महर्षि वाल्मीकि को ही जाता है।

भारतीय संस्कृति में महर्षि वाल्मीकि का योगदान

महर्षि वाल्मीकि का भारतीय संस्कृति में जो स्थान है, वह किसी अन्य को प्राप्त नहीं है। उन्हें आदिकवि भी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने रामायण नामक महाकाव्य की रचना की थी। यह संस्कृत का प्रथम महाकाव्य है।

धार्मिक पवित्र ग्रंथ रामायण की रचना करके वे घर-घर में विराजमान हो गए। उन्होंने रामायण की संस्कृत में रचना की थी। इसे वाल्मीकि रामायण भी कहा जाता है। यह मौलिक ग्रंथ है। इसके पश्चात अनेक भाषाओं में रामायण लिखी गई, परंतु सबका आधार यही संस्कृत की वाल्मीकि रामायण ही थी। वाल्मीकि रामायण का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है।

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण के माध्यम से भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम का जीवन दर्शन जनसाधारण तक पहुंचाने का कार्य किया। मान्यता है कि रामायण लिखने की प्रेरणा उन्हें एक पक्षी से प्राप्त हुई थी। एक समय की बात है कि वाल्मीकि ने एक वृक्ष की शाखा पर बैठे क्रौंच पक्षी के एक युगल को देखा। वह युगल प्रेमालाप में लीन था। वाल्मीकि उस युगल को एकटक निहार रहे थे, तभी नर पक्षी को बहेलिये का एक तीर आकर लगा और वह वहीं मृत्यु को प्राप्त हो गया। अपने साथी की मृत्यु पर मादा पक्षी वेदना से तड़प उठी और विलाप करने लगी। उसके वेदनापूर्ण विलाप को सुनकर वाल्मीकि को अत्यंत दुख हुआ। वे उसकी पीड़ा से द्रवित हो उठे। इसी अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही एक श्लोक निकला-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।

यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्॥

अर्थात हे दुष्ट, तुमने प्रेम में लीन क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं होगी तथा तुझे भी वियोग झेलना पड़ेगा।

मान्यता यह भी है कि वाल्मीकि आदिकवि होने के साथ-साथ खगोल एवं ज्योतिष विद्या के भी ज्ञाता थे। इसका आधार यह है कि उन्होंने अनेक घटनाओं के समय सूर्य, चंद्र व अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है, जिसे इन विद्याओं का ज्ञान हो।

महर्षि वाल्मीकि भारतीय संस्कृति के पुरोधा भी हैं। उन्होंने रामायण के माध्यम से श्रीराम के महान चरित्र से लोगों को अवगत करवाया है। उनके कारण ही अनंतकाल तक जनसाधारण श्रीराम से जुड़ा रहेगा। रामायण से ही हमें श्रीराम को जानने का अवसर प्राप्त हुआ है। वे एक आदर्श पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता राजा दशरथ के वचन का पालन करने के लिए अपना सबकुछ त्याग दिया। उन्होंने राजा दशरथ द्वारा अपनी पत्नी कैकेयी को दिए वचन को पूर्ण करने के लिए अपना राज सिंहासन त्याग कर चौदह वर्ष का वनवास प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया। उन्होंने माता कैकेयी की प्रसन्नता के लिए वनवास स्वीकार किया। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि उनके लिए पिता के वचन एवं माता की प्रसन्नता से अधिक कुछ भी महत्व नहीं रखता। उन्होंने वैभवशाली एवं ऐश्वर्य का जीवन त्याग दिया तथा वन में रहना उचित समझा। उन्होंने अपने पिता की मनोव्यथा एवं उनकी विवशता को हृदय से अनुभव किया। वे बिना किसी अनर्द्वन्द्व के वनवास के लिए चले गए। यह कोई सरल कार्य नहीं था, परंतु उन्होंने ऐसा कठोर निर्णय लिया। कुछ समय पूर्व ही उनका विवाह हुआ था। उन्हें अपनी पत्नी के साथ सुखमय दाम्पत्य जीवन का प्रारंभ करना था। श्रीराम के साथ-साथ उनकी पत्नी ने भी त्याग किया। जो सीता राजभवन में पली थीं। उन्होंने भी राजभवन का सुख त्याग कर पति के साथ वन में जाना चुना। इसी प्रकार श्रीराम के छोटे भ्राता लक्ष्मण ने भी अपने भाई और भाभी की सेवा के लिए वन में जाने का निर्णय लिया। वनवास तो केवल श्रीराम के लिए था, परंतु सीता और लक्ष्मण ने भी वनवास का स्वेच्छा से चयन करके यह सिद्ध कर दिया की उनके लिए श्रीराम से बढ़कर कुछ भी नहीं है। भरत ने भी हाथ में आया राजपाट त्याग दिया तथा अपनी माता कैकेयी से स्पष्ट रूप से कह दिया कीस राज सिंहासन पर केवल श्रीराम का ही अधिकार है। इसलिए वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते। वास्तव में रामायण एक ऐसी कथा है, जो परिवार एवं समाज में आदर्श स्थापित करती है।

किंवदंती है कि श्रीराम ने अपनी पत्नी सीता का त्याग कर दिया था। इस प्रकार माता सीता को पुन: वन में आना पड़ा। उस समय महर्षि वाल्मीकि ने माता सीता को अपने आश्रम में शरण दी थी। माता सीता अपना परिचय सबको नहीं देना चाहती थीं, इसलिए महर्षि ने उन्हें वन देवी का नाम दिया था। यहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ था। यहीं लव और कुश ने अश्वमेघ को पकड़ा था और यहीं उनकी अपने पिता श्रीराम से भेंट हुई थी। महर्षि वाल्मीकि ने भारतीय जनमानस में राम के मर्यादित जीवन और सामाजिक जीवन को स्थापित किया।

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