आर्यवीर उत्तराखंड-रत्न जयानंद भारती का महान व्यक्तित्व
144वीं जयंती पर उनको श्रद्धापूर्ण स्मरण*
खूबसूरत पहाड़ों की शीतल हवाएँ,जहाँ तक नजरें जाएं मनमोहक वादियाँ, नदियों एवं झरनों के कल कल स्वर फिर भी मन व्यथित क्योंकि एक तरफ जहां भारत माँ गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी ब्रिटिश हुकूमत के से त्रस्त थी वहीं सामाजिक विषमता की व्याधि से ग्रस्त समाज निरंतर परिस्थितियों को विकट से अतिविकट बनाए जा रहा था।ऐसी दशा में निश्चित रूप से सामाजिक सरोकार से परिपूर्ण व्याकुल राष्ट्रभक्त मन पहाड़ी शीतलता में भी कैसे शांत रह पाता।एक ऐसा ही मन था क्रांतिकारी समाजसुधारक #जयानंद_भारती जी का।
श्री भारती का जन्म पौड़ी जनपद के अरकंडाई गांव में 17 अक्टूबर 1881 को हुआ था। जैसा कि उक्त अंकित है सामाजिक तानाबाना एवं देश की गुलामी के माहौल ने बाल मन में ही राष्ट्र व समाज के लिए कुछ विशिष्ठ करने की ठानी। समाज में व्याप्त अंधविश्वास एवं बुराइयों से भारती जी दुःखी थे। इन्हीं समस्याओं के समाधान तथा वेदों के अध्ययन की इच्छा से इन्होंने गुरूकुल-कांगड़ी के संस्थापक #स्वामी_श्रद्धानन्द से भेंट की। आर्य समाज के महात्मा, समाज सुधारक एवं राष्ट्रवादी नेता के रूप में प्रख्यात स्वामी जी ने भारती जी को वेदों का वृहद् ज्ञान दिया।उनके कौशल को ही देखते हुए स्वामी जी ने यह भी पूर्व घोषणा कर दी कि “मुझे तुम्हारे अन्दर एक क्रान्ति छिपी हुई नजर आती है।” तुम चाहो तो आर्य समाज के माध्यम से उत्तराखण्ड के हिन्दू समाज में फैली सामाजिक एवं धार्मिक बुराइयों को दूर कर सकते हो”।गुरु के इन शब्दों को मानों जयानंद जी ने ब्रह्म वाक्य के रूप में लिया एवं आर्यसमाज के सिद्धांतों एवं विचारों के अनुसार जनजागरण में लग गए।
इन्हीं उद्देश्यों एवं रोजगार की तलाश में भटकते हुए युवक भारती का परिचय अनेक मुसलमानों और ईसाईयों से हुआ।आज जो भारत में धार्मिक विषमता की स्थिति में धर्म पलायन की स्थिति बनी हुई है जिसके अंतर्गत एक साजिश के तहत हिंदुओं का जातीय भेद के नाम पर धर्मांतरण करवाया जा रहा है ऐसे समय मे भारती जी के संदेश आज भी सारगर्भित प्रतीत होते हैं क्योंकि उस दौर में उन्हें भी धर्म-परिवर्तन के लिए अनेक प्रलोभन दिये गये किन्तु इन्होंने न केवल इन प्रलोभनों को ठुकराया अपितु स्पष्ट कहा कि ”मैं हिन्दू धर्म छोड़कर कोई दूसरा धर्म स्वीकार नहीं कर सकता हूँ। मेरे इस अटल विश्वास के आगे दुनिया का बड़े से बड़ा सम्मान एवं वैभव भी तुच्छ है।”
आर्य समाज का प्रचार-प्रसार करते हुए इन्होंने अपना धर्म छोड़कर ईसाई धर्म अपनाने वाले कई शिल्पकारों को फटकारते हुए कहा कि धर्म में रहकर संगठित बनकर अपने अधिकारों को ये करो।” इस प्रकार आर्य समाज पद्धति से इन्होंने कई ईसाई बने शिल्पकारों को #शुध्दिकरण द्वारा पुनः सनातन धर्म में सम्मिलित किया।
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ऐसे ही जनजागरण के कार्यों की श्रृंखला के रूप में उन्होनें ‘डोला-पालकी आन्दोलन’ चलाया।उस दौर में उनकी जाति के लोगों अर्थात शिल्पकारों के दूल्हे-दुल्हनों को डोला-पालकी में बैठने से वंचित रखा जाता था। लगभग 20 वर्षों तक चलने वाले इस आन्दोलन के समाधान के लिए भारती जी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किया जिसका निर्णय शिल्पकारों के पक्ष में हुआ।
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भारतीय स्वतन्त्रता की लड़ाई में भी भारती जी के बहुमूल्य योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। 28 अगस्त 1930 को इन्होंने राजकीय विद्यालय जयहरीखाल की इमारत पर तिरंगा झंडा फहराकर ब्रिटिश शासन के विरोध में भाषण देकर छात्रोें को स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए प्रेरित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि 30 अगस्त 1930 को लैंसडाउन न्यायालय द्वारा इन्हें तीन माह का कठोर कारावास दिया गया। साथ ही धारा 144 का उल्लंघन करते हुए जब इन्होंने अंग्रेजी शासन के विरूद्ध दुगड्डा में जनसभा की तो इन्हें छः माह के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। पूरे भारत वर्ष में प्रचंड गांधीवादी लहर के बीच जब गढ़वाल पौड़ी की अमन सभा ने उत्तर प्रदेश के गर्वनर जनरल सर मैलकम हेली को अभिनंदन समारोह के लिए आमंत्रित किया तो जेल में ही भारती जी ने कसम खाई कि वे इस अभिनंदन समारोह को सफल नहीं होने देंगे। सौभाग्य से जिस दिन अभिनंदन समारोह था ठीक उसी दिन भारती जी भी जेल से मुक्त हुए। मैलकम हेली जैसे ही स्वागत भाषण के लिये उठा उसी समय भारती जी बड़ी ही मुस्तेदी के साथ मंच पर चढ़े एवं पूरे आत्मविश्वास के साथ सिंहनाद रूपी स्वर में नारा लगाया ”गो बैक मैलकम हेली, भारत माता की जय”। परिस्थिति बिगड़ती देख गर्वनर को किसी तरह सुरक्षित डाक बंगला पहुंचाया गया किन्तु भारती जी जो कि अंजाम के लिए पूरी तरह से तैयार थे पुलिस वालों ने उन्हें पकड़ कर अंधाधुंध पीटना शुरू कर दिया। लाठियों से लगातार पीटते पीटते दृष्ट पुलिसकर्मियों ने उनके मुंह में रूमाल ठूंस कर ऊपर से दरी डाल दी। इस तरह अमानवीय यातनाओं के साथ हथकड़ी पहनाकर उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास में डाल दिया गया। भारती जी द्वारा दुष्ट गवर्नर के आगे मातृभूमि के सम्मान में प्रदर्शित यह अद्भुत साहस ‘ऐतिहासिक पौड़ी कांड’ के नाम से प्रसिद्ध है जिसे जनपद के मुख्यालय के गजट में भी अंकित किया गया है।
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आगे भी आजादी का यह मतवाला इतनें कष्टों को सहने के बाद भी शांत नहीं रहा अभी जीवन में और जेल यातनाएं बाकी थी।गाधी जी ने जब व्यापक रूप से आह्वान किया कि शासन को किसी भी प्रकार की जन-धन से सहायता न दी जाय तब अंग्रेजी शासन के विरुद्ध उन्होनें इस निर्देशानुसार उन्हें उस समय रोका जब अंग्रेज 11 अक्टूबर 1940 को लैंसडाउन से बाहर युद्ध के लिए जानें की तैयारी में थे। इस अपराध पर उन्हें 4 माह कारावास और 15 रुपये अर्थदण्ड की सजा दी गई।
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इस प्रकार क्रांति का यह मतवाला अंतिम दिनों में अत्यंत गंभीर रोग से ग्रस्त होकर अपने ग्राम अरकंडाई में ही 71 वर्ष की आयु में 9 सितम्बर 1952 को सदा सदा के लिए इस संसार से विदा हो गया।किन्तु पीछे वीरता की एक ऐसी गाथा छोड़ गया जो सदा सदा के लिए पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत का कार्य करेगी। मातृभूमि सेवा संस्था भारत माँ के ऐसे सच्चे सपूत को उनकी जयंती पर उन्हें शत शत नमन करती है।
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✍️ प्रशांत टेहल्यानी, राष्ट्रीय सह-संयोजक, मातृभूमि सेवा संस्था