भारत के शौर्य की गौरव गाथा ( मुगल काल के भूले बिसरे हिंदू योद्धा )

प्रस्तावना

  प्रस्तुत पुस्तक उन योद्धाओं के लिए समर्पित है, जिन्होंने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए मुगलकाल में अपने अनुपम बलिदान दिए। निश्चित रूप से अपने उन बलिदानियों को किसी एक ग्रंथ में समाविष्ट नहीं किया जा सकता, यह भी नहीं कहा जा सकता कि उनकी संख्या कितनी रही होगी ? कितने लोगों ने अपने बलिदान दिए ? घरबार त्यागे, अनेक प्रकार के कष्ट सहे , यह  कहना भी असंभव है ? अतः यह नहीं कहा जा सकता कि यह पुस्तक अपने आप में पूर्ण है। अनुसंधान का व्यापक क्षेत्र अभी भी हमारे सामने उपस्थित है। 

हमें विदेशी तुर्कों और मुगलों के बारे में यह समझना चाहिए कि इनका मूल आर्य हिंदू जाति से ही जुड़ा हुआ है , परंतु विपरीत मत को अपना लेने के पश्चात ये खूनी और हिंसक हो गए। इस बात को समझकर हमें यह मान लेना चाहिए कि जो वैदिक धर्म को त्यागता है वह खूनी और अपराधी हो जाता है।
इतिहास के रहस्यों को सुलझाने के दृष्टिकोण से तुर्कों और मुगलों के सनातनी अतीत के बारे में समझने की आवश्यकता है। हमारे देश में प्राचीन काल में एक महान् शासक हुए हैं, जिनका नाम ययाति था। ययाति को पुराणों में और प्राचीन भारतीय वांग्मय में बड़ा सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त है। ‘ हरिवंश पुराण ‘ के अनुसार इन्हीं ययाति के कुल 10 पुत्र थे। राजा ने अपने 10 पुत्रों में से पाँच पुत्रों को अपना संपूर्ण साम्राज्य विभाजित करके दे दिया। जिनको पहली बार संपूर्ण भूमंडल का अलग-अलग क्षेत्रों का मांडलिक नियुक्त किया गया। ययाति के ये 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वसु, 4. अनु और 5. द्रहयु। कर्नल टॉड का कहना है कि – ” अब्दुल गाजी तूर के पुत्र वमक को पुराणों का तुरिश्क माना जाना चाहिए । उसके उत्तराधिकारियों ने इस स्थान को अपना नाम तुर्किस्तान दिया। ”
प्रोफेसर मैक्स मूलर का कहना है कि- ” तुर्वसु एवं उसके उत्तराधिकारी जो तूरानियों के प्रतिनिधि हैं , वह भारत के बाद के महाकाव्य अर्थात महाभारत में शापित कहलाते हैं और इसीलिए अपने उत्तराधिकार से वंचित होकर अन्य स्थानों पर चले गए।”
मध्य एशिया में जिन दो जातियों अर्थात तुर्क और मंगोल का उत्कर्ष हुआ, उनमें से तुर्क सीधे भारतीय मूल से संबंध रखती है। तुर्कों का तुर्किस्तान और मंगोलों का मंगोलिया था। इस्लाम के आक्रमण के समय तुर्किस्तान का तेजी से धर्म परिवर्तन हो गया। जिससे वह अपने मालिक वैदिक धर्म से दूर हो गया । इतिहास का यह एक सर्वमान्य सत्य है कि भारत को कभी अतीत में रहे सनातनियों ने ही ( अर्थात अपना धर्म परिवर्तन करने के पश्चात मुसलमान या ईसाई बने लोग ) अधिक क्षति पहुंचाई है। जब इन क्षेत्रों में वैदिक धर्म का सूर्य अस्त होता जा रहा था, तब यहां के लोग जंगली रूप में आ चुके थे। लूटमार, हत्या, डकैती और बलात्कार जैसे पाशविक दोष उनके भीतर आ चुके थे। ये बलशाली तो थे, परंतु यशस्वी नहीं थे। यश की कामना के बिना कमाया गया बल पाशविक होता है। ऐसे वास्तविक बल के चलते उनके भीतर कबीलाई अपसंस्कृति का विकास हो चुका था। जिसमें एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करना सामान्य बात होती है।
जहां तक मंगोल जाति के लोगों की बात है तो पंडित रघुनंदन शर्मा अपनी पुस्तक ‘ वैदिक संपत्ति ‘ में लिखते हैं, ‘‘ नेपाल में एक चपटे चेहरेवाली मंगोलियन जाति भी रहती है। यह जाति अति प्राचीन काल में आर्यों की ही एक शाखा थी। परन्तु यह दीर्घातिदीर्घ काल पूर्व ही आर्यों से पृथक होकर चीना नामक हिमालय के उत्तर ओर वाली गहराई में बस गई थी, इसलिए अब उसके आकार, रंग और भाषा आदि में बहुत अन्तर आ गया है। बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने लिखा है कि किरात लोग नेपाल के उत्तर-पश्चिम में बसते थे और पतित क्षत्रिय थे और हमने बतलाया है कि चीना हिमालय के नीचे उत्तरपूर्व में रहते थे और ये भी क्षत्रिय ही थे। इन्हीं दोनों के मेल से मंगोलिया जाति के पूर्वजों की उत्पत्ति हुई है। यही नेपाल निवासी चपटे मुंहवाली जाति है। यही जाति मंगोलियन विभाग की जननी है। उमेश बाबू कहते हैं कि इस नवीन जाति का रंग ‘ बाल्मीकि रामायण ‘ में सुवर्ण का सा लिखा है। जिस समय की यह बात हैं, उस समय जिस प्रकार जरा सांवले रंगवाले श्याम और श्यामा बडे़ सुन्दर समझे जाते थे, उसी तरह ये पीत अर्थात् सुवर्ण के से रंगवाले भी बहुत उत्तम समझे जाते थे। महाभारत मीमांसा में रावबहादुर चिन्तामणि विनायक वैद्य ने महाभारत के प्रमाणों से लिखा है कि कौरव पांडवों की गौरवर्ण स्त्रियों का रंग तप्त सुवर्ण का सा था। यह उस समय के रंग की खूबी का बयान है।
दक्षिण के गुजराती और महाराष्ट्र आदिकों का भी प्रायः यही रंग है। वे न तो सफेद हैं और न सुर्खीमायल ही हैं। आदि काल में आर्यों ने जरा सांवले और जरा पीले रंग को ही अपने मन में उत्तम समझा था, इसीलिए माताओं के संस्कार प्रबल हुए और अधिक प्रजा इसी रंग की हो गई है। हम देखते हैं कि नेपाल में बसनेवालों का भी प्रायः यही रंग है। वहां चपटे चेहरे और पीतवर्ण वालों में कुछ ताम्रवर्ण के श्याम लोग भी पाये जाते है। अभी हमने जिस श्याम रंग का वर्णन किया है, ये लोग उसी रुचि के परिणाम हैं। कहने का मतलब यह है कि ये चपटे चेहरे और पीले तथा श्याम रंगवाले मंगोलियन आर्यों से भिन्न किसी अन्य जाति के मनुष्य नहीं है।
इसके आगे बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने आर्यों का मूल वतन मंगोलिया के अलताई पहाड़ पर सिद्ध करने के लिए ‘मानवेर आदि जन्मभूमि ‘ नामक ग्रन्थ लिखा है। उस ग्रन्थ के पढ़ने से अधिक तो नहीं, पर इतना अवश्य भासित होता है कि पूर्वातिपूर्व काल में आर्य लोग अलताई अर्थात् इलावृत में रहते थे और यह अलताई शब्द इलावृत का ही अपभ्रंश है। ‘मानवेर आदि जन्मभूमि‘ पृष्ठ 119 में ‘ वायुपुराण ‘ अध्याय 38 के कुछ श्लोक उद्धृत किये गये हैं, जिनसे ऊपर की बात पुष्ट होती है। इन श्लोकों में कहा है – ‘इलावृत वर्ष के दक्षिण हरिवर्ष, किम्पुरुषवर्ष और भारतवर्ष के ये तीन वर्ष हैं और उत्तर की ओर रम्यकवर्ष, हिरण्यवर्ष और उत्तरकुरुवर्ष ये तीन वर्ष हैं। इसके बीच में इलावृतवर्ष है।’ इस वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि मंगोलिया में आर्य लोगों ने ही अपना उपनिवेश बसाया था।’’
इसी प्रकार एक मत यह भी है कि विष्णु के बेटे मंगल के नाम पर मंगोलिया नाम पड़ा है। पुराणों में कथा आती है कि विष्णु का एक बेटा चीन के उत्तर में जा कर बस गया था। वही क्षेत्र मंगोलिया का है। इन उद्धरणों से यह साबित होता है कि मंगोलिया भारत के लिए कोई अनजाना प्रदेश नहीं है। अति प्राचीन काल में मंगोलिया में आर्य लोगों का आना-जाना रहा ही है। यही कारण है कि मंगोलिया की संस्कृति और वैदिक आर्य संस्कृति में काफी अधिक समानताएं पाई जाती हैं। सभी संप्रदायों के प्रति समान आदर, स्त्रियों का सम्मान, मानवीय मूल्यों को महत्व, प्रकृति का पूजन आदि ऐसी ही कुछ समानताएं हैं।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि तुर्क और मंगोल दोनों जातियां भारतीय मूल की रही हैं। इन्हीं मंगोल जाति के लोगों ने मुगल के रूप में जब भारत पर आक्रमण किया तो इन्होंने हिंदुओं का खून करते हुए अपराधों के कीर्तिमान स्थापित कर दिए। हमारे लिए यह परम सौभाग्य का विषय है कि जब ये मुग़ल लोग भारत में अप्रत्याशित और पाशविक अत्याचार कर रहे थे, तब हमारे देश का पौरुष , साहस और शौर्य इनका सामना करने के लिए बलिदानों के भी कीर्तिमान स्थापित कर रहा था। इस पुस्तक में बलिदानों के कीर्तिमान स्थापित करने वाले ज्ञात अज्ञात योद्धाओं का ही वर्णन किया गया है।
शेष भाग कल

डॉ राकेश कुमार आर्य

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