विदेशी भाषा ‘अंग्रेजी’ हमारी शिक्षा पद्घति का आधार बनी बैठी है। जो हमारी दासता रूपी मानसिकता की प्रतीक है। यदि राष्ट्रभाषा हिंदी को प्रारंभ से ही फलने फूलने का अवसर दिया जाता तो आज भारत में ये भाषाई दंगे कदापि न हो रहे होते। वास्तव में क्षेत्रवाद और भाषावाद को हमारे नेतागण निहित स्वार्थ में बढ़ावा देते हैं, क्योंकि उन्हें क्षेत्रीय लोगों से इसी आधार पर वोट लेनी होती है। जो उसे अपनी किसी क्षेत्रीय बात अथवा समस्या को उठाने के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए कई बार ये राजनीतिज्ञ लोग इस कारण भी ऐसा काम कर जाते हैं जो राष्ट्रहित में उचित नही होता। जब श्री कामराज जी के पास दिल्ली से हिंदी में पत्र जाने लगे थे तो उन्होंने अपने पास अनुवादक रखने के स्थान पर ‘इन पत्रों को कूड़े की टोकरी में फेंक दो’ ऐसा निर्देश अपने अधिकारियों को दे दिया था।
अत: पहले दिन से ही राजनीतिज्ञों की इस उपेक्षा वृत्ति ने इस राष्ट्र में क्षेत्रवाद और भाषावाद की प्रवृत्ति को प्रश्रय और प्रोत्साहन प्रदान किया है, क्योंकि भारत को जो नेतृत्व उस समय मिला था वह राष्ट्रभाषा की अनिवार्यता और महत्व से बिल्कुल अनभिज्ञ था। एक आंकलन के अनुसार पूरे भारतवर्ष में कुल जनसंख्या का पांच प्रतिशत भाग ही अंग्रेजी समझ पाता है। यह भी सर्वविदित है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, किंतु फिर भी यहां के किसान के लिए टीवी और रेडियो पर आती हैं वे अक्सर या तो अंग्रेजी में वार्ताएं प्रसारित की जाती हैं जिन्हें हमारा किसान वर्ग समझ नही पाता है और इसीलिए उन वार्ताओं को वह सुनना भी नही चाहता। यही कारण है कि इन वार्ताओं का अपेक्षित परिणाम देश में देखने को नही मिल रहा है।
राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोये रखने के लिए नई भाषा नीति की आवश्यकता है। इसके लिए शिक्षा को संस्कारों पर आधारित बनाना होगा। संस्कारित और शिक्षित व्यक्ति पैदा करना जिस दिन हमारी शिक्षा नीति का उद्देश्य हो जाएगा उसी दिन इस देश से कितनी ही समस्याओं का समाधान ऐसे हो जाएगा जैसे मानो ये समस्याएं थी ही नही। अभी तक के जो आंकड़े हैं वे यही बता रहे हैं कि हमने मात्र शिक्षित व्यक्ति ही उत्पन्न किये हैं, संस्कारित नही। इस लेखनी की पीड़ा इन शब्दों में बार-बार फूटेगी-
जब तक छाया है अंतर में बैर विरोध का घोर तिमिर।
जब तक चिंतन की परिधि का नही बनेगा राष्ट्र केन्द्र।।
जब तक स्वहित पर होता रहेगा राष्ट्र का बलिदान यहां।
तब तक उत्थान असंभव है, चहुंदिशि दीखेगा घोर तिमिर।।
मजहब बदल सकता है पूर्वज नही
प्रसिद्घ इतिहासज्ञ डा. पी.एन. ओक महोदय सरीखे खोजी विद्वान ‘‘भारतीय इतिहास और विश्व साम्राज्य’’ के उस स्वर्णिम काल के तथ्यों को उद्घाटित करने में बड़े सफल रहे हैं, जिसे भारतीय अस्मिता और गौरव का काल कहा जा सकता है।
बोर्नियो, इण्डोनेशिया, मलेशिया, कोरिया, चम्पा, जावा, सुमात्रा, बाली और कम्बोडिया जैसे देशों में आर्य संस्कृति के पर्याप्त अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। इण्डोनेशिया में तो मुसलमानों के नाम अब तक संस्कृत में मौजूद हैं। ‘मेघावती सुकर्णपुत्री’ जो वहां की शासनाध्यक्ष रहीं हैं, के पिता का नाम सुकर्ण था जबकि माता का नाम ‘रत्ना’ था। इन्हीं डा. सुकर्ण के साथ पं. जवाहर लाल नेहरू एक बार अपने सम्मान में आयोजित कार्यक्रम के अंतर्गत वहां रामलीला देख रहे थे, जिस पर उन्होंने आश्चर्य से डा. ‘सुकर्ण’ से पूछ लिया कि आप मुस्लिम होकर रामलीला क्यों करते हैं? डा. सुकर्ण का उत्तर बड़ा ही महत्वपूर्ण था, देखिये, उन्होंने क्या कहा-‘नेहरू जी! हमने मजहब बदला है, पूर्वज नही’ भारत के धर्मनिरपेक्षी शासक नेहरू के लिए यह उत्तर बहुत ही शिक्षाप्रद था। क्योंकि वह व्यक्ति उन विद्वानों का अगुवा रहा है जिन्होंने भारत में यह बड़ी अटपटी अवधारणा विकसित की है या होने दी है कि भारतीय मुस्लिमों के पूर्वज मोहम्मद साहब, गजनी, गोरी, बाबर, अकबर और औरंगजेब हैं। यदि भारतीय मुसलमान यह तथ्य समझ लें कि ‘मजहब बदल सकता है पूर्वज नही’ तो इस राष्ट्र की बहुत सी समस्याएं तो चुटकियों में हल हो जाएंगी। परंतु नेहरूवादी मानसिकता के लोगों ने दुर्भाग्य से उन्हें ऐसा समझने नही दिया है। वोट के सौदागर और धर्म के ठेकेदार बीच में आ गये और राष्ट्र का सौदा करने लग गये। सत्य और तथ्य दोनों को सौदागरी और ठेकेदारी की दुकानदारी पर नीलाम कर दिया गया इतिहास साक्षी है, देखिये इन्होंने क्या किया-
– इतिहास का कत्ल कर दिया।
– स्वाभिमान का खून कर दिया।
– संस्कृति का सौदा कर दिया।
– मूल्यों को पैरों से रौंद दिया।
– सरदार बल्लभ भाई पटेल के अरमानों और राष्ट्रहित में किये गये वंदनीय प्रयासों पर पानी फेर दिया गया।
जब यहां के मुसलमान के पूर्वज अलग बना दिये गये या मान लिये गये, और कश्मीर में 370 धारा लागू कर उस रियासत को भारत में रखकर भी भारत से अलग मान लिया गया तो आज उसका परिणाम सामने क्या आ रहा है? यही कि वहां का मुसलमान कश्मीर के विषय में सोचने लगा है कि यह भारत का नही है। यहां से हिंदू को निकाल देने पर एक दिन आएगा कि जब हम स्वतंत्र कश्मीर अर्थात नया पाकिस्तान बना लेंगे। कश्मीर में साम्प्रदायिकता का दानव खेल खेला जा रहा है। मानवता तो वहां से एक अवधि बीत गयी जब अपने बोरिया बिस्तर के साथ निकल कर अज्ञात रास्ते से कहीं चली गयी थी। आज आतंकवाद का भूत वहां नंगा नाच रहा है। क्यों? क्योंकि उन्हें समझा दिया गया है कि भारत तो उन भारतीयों का है, जो राम, कृष्ण, शिवाजी और राणाप्रताप की संतानें हैं। इसे हड़प कर छीनना है उनको जो गजनी, गौरी और बाबर की संतानें हैं। लडऩे वाले उग्रवादी हैं। उन्हें भ्रमित करने वाले उग्रवादी हैं, जो राष्ट्रद्रोही और राष्ट्र के हत्यारे हैं। उन्हें इतिहास का सच बताना चाहिए था। जिन्होंने सत्य को छिपाया वह भी राष्ट्रद्रोही है। इन राष्ट्रद्रोहियों के लिए कानून बनाकर इन्हें सार्वजनिक स्थान पर फांसी पर लटकाना चाहिए। ऐसे लोगों के प्रति सरदार बल्लभ भाई पटेल अपने अंतिम समय में उदास रहने लगे थे। उन्हें अहसास होने लगा था कि ये लोग मेरे जाने के बाद मेरे उद्यम और परिश्रम पर पानी फेर देंगे। इस उदासी का कारण उनके निजी सचिव श्री वी.शंकर ने उनसे पूछा था। तो उन्होंने बड़े ही दुखी मन से कहा था-
‘‘शंकर! मुझे लगता है कि मेरे जीवन का अंतकाल आ रहा है। मैं सोचता हूं कि जो काम मैंने अपने तीन साल के शासनकाल में किया है, वह स्थिर रहेगा या कोई उस पर पानी फेर देगा? यही मेरी उदासी का कारण है। शंकर! तुम इस देश की जनता को नही जानते। मैं भलीभांति जानता हूं कि इस देश की जनता चढ़ते सूरज की पूजा करती है। यदि मेरा स्थान मुझसे उल्टा काम करने वालों के हाथ में आ गया, तो जनता उनके गले में भी माला डालेगी और वाह-वाह करेगी।’’ उस इतिहास-पुरूष की वह उक्ति आज अक्षरश: सत्य सिद्घ हुई है। जिन्होंने धर्मांतरण कर लिया था उन्होंने पूर्वजों का भी अंतरण कर लिया है। फलस्वरूप आज राष्ट्र की एकता और अखण्डता को अभूतपूर्व खतरा उत्पन्न हो गया है। आज बहुत से लोगों के दिल में इस धर्मांतरण और मर्मांतरण से उपजी विखण्डन की प्रवृत्ति के प्रति टीस है, आक्रोश है, क्षोभ है और पीड़ा है। राजनीति की वैश्या के कोठे पर जाकर सब कुछ भुला दिया गया है। इससे बड़ा राष्ट्रद्रोह और क्या हो सकता है? सच पर भी ताले लग गये हैं, अपनी राय को उद्घाटित करने की क्षमता और सामथ्र्य किसी में है? श्री धर्मेन्द्र नाथ अलिन्द जी की ये पंक्तियां कितनी सार्थक हैं-
अभी न संभला भोले राही टेर रहा इतिहास रे।
शमशानों में भस्म हुए तेरे कितने विश्वास रे।।
कभी हिंदी की वकालत करने वाले महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने हिंदुस्तानी (हिंदी और ऊर्दू का मिश्रण) भाषा का समर्थन किया, इनके साथ कई और सदस्य भी सम्मिलित हुए । उस समय विभाजन की पीड़ा को लेकर बहुत से सदस्य ऐसे थे जो गांधी और नेहरू के उपरोक्त ‘खिचड़ी भाषा’ के प्रस्ताव से असहमति रखते थे । उस समय गांधी नेहरू के इस प्रस्ताव को गिरा दिया गया । परंतु बाद में जब नेहरू जी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अपनी बात को ही सर्वोपरि रखने के लिए ‘खिचड़ी भाषा’ हिंदुस्तानी के प्रयोग को ही जारी रखना उचित समझा। जब देश के संविधान का निर्माण हो रहा था और सम्मानित सदस्य संविधान सभा में बैठकर हिंदुस्तानी और हिंदी में अपनी बातों को कहने का प्रयास करते थे तो उस समय कुछ ऐसे सदस्य भी थे जो हिंदुस्तानी और हिंदी दोनों का विरोध करते थे । वह किसी भी ऐसे वक्तव्य का अनुवाद इंग्लिश में करने की मांग करते थे जिसे हिंदुस्तानी और हिंदी में रखा गया होता था। इससे हिंदी विरोध की गूंज संविधान सभा में रह रहकर उठने लगी ।मुट्ठी भर सदस्य हिन्दी विरोध के नाम पर लामबंद होने लगे।
ये लोग नहीं चाहते थे कि हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मान प्राप्त करे। इतिहासकार रामचंद्र गुहा की पुस्तक ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में एक स्थान पर उल्लेखित किया गया है कि मद्रास का प्रतिनिधित्व कर रहे टीटी कृष्णामचारी ने कहा कि – मैं दक्षिण भारतीय लोगों की ओर से चेतावनी देना चाहूंगा कि दक्षिण भारत में पहले ही कुछ ऐसे घटक हैं जो बंटवारे के पक्ष में हैं।
यूपी के मेरे मित्र हिंदी साम्राज्यवाद की बात करके हमारी समस्या और ना बढ़ाएं। उन्होंने कहा कि यूपी के मेरे मित्र पहले यह सुनिश्चित कर लें कि उन्हेें अखंड भारत चाहिए या हिंदी भारत। लंबी बहस के बाद सभा इस फैसले पर पहुंची कि भारत की राजभाषा हिंदी (देवनागिरी लिपि) होगी लेकिन संविधान लागू होने के 15 वर्ष पश्चात अर्थात 1965 तक सभी राजकाज के काम अंग्रेजी भाषा में किए जाएंगे।
हिंदी समर्थक नेता बालकृष्णन शर्मा और पुरुषोत्तम दास टंडन ने अंग्रेजी का विरोध किया। 1965 में राष्ट्रभाषा पर फैसला लेना था, तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का निर्णय ले लिया था लेकिन इसके बाद तमिलनाडु में हिंसक प्रदर्शन हुए।
प्रदर्शन के दौरान दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों में हिंदी की पुस्तकें जलने लगीं, कई लोगों ने तमिल भाषा के लिए अपनी जान तक दे दी, जिसके बाद कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने अपने निर्णय पर नर्मी दिखाई और घोषणा की कि राज्य अपने यहां होने वाले सरकारी कामकाज के लिए कोई भी भाषा चुन सकता है।
कांग्रेस के फैसले में कहा गया कि केंद्रीय स्तर पर हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का प्रयोग किया जाएगा और इस प्रकार हिंदी कड़े विरोध के बाद देश की केवल राजभाषा बनकर ही रह गई, राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई।
उस समय ऐसे बहुत से कांग्रेसी थे जो नेहरू जी के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना नहीं चाहते थे ।वे नीचे ही नीचे देश के इस सुयोग्य प्रधानमंत्री को नीचा दिखाने का काम करते रहते थे । ऐसे कांग्रेसियों का नेतृत्व पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित कर रही थीं। वह शास्त्री जी को ‘तीन मूर्ति भवन’ ( जो कि उस समय प्रधानमंत्री आवास कहा जाता था । उसी में रहकर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश पर शासन किया था ) में रहते हुए देखकर भी प्रसन्न नहीं होती थीं। तीन मूर्ति भवन को वह नेहरू जी की स्मृति के रूप में स्थापित करने की मांग करने लगी थीं । इसके लिये अनेकों अवसरों पर उन्होंने शास्त्री जी को अपमानित किया था और उन पर इस बात के लिए दबाव बनाया था कि वह तीन मूर्ति भवन को छोड़कर कहीं अन्य चले जाएं । शास्त्री जी ने इस प्रकार के उपेक्षापूर्ण और कलहयुक्त परिवेश को छोड़कर तीन मूर्ति भवन को बड़ी विनम्रता से छोड़ दिया।
देश के अति निर्धन वर्ग में से निकल कर आए हुए लाल बहादुर शास्त्री को विजय लक्ष्मी पंडित प्रधानमंत्री के रूप में देखना भी पसंद नहीं करती थीं। ऐसे में यह सहज ही कल्पना की जा सकती है कि यदि शास्त्री जी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की तैयारी करने लगे थे तो विजयलक्ष्मी पंडित और उन कांग्रेसियों को इससे कितनी चोट पहुंची होगी जो अभी तक भी पंडित जवाहरलाल नेहरु की ‘हिंदुस्तानी’ के समर्थक रहे थे। तब शास्त्री जी को असफल सिद्ध करने के लिए चुपचाप ऐसे लोगों को उकसाने का काम किया गया जो हिंदी विरोध के लिए सड़कों पर आ गए थे । कांग्रेस के उस समय के ‘परिवार भक्त’ लोग देश के लोगों को यह संदेश देना चाहते थे कि देश पर शासन करना केवल नेहरू परिवार ही जानता है। फलस्वरुप शास्त्री जी को हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना पड़ा और तब से ही हम आज तक किसी ऐसे ‘शास्त्रीजी’ की प्रतीक्षा में हैं जो हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का निर्णय ले सके।
डॉ राकेश कुमार आर्य