🍃 दशहरा : सर्वांगीण विकास का श्री’गणेश
डॉ. सुनील सिंह गुर्जर
युवा राष्ट्रीय अध्यक्ष देवसेना सस्था।
दशहरा की महिमा जीवन के सभी पहलुओं के विकास, सर्वांगीण विकास की तरफ इशारा करती है | दशहरे के बाद पर्वो का झुंड आयेगा लेकिन चेतन इंसान के सर्वांगीण विकास का श्रीगणेश करता है दशहरा|
दशहरा :
* दश पापों को हरने वाला,
* दश शक्तियों को विकसित करने वाला,
* दशों दिशाओं में मंगल करने वाला ‘और’
* दश प्रकार की जीत देने वाला पर्व है।
इसलिए इसे ‘विजयादशमी’ भी कहते है|
दशहरा अधर्म पर धर्म की विजय, असत्य पर सत्य की विजय, दुराचार पर सदाचार की विजय, बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता की विजय, अन्याय पर न्याय की विजय, तमोगुण पर सत्वगुण की विजय, दुष्कर्म पर सत्कर्म की विजय, दुराचारीभोग पर आनंदयोग की विजय, आसुरी तत्वों पर दैवी तत्वों की विजय, जीवत्व पर शिवत्व की और पशुत्व पर मानवता की विजय का उत्सव है|
प्रचलित मिथक के अनुसार महिषासुर का अंत करने वाली दुर्गा का विजय-दिवस है दशहरा | शिवाजी महाराज ने युद्ध का आरंभ किया तो दशहरे के दिन | रघु राजा ने कुबेर भंडारी को कहा कि ‘इतना स्वर्ण मुहरें तू गिरा दे, ये मुझे विद्यार्थी (कौत्स ब्राम्हण) को देनी है, नही तो युद्ध करने आ जा |’ कुबेर भंडारी ने, स्वर्ण भंडारी ने स्वर्णमुहरों की वर्षा की दशहरे के दिन |
दशहरा यानी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और अंत:करण – को शक्ति देने वाला। अर्थात : देखने की शक्ति, सूँघने की शक्ति, चखने की शक्ति, स्पर्श करने की शक्ति, सुनने की शक्ति।
पाँच प्रकार की ज्ञानेंद्रियों की शक्ति तथा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार नामक चार अंत:करण चतुष्टय की शक्ति : इन नौ को सत्ता देने वाली जो दसवीं परम’चेतना है वह है आपका ‘स्व’|
यह स्व यानी अंतस की शक्ति विद्या में प्रयुक्त हो तो विद्या में आगे बढते हैं, बल में प्रयुक्त हो बल में आगे बढते हैं, योग में प्रयुक्त हो तो योग में आगे बढते है और सबमें थोड़ी-थोड़ी लगे तो सब दिशाओं में विकास मिलता है|
एक होता है नित्य और दूसरा होता है अनित्य, जो अनित्य वस्तुओं का नित्य वस्तु के लिए उपयोग करता है वह होता है आध्यात्मिक किंतु जो नित्य वस्तु चैतन्य का अनित्य वस्तु के लिए उपयोग करता है वह होता है आधिभौतिक |
दशहरा इस बात का साक्षी है कि बाह्य धन, सत्ता, ऐश्वर्य, कला-कौशल्य होने पर भी जो भी नित्य सुख की तरफ लापरवाह हो जाता है उसकी क्या गति होती है |
जिसके एक सिर नही दस-दस सिर हों, दो हाथ नहीं बीस-बीस हाथ हों तथा आत्मा को छोड़कर अनित्य सोने की लंका भी बना ली, अनित्य सत्ता भी मिल गयी, अनित्य भोग-सामग्री भी मिल गयी; लेकिन…! इन सबसे जीव की तृप्ति नही होती।
जीवन जीना एक कला है | जो जीवन जीने की कला नहीं जानता वह मरने की कला भी नहीं जानता। बार-बार मरता रहता है, बार-बार जन्मता है |
जो जीवन जीने की कला जान लेता है उसके लिए जीवन जीवनदाता से मिलाने वाला होता है-- मोक्ष।
जीवन एक उत्सव है, जीवन एक गीत है, जीवन एक संगीत है| जीवन ऐसे जीयो की जीवन चमक उठे। मरो तो ऐसे मरो की मौत महक उठे। आप इसीलिए धरती पर आये हो|
आप संसार में झख मरने के लिए नहीं आये हैं| आप संसार में दो-चार बेटे-बेटियों को जन्म देकर सासू, नानी या दादा-दादी होकर मिटने के लिए नहीं आये हैं| तमाम योनियों में भटकने सड़ने के बाद आप परम तृप्ति का अनुभव करने के लिए आये हैं।
मरो–मरो सब कोई कहे मरना न जाने कोई |
एक बार ऐसा मरो कि फिर मरना न होई ||
‘दशहरा’ माने दश पापों को हरने वाला| अपने अहंकार को, अपने जो दस पाप रहते है उन भूतों को इस ढंग से मारो कि आपका दशहरा ही हो जाय | दशहरे के दिन आप दश दु:खों को, दश दोषों को, दश आकर्षणों को जीतने की संकल्प करो|
अश्विनस्य सिद्धे पक्षे दशम्यां तारकोदये|
स कालो विजयगेहा सर्वकार्यार्थसिद्धये||
एक होती है आधिभौतिक सिद्धिप्रदता, दूसरी आधिदैविक और तीसरी होती है आध्यात्मिक| आपकी आध्यात्मिक सिद्धि भी हो. आधिदैविक सिद्धि भी हो। संसार में भी आप सतत विकास पाएं, उससे तृप्त हों|