वैदिक संस्कृति के प्रति पूर्णतया समर्पित और उसके लिए एक विशेष सपना लेकर चलने वाले ठाकुर विक्रम सिंह राष्ट्र निर्माण पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उन्होंने अपना जीवन वैदिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया है । इसी को वह राष्ट्र निर्माण का मूल सूत्र स्वीकार करते हैं । उनका कहना है कि वैदिक संस्कृति ही विश्व को एक परिवार के रूप में मानती रही है और यही इस संपूर्ण भूमंडल को एक परिवार बनाने में सक्षम भी है। पिछले दिनों ‘ उगता भारत ‘ के साथ विशेष बातचीत में श्री सिंह ने कुछ विशेष बातें कहीं । जिन्हें हम पाठकों के लिए यहां पर प्रस्तुत कर रहे हैं।
उगता भारत : आपने अपनी पार्टी का नाम राष्ट्र निर्माण पार्टी ही क्यों रखा ?
श्री सिंह : देखिए, भारत एक राष्ट्र प्राचीन काल से रहा है। कुछ लोगों ने हमारे बारे में यह भ्रांति फैलाने का प्रयास किया कि राष्ट्र नाम की चीज से भारत कभी परिचित नहीं रहा । हमारे राष्ट्र का विध्वंस करने के लिए यहां पर कई विदेशी शक्तियां आईं । जिनके रहते यहां पर राष्ट्र निर्माण नहीं हुआ , अपितु राष्ट्र का विनाश हुआ । 1947 के बाद से देश जिन हाथों में गया उन्होंने भी अंग्रेजों और मुगलों की बनाई गई राष्ट्र संबंधी धारणाओं के आधार पर इस देश को हांकने का प्रयास किया । मेरे मन में बचपन से ही इस प्रचलित व्यवस्था के विरुद्ध एक विद्रोह की भावना रही । यही कारण रहा कि मैंने अपने कृषि और ऋषि वाले राष्ट्र का निर्माण करने के लिए संकल्प लिया । वैदिक मूल्यों और वैदिक संस्कृति के आधार पर ही हम वास्तविक राष्ट्र निर्माण कर सकते हैं। यही कारण रहा कि मैंने अपनी पार्टी का नाम की राष्ट्र निर्माण पार्टी रखा।
उगता भारत : राष्ट्र के संबंध में आपने भारतीय संस्कृति में कौन से मूल्य देखे हैं ?
श्री सिंह : भारत श्रमदान की संस्कृति का देश है । यहां पर प्राचीन काल से ही राष्ट्र और समाज के निर्माण के लिए लोग स्वेच्छा से अपना श्रमदान करते थे । इसी को समाज सेवा के नाम से भी जाना जाता है । इस समाज सेवा में निस्वार्थ भाव होता है । यज्ञ की भावना होती है । भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मूलाधार यज्ञ – संस्कृति है , यज्ञीय भाव है । यज्ञ भावना को और श्रम दान की महत्वपूर्ण योजना को यदि भारतीय संस्कृति से निकाल दिया जाए तो कुछ भी नहीं बचेगा । भारत की संस्कृति यदि महान है तो उसका कारण यही है कि यहां पर लोग श्रमदान इसलिए करते हैं कि समाज और राष्ट्र की भावना सम्मानित होती रहे । इसी मूल्य को हम अपने देश के नागरिकों से आज विलुप्त होता हुआ देख रहे हैं । हम चाहते हैं कि श्रमदान और स्वयंसेवी विचार एक संस्कार के रूप में हमारे लोगों में फिर से पैठ बना ले। तभी इस देश का एक राष्ट्र के रूप में निर्माण हो सकता है।
उगता भारत : श्रमदान की है संस्कृति आज के संदर्भ में कैसे लागू हो सकती हैं ?
श्री सिंह : देखिए , प्राचीन काल में रोम जैसे साम्राज्य का इसलिए विनाश हुआ कि उस समय लोग सारे कामों के लिए राज्य पर केंद्रित हो गए । गली मोहल्ले तक के कामों के लिए भी जब लोग नगरपालिका या अपने जनप्रतिनिधि की ओर आश्रित होकर देखने लगते हैं तो समझिए कि उनके भीतर प्रमाद छा गया है । हमारे लोग गली मोहल्लों की सफाई स्वयं करते थे ।अपने घर के सामने नालियों की सफाई लोग स्वयं करते रहे हैं , कई लोग आज भी करते हैं । यह हमारा राष्ट्रीय संस्कार है । इसी राष्ट्रीय संस्कार को श्रमदान के रूप में राष्ट्रीय मान्यता मिलनी चाहिए । जब हर व्यक्ति अपने घर की सफाई , अपने घर के आसपास की सफाई और अपनी अधिकतम समस्याओं का समाधान अपने स्तर पर खोजने लगेगा तो तब वह स्वयं राष्ट्र का एक आवश्यक पुर्जा बन जाएगा और सारा राष्ट्र आत्मबल से भरकर स्वयंसेवी हो उठ खड़ा होगा । तभी भारत विश्व गुरु बनेगा।
उगता भारत : वैदिक संस्कृति को आप वर्तमान संदर्भ में कैसे राष्ट्र के लिए उपयोगी मानते हैं ?
श्री सिंह : वेद सृष्टि का आदि ग्रंथ है । वेद में वह सब बातें लिखी हैं जो मनुष्य जीवन के इहलोक और परलोक को उत्तम बनाने के लिए आवश्यक हैं । सारी व्यवस्था वेद के अंतर्गत निहित है । इस प्रकार वेद सृष्टि का पहला संविधान है । ईश्वर प्रदत्त इस संविधान में सृष्टि पर्यंत तक की सारी व्यवस्था को व्यवस्थित बनाए रखने का प्रावधान किया गया है । हमें इसी मानवीय संविधान के आधार पर देश को चलाना चाहिए । जिसमें ‘ सबका साथ – सबका विकास ‘ अंतर्निहित है और इसी अंतर्निहित संदेश को लेकर हमारे अनेकों सम्राट दिग दिगंत की यात्रा पर गए । आज हम उसी के आधार पर अपने देश को आगे बढ़ा सकते हैं।( शेष अगले अंक में )
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत