जब अंबेडकर ने अपनाया था बौद्ध मत
जय मनु महाराज जय मनुस्मृति !!!
(आज ही के दिन डॉ अम्बेडकर ने बौद्ध मत अपनाया था)
डा.अंबेडकर के शब्दों में:-
” मैं संस्कृत भाषा का पारंगत नहीं हूं तो अपनी इस कमजोरी को स्वीकार करता हूं। परंतु मेरी समझ में ये नहीं आता है कि इस कारण मुझे इस विषय पर बोलने के लिये अयोग्य कैसे माना जा सकता है? संस्कृत में ऐसा कौन सा साहित्य है जो अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध नहीं है। तब संस्कृत भाषा के ज्ञान का अभाव मुझे इस विषय पर अध्ययन करने से कैसे रोक सकता है ?
– सन्दर्भ -शूद्रों की खोज
डा.अंबेडकर ने मनुस्मृति के विषय में वेद विरोधी मैक्समूलर द्वारा संपादित और जार्ज बुहलर द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित मनुस्मृति के आधार पर लिखा जिसके कारण उन्हें अनेक भ्रांतियां हुयीं। यदि वो बुहलर के साथ/बजाय डा.गंगानाथ झा द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित और 1920-24 में प्रकाशित मनुस्मृति का अध्ययन करते तो भ्रांतियों के शिकार नहीं होते। ऐसा मानने का भी कोई कारण नहीं है कि अंबेडकर जैसे उत्कृष्ट विद्वान को डा. झा की पुस्तक की जानकारी ना हो। उनके द्वारा मनुस्मृति जलाने के पहले ही डा. झा की यह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी। इसका अध्ययन करने से उन्हें किसने रोका था ?
डा. अंबेडकर ने मैक्समूलर/बुहलर की अंग्रेजी की मनुस्मृति का अध्ययन किया तो अपनी तीव्र बुद्धि से इसमें की गयी मिलावटों को पकड़ने में कैसे नाकाम हो गये ? क्या किसी भाषा में कोई साहित्य बस पढ़ भर लेना पर्याप्त है ? आज के अंबेडकरवादियों की यह बात यदि मान भी ली जाये कि मनुवादियों ने डा.अंबेडकर को संस्कृत नहीं पढ़ने दी तो क्या उनको आर्य समाज , जिसके साथ डा.अंबेडकर के आजीवन मधुर संबंध रहे, ने भी उन्हें संस्कृत पढ़ने से रोका था ? क्या कभी डा.अंबेडकर ने आर्य समाज से संस्कृत पढ़ने की इच्छा जाहिर की थी ? कभी नहीं। ऐसा कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। यदि वो इच्छा जाहिर करते तो आर्य समाज सहर्ष उनकी इच्छा पूरी करता। लेकिन सत्य तो यह है कि ना तो उनके पास समय था संस्कृत पढ़ने का और संभवतया इसमें रुचि भी नहीं थी। इसलिये हिंदू धर्म ग्रंथों को समझने में विदेशियों द्वारा संपादित और अनुवादित ग्रंथों को ही पढ़ एक प्रकार से उनके ही विचारों का समर्थन किया। पुन: प्रश्न है किसी भी पुस्तक को केवल पढ़कर उसे अक्षरश: सत्य मान लेना ही क्या उचित है ? यदि ऐसा है तो शांतिदूतों और अन्य विवेकशील पुरूषों में क्या अंतर रह जायेगा ?
डा.अंबेडकर ने मनुस्मृति के 475 श्लोकों का लगातार प्रयोग किया है जिसमें लगभग 200 श्लोक तो केवल स्त्री, ब्राह्मण और शूद्रों से संबंधित हैं। इनमें से अधिकांश मिलावटी हैं। यह बात डा.अंबेडकर पकड़ नहीं पाये और चूक कर बैठे। जबकि डा.सुरेंद्र कुमार की पैनी शोधपरक दृष्टि से यह बात छिपी ना रह पायी। वो डा.अंबेडकर की तरह मनुस्मृति को संस्कृत भाषा में पढ़ भर लेने से संतुष्ट नहीं हुये। उन्होंने इसके अनेक संस्करण समग्रता से पढ़ने के बाद सात प्रकार के वैज्ञानिक आधार पर सभी श्लोकों का परीक्षण कर छप्पन प्रतिशत मिलावटी श्लोकों को हटाकर विशुद्ध मनुस्मृति संपादित की। यह विशुद्ध मनुस्मृति स्वायंभुव मनु की प्रतिज्ञानुसार पूर्णतया वेदानुकूल होने के कारण डा.अबेडकर के सभी आरोपों से मुक्त और प्रामाणिक है।
डा.अंबेडकर ने जो कुछ भी हिंदू धर्मग्रंथों के बारे में लिखा उसकी सत्यता और प्रामाणिकता को लेकर कभी हिंदू विद्वानों से सार्वजनिक मंच पर आमने-सामने की चर्चा नहीं की। भले ही व्यक्तिगत् रूप से बंद कमरे में विपक्षी विद्वानों की बात क्यों ना सुन ली हो। लेकिन उनके जाने के बाद मनुवादी शोषण से मुक्त सभी अंबेडकरवादी विद्वान आजतक सार्वजनिक चर्चा से क्यों परहेज किये हुये हैं ? श्रीनगर के पत्थरबाजों की तरह बस मनुस्मृति पर पत्थर मारकर तुरंत मूलनिवासी गलियों में भाग जाओ यही अंबेडकरवादियों का आचरण हो गया है। पत्थरबाज शांतिदूतों और अंबेडकरवादियों में कोई अंतर नहीं रह गया है।
-अरुण लवानिया