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महर्षि दयानंद सरस्वती के जीवन का प्रमुख संदेश – प्रखर बुद्धि वाद को अपनाएं

• महर्षि दयानंद सरस्वती का संदेश – वैज्ञानिक सोच (साइंटिफिक टेंपर) तथा प्रखर बुद्धिवाद को अपनाएं •

  • डॉ. भवानीलाल भारतीय
    दयानन्द ने जहां मानव की चिन्तन-शृंखला को नये आयाम दिये हैं, वहां उनके क्रांतिकारी चिन्तन का एक प्रमुख सूत्र बुद्धिवाद तथा मानवी विवेक को अपने कार्य-अकार्य का पथ-निर्देशक बनाना भी था। उनका पदे पदे यह उपदेश रहा कि परमात्मा ने इन्सान को विवेक दिया है, सद्-असद् को पहचानने की शक्ति दी है। उसे पाखण्डों, अंधविश्वासों तथा हानिकर रूढ़ियों से बचकर स्वस्थ, गरिमामय तथा स्वाभिमान युक्त जीवन जीने का सामर्थ्य दिया है। तब वह किसलिए अपनी बुद्धि और विचार शक्ति को ताक पर रख कर अंधानुकरण में प्रवृत्त हो मध्यकाल के अंधकारमय युग में जब वैदिक ज्ञान की प्रोज्ज्वल प्रकाशधारा अंधविश्वास और अंधश्रद्धा के तिमिर जाल से आच्छन्न हो गई थी, दयानन्द ने प्रत्येक बात को तर्क तुला पर तोलने का आग्रह किया और मनुष्य के विवेक को सर्वोपरि रखा।
    मध्यकाल में पनपे तथाकथित भक्तिवाद का यह अभिशाप था कि उसने कर्मण्यता, पुरुषार्थ, तथा संघर्षपूर्ण स्थितियों का सामना करने की अपेक्षा पलायनवाद, भाग्यवाद में तथा यथास्थितिवाद को प्रोत्साहन दिया। इसका स्पष्ट कारण था कि लोगों ने युक्ति एवं तर्क को तिलाजंलि देकर बाबा वाक्यं प्रमाणम् का रास्ता अपनाया जबकि पुरातन वैदिक चिन्तन प्रत्येक स्थिति में युक्ति एवं तर्कपूर्वक धर्म के अनुसंधान का समर्थन करता है। यास्क ने निरुक्त में तर्क को ऋषि की संज्ञा दी तथा स्मृतिकार मनु की स्पष्ट घोषणा थी कि जो तर्कपूर्वक धर्म का अनुसंधान करता है, वही धर्म के तत्त्व को जानता है। दयानन्द भी इसी युक्तिवाद तथा तर्कवाद के प्रबल पोषक थे। उनका स्पष्ट कथन है कि धर्म और धार्मिक परम्पराओं की जो बातें युक्ति एवं तर्क की कसौटी पर खरी उतरती हैं वे ही मान्य और आचरण के योग्य हैं। इसके विपरीत विज्ञान और सृष्टि क्रम के विरुद्ध मान्यतायें और आचरण कूड़ेदान में फेंकने के योग्य हैं।
    बुद्धिवाद और युक्तिवाद अथवा वैज्ञानिक सोच जैसे शब्दों के लिए दयानन्द का मुहावरा है – सृष्टिक्रम के अनुकूल होना। उनकी दृष्टि में जो कथन और मान्यताएं सृष्टि के शाश्वत नियमों के अनुकूल हैं, जिन्हें वैज्ञानिक तथ्यों से पुष्ट एवं प्रमाणित किया जा सकता है वे ही मान्य हैं, स्वीकार करने तथा आचरण करने के योग्य हैं। इसी कसौटी को काम में लाकर उन्होंने न केवल प्रचलित हिन्दू धर्म में मान्य पौराणिक देवगाथावाद से सम्बद्ध चमत्कार मूलक, अवैज्ञानिक तथा अविश्वास योग्य विश्वासों, विचारों तथा घटनाओं को ख़ारिज कर दिया अपितु बौद्ध, जैन, ईसाइयत तथा इस्लाम सम्प्रदाय में उल्लिखित विज्ञान विरुद्ध अंध धारणाओं तथा मत-विश्वासों को भी अमान्य ठहराया।
    ध्यान रहे कि दयानन्द ने जिसे सृष्टिक्रम के अनुकूल होना बताया था, उसे वर्तमान युग में वैज्ञानिक सोच (Scientific thinking) का नाम दिया गया है। वर्तमान विश्व-सभ्यता को इस बात का गर्व है कि वह विज्ञान के सत्य को महत्त्व देती है तथा विश्व मानव में सतर्क चिन्तन तथा विज्ञानाधारित मान्यताओं को अपनाने की वकालत करती है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू को चाहे नास्तिक कहें या आस्तिक, एक बात के लिए उनकी प्रशंसा करनी होगी कि वे स्वदेशवासियों में इसी वैज्ञानिक सोच तथा युक्ति सिद्ध तार्किकता को फलता-फूलता देखना चाहते थे। यह दुर्भाग्य रहा कि उनके बाद के राष्ट्रनेता अंधविश्वासों के अंधकूप से न स्वयं को बचा पाये और न जनता का स्वस्थ मार्गदर्शन कर पाये। ऐसे अंध विश्वास ग्रस्त नेता सदा पण्डे पुजारियों, ज्योतिषियों और बाबाओं के जाल में फंसे रहे और मसजिदों, मकबरों, जलाशयों और देवालयों में धक्के खाते रहे। वे ज्योतिषियों के मुहूर्तों तथा मठाधीशों के भविष्यकथनों में विश्वास कर अपनी गद्दी को सुरक्षित समझते रहे।
    धार्मिक अंध विश्वासों और तर्क विरुद्ध मान्यताओं का खण्डन करने में दयानन्द ने किसी मत-पंथ, पण्डे पुजारी, मुल्ला-मौलवी या पादरी और धर्माध्यक्ष को नहीं बख्शा। सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास के आरम्भ से चौदहवें समुल्लास पर्यन्त उनका तर्क कुठार उन सब पाखण्डों, अंधविश्वासों तथा मूढ़ विश्वासों को धराध्वस्त करता चलता है जो मानव के सहज, सरल तथा प्रशस्त जीवन पथ को पदे पदे कण्टकाकीर्ण, विषम, भयावह तथा नरक तुल्य बनाने पर उतारू हैं। स्वामी दयानन्द ने यह ध्यान रखा कि अवैज्ञानिक बातों तथा तर्क विरुद्ध माया जाल को गूंथने में उन पाखण्ड प्रिय लेखकों की भी महती भूमिका रही है जो हमारे महापुरुषों को अवतारों की श्रेणी में लाकर उनके सहज तथा स्वाभाविक जीवन के इर्द गिर्द चमत्कारपूर्ण कथानकों तथा अविश्वसनीय बातों के कुहक का सृजन करते रहे हैं। ऐसे ही अन्य देशीय मत-पंथों के लोगों ने नबियों, पैगम्बरों तथा कथित देवदूतों को लेकर असम्भव कल्पनाएं की हैं। अधिक दूर क्यों जायें -भारतीय नवजागरण के शिखर तुल्य परमहंस रामकृष्ण तथा स्वामी विवेकानन्द के क्रिया कलापों को भी चमत्कारों तथा अविश्वसनीय कथाओं से ढंक दिया गया है। (द्रष्टव्य – सत्येन्द्रनाथ मजूमदार लिखित विवेकानन्द चरित)
    आश्चर्य तो यह है कि आज की नवशिक्षित तथा उच्चतर ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा प्राप्त पीढ़ी भी अंध-विश्वासों के दुष्चक्र से स्वयं को उबार नहीं पाई है। तभी तो हम देखते हैं कि जुमेरात (गुरुवार) के दिन पढ़े लिखे डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर तथा तकनीक कुशल वैज्ञानिक फ़कीरों से अपना भाग्य पूछते हैं, शताब्दियों पहले भूमिस्थ हुए औलियाओं और फ़कीरों से आशीर्वाद की याचना करते हैं। कैथोलिक रस्मोरिवाज में पली बढ़ी नेत्रियां चुनाव में सफलता की चाहना को लेकर कुम्भ के अवसर पर गंगा में गोता लगाती हैं। पुष्कर तीर्थ और गुजरात की अम्बा माता के मंदिर में सिर नवाती हैं, किसी फ़कीर की दरगाह में सिज़दा करती हैं जिसके जीवन और इतिहास का उन्हें कोई अता पता नहीं होता। ऐसे में स्वामी दयानन्द द्वारा उपदिष्ट बुद्धिवाद तथा विवेक का पाठ क्या सम्पूर्णतया प्रासंगिक नहीं है?
    [स्रोत : ऋषि दयानंद का क्रांतिकारी चिंतन, पृष्ठ 29-32, प्रकाशक : सरस्वती साहित्य संस्थान दिल्ली, प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा]

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