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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भाग – 408[हिंदवी स्वराज के संस्थापक शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी पुस्तक से ….] इतिहास, इतिहासकार और छत्रपति शिवाजी – अध्याय- 6

मेरा भारत कितना महान है? तनिक इस पर विचार कीजिए-

‘झुकता सारा विश्व था अपने भारतवर्ष को।
ज्ञान प्राप्ति के लिए था पुकारता भारतवर्ष को ।।
उसे शांति मिलती थी सदा हिंद की आगोश में।
किंचित नैराश्य भाव था नहीं जिसके शब्दकोश में।।’

भारत के इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने का कार्य कांग्रेस और कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने किया है। इन दोनों ने मिलकर हमारे इतिहास के उस गौरवशाली सत्य, तथ्य और कथ्य को हमारी दृष्टि से ओझल करने का हर संभव प्रयास किया, जिससे हमारे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बल मिलता। इस अध्याय में हम कुछ ऐसे ही तथ्यों पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे, जिनसे पता चलता है कि हमारे इतिहास के साथ इन शत्रुभाव रखने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने कितना अन्याय किया है? और उस अन्याय का स्वयं छत्रपति शिवाजी महाराज भी कितना अधिक शिकार हुए हैं?

विश्व के विद्वानों ने अब इस बात को स्वीकार कर लिया है कि चाहे भौतिक विज्ञान हो और चाहे अध्यात्मिक विज्ञान या ब्रह्मविज्ञान हो, इन सबकी ऊँचाइयों को सबसे पहले भारत ने छुआ। इसके अतिरिक्त चाहे तकनीकी का क्षेत्र हो, चाहे ब्रह्मांड के रहस्यों का पता लगाने की बात हो, चाहे धर्म के सिद्धांतों के पालन की बात हो और चाहे आत्मिक उन्नति के माध्यम से और योग बल के द्वारा मुक्ति को पाने की युक्ति हो, सभी के क्षेत्र में भारत ने ही विश्व का नेतृत्व किया है। परंतु हमारे ही देश के इतिहासकारों ने जब अपने ही देश का इतिहास लिखा तो उनकी दृष्टि में भारत के गौरवपूर्ण अतीत के संबंध में उल्लिखित उपरोक्त सभी तथ्य गौण हो गए-

वामपंथी इतिहासकारों ने किया सारा घालमेल
‘उद्यम किया गया है यहाँ इतिहास के बिगाड़ का।
है वामपंथ ने ठेका लिया भारत के विनाश का।।
सारी परिभाषाएँ बदल दीं बदल दीं सब परंपरा।
निज भाषा दे इतिहास को बदल दिए हैं जल, हवा ।।’

देश के स्वाधीन होने के पश्चात जब भारत के इतिहास लेखन की बात आई तो कांग्रेस और वामपंथियों की मिलीभगत से भारत के इतिहास लेखन का कार्य वामपंथियों को दे दिया गया। जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत के इतिहास के गौरवपूर्ण तथ्यों को विस्मृत करने का अक्षम्य अपराध किया। उन्होंने भारत के स्वर्णिम इतिहास को विकृत करना आरंभ किया। इस कार्य में कांग्रेस के बड़े नेता और देश के पहले प्रधानमंत्री रहे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया और अपने वामपंथी मित्र इतिहासकारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भारत के अतीत को कम करके आंकने का प्रयास किया। नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में महाराणा प्रताप की अपेक्षा अकबर को महान सिद्ध करने का प्रयास किया है। इन लोगों की दृष्टि में इस्लाम और ईसाइयत दोनों ही प्रगतिशील मजहब के रूप में मान्यता रखते हैं। जबकि भारत का सनातन धर्म रूढ़िवादिता के जंजाल में फंसा हुआ एक ऐसा धर्म है जो व्यक्ति की प्रगति में बाधक है। अतः उनके लिए सनातन धर्म की सनातन परंपराएं रूढ़िवाद से अधिक कुछ भी नहीं हैं, जबकि इस्लामिक और ईसाइयत की कट्टरता को ये प्रगतिशीलता के नाम पर विस्मृत करने का प्रयास करते हैं। यही इनकी धर्मनिरपेक्षता है और इसी धर्मनिरपेक्षता की नीति ने भारत को पिछले 72 वर्ष से अधिक के कालखंड में बहुत अधिक दुखी किया है।

कांग्रेसियों और वामपंथियों की इसी मिलीभगत के कारण स्वाधीनता संग्राम में अपना सर्वस्व होम करने वाले लाखों क्रांतिकारियों की घोर उपेक्षा ही नही की गयी, अपितु उन्हें आतंकवादी, उग्रवादी और हिंसा में विश्वास रखने के कारण मानवता का हत्यारा सिद्ध करने तक के विशेषण देकर संबोधित किया गया। फलस्वरूप उन राष्ट्रभक्तों को इतिहास में उपयुक्त स्थान ही नहीं दिया गया।

स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय इतिहास लेखन के माध्यम से भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में कांग्रेस के कार्यों को महिमामंडित करने के लिए सरकारी स्तर पर एक इतिहास लेखन की योजना बनी। यह कार्य भारत के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. आर. सी. मजूमदार को दिया गया। डॉ. आर. सी. मजूमदार के बारे में कांग्रेस और कांग्रेस के नेताओं को यह ज्ञात नहीं था कि वह एक राष्ट्रवादी लेखक हैं और इसलिए वह उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाएंगे। अतः डॉ. आर. सी. मजूमदार इतिहास को इतिहास के तथ्यों के अनुरूप जब लिखने लगे तो उन्होंने नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे इतिहास नायकों को भी इतिहास में उचित स्थान देने का अभिनंदनीय कार्य करना आरम्भ किया। इतिहास लेखन की प्रक्रिया के बीच में जब पं. नेहरू को जानकारी मिली कि डॉ. मजूमदार के द्वारा इसमें सुभाषचन्द्र बोस को महत्वपूर्ण स्थान दिया जा रहा है तो तत्काल डॉ. मजूमदार से यह योजना छीन ली गई। कांग्रेस की सरकार ने डॉ. मजूमदार को अपमानित करते हुए इतिहास लेखन का यह महत्वपूर्ण कार्य अपने चाटुकार डॉ. ताराचन्द को दे दिया, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे थे। डॉ. ताराचंद अपने हिंदू विरोधी स्वभाव के कारण उक्त विश्वविद्यालय में जाने जाते थे। उनके छात्र उन्हें मियां ताराचंद कहकर पुकारते थे। जिस पर मियां ताराचंद को हार्दिक प्रसन्नता होती थी। अतः स्पष्ट है कि कांग्रेस के लिए डॉ. आर. सी. मजूमदार भारतीय इतिहास लेखक नहीं हो सकते थे, उनके लिए मियां ताराचंद ही भारतीय इतिहास लेखक हो सकते थे, जो मुगलों के “महान कार्यों’ के दीवाने थे। फलस्वरूप मियां ताराचंद के द्वारा जो इतिहास लिखा गया, उसमें मुगलों के ‘महान कार्यों’ का उल्लेख करते हुए उनका गुणगान किया गया और भारत के इतिहास में महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसे महान नक्षत्रों को कम करके आंका गया।

27 मई, 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के पश्चात कुछ समय के लिए देश के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री रहे, परंतु उनका कार्यकाल अति संक्षिप्त था। यद्यपि वह महान राष्ट्रवादी व्यक्ति थे, परंतु उन्हें इतिहास के संबंध में कुछ करने का अवसर नहीं मिला। इससे पहले कि वह कुछ कर पाते उन्हें नियति ने हमसे छीन लिया। 11 जनवरी, 1966 को उनकी मृत्यु के पश्चात 24 जनवरी, 1966 को देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी बनीं जो कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुत्री थीं। उन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही इतिहास लेखन के संबंध में अपने पिता की नीतियों को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सन् 1971 में कांग्रेस के विभाजन के पश्चात वामपंथी दलों से समझौता किया और कट्टर वामपंथी विचारधारा वाले डॉ. नूरुल हसन को केन्द्रीय शिक्षा राज्यमंत्री का पद सौंपा। डॉ. नुरुल हसन को मिला यह मंत्री पद पर्दे के पीछे किए गए एक षड्यंत्र का परिणाम था, जिसके कुपरिणाम देश को बाद में भोगने पड़े।

शिक्षा राज्य मंत्री बनने के तुरंत पश्चात डॉ. नुरुल हसन ने भारत के स्वर्णिम अतीत को मिटाने का बीड़ा उठा लिया। उनकी दृष्टि और दृष्टिकोण में भारत के उस अतीत को मिटा देना प्राथमिकता हो गई थी जो इस देश के बहुसंख्यक समाज को गौरवमयी प्रेरणा से भरने की क्षमता रखता था। डॉ. हसन ने तुरंत कांग्रेस सरकार को ढाल बनाकर प्राचीन हिन्दू इतिहास तथा पाठ्य पुस्तकों के विकृतिकरण का कार्यारंभ कर दिया।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का योगदान

भारत के तथाकथित इतिहास लेखन को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने शिक्षा दी थी, वहीं से उनके भीतर भारत विरोध और हिंदू विरोध दोनों को मिलाकर धर्मनिरपेक्षता का वह भाव गहराई से बैठ गया था जो इस देश की जड़ों को खोदने का कार्य करता रहा है। वामपंथी इतिहासकारों व लेखकों को एकत्रित कर डॉ. नुरुल हसन भारत की जड़ों को खोदने के अपने ‘महान कार्य’ में जुट गये। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने इनके भीतर हिंदू विरोध के जिन संस्कारों को गहराई से स्थापित कर दिया था, अब उनके पुष्पित व पल्लवित होने का समय आं गया था। फलस्वरूप इन्होंने भारत के गौरवमयी अतीत को मिटाने और अपने मनमाने ढंग से भारत के इतिहास के लेखन का कार्य करना आरंभ किया। सभी शिक्षण अकादमियों में वामपंथी इतिहासकारों, लेखकों और तथाकथित विद्वानों को स्थान दिया गया और उन्हें इस कार्य में लगा दिया गया कि तुम्हें भारत की आत्मा को नष्ट करना है। इसका परिणाम ये हुआ कि इन सभी ने भारत का पूरा इतिहास ही वामपंथी विचारधारा के अनुरूप लिखने की पूरी योजना बना डाली। इंदिरा गांधी के शासनकाल में किए गए इतिहास लेखन के इस कार्य को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से 1972 में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का गठन किया गया। जिसमें इन इतिहासकारों के माध्यम से भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की घोषणा कर दी गई। सुविख्यात इतिहासकार यदुनाथ सरकार, रमेश चंद्र मजूमदार तथा श्री जीएस सरदेसाई जैसे सुप्रतिष्ठित इतिहासकारों के लिखे ग्रंथों को नकार कर नये सिरे से इतिहास लेखन का कार्य इसलिए किया गया कि इन वामपंथी को सरकार और डॉ. आर.सी. मजूमदार जी के समर्थक थे उसे ये लोग अपनी बड़ी बाधा समझते थे। इन इतिहास कराया गया। यह कार्य केवल वेद्वानों की दृष्टि में यदुनाथ खक भारत के जिस राष्ट्रवाद भारत में लागू करने में सबसे भारत में मुस्लिम सुल्तानों और बादशाहों को भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने वाला शासक घोषित करने का प्रयास किया। उन्होंने यह तथ्य भी स्थापित करने का प्रयास किया कि भारत में राष्ट्रीय एकता को लाने वाले यदि कोई शासक थे तो वह मुस्लिम सुल्तान और बादशाह ही थे, उससे पहले राष्ट्रवाद जैसी विचारधारा को भारत में कोई जानता ही नहीं था। अतः भारत के लोगों को इन मुस्लिम सुल्तानों और बादशाहों के इस महान कार्य के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने भारत में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने का सराहनीय कार्य किया। फलस्वरूप इन इतिहास लेखकों के द्वारा यह घोषणा की गई कि इतिहास और पाठ्यपुस्तकों से वे अंश हटा दिये जाएंगे जो राष्ट्रीय एकता में बाधा डालने वाले और मुसलमानों की भावना को ठेस पहुँचाने वाले लगते हैं।

डॉ. नुरुल हसन ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भाषण करते हुए अपनी इतिहास लेखन की योजना पर प्रकाश डालते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि वह भारत की राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में यह उचित नहीं मानते कि तुर्कों और मुगलों के अत्याचारों और हिंदू विरोधी आचरण को इतिहास में स्थान दिया जाए। उन्होंने कहा कि महमूद गजनवी, औरंगजेब आदि मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दुओं के नरसंहार एवं मंदिरों को तोड़ने के प्रसंग राष्ट्रीय एकता में बाधक हैं। अतः उन्हें नहीं पढ़ाया जाना चाहिए। वामपंथियों ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महान सेनानी स्वातंर्त्यवीर सावरकर और सुभाषचंद्र बोस जैसे अनेकों क्रांतिकारियों के साथ घोर अन्याय करने का व्रत ले लिया। उन्होंने वीर सावरकर पर अंग्रेजों से क्षमा मांगकर अण्डमान के काला पानी जेल से रिहा होने जैसे निराधार आरोप लगाये और उन्हें वीर न कहकर कायर बताने की धृष्टता की। कांग्रेसी सरकारों के मिल रहे संरक्षण के कारण वामपंथी इतिहास लेखक अपनी इस धृष्टता को करते गए और सरकार उस पर अपनी सहमति की मुहर लगाती चली गई।

वामपंथी इतिहासकारों के इतिहास लेखन कुपरिणाम यह हुआ कि हमारे आज के युवाओं को भारत के राम और कृष्ण जैसे महानायक काल्पनिक लगने लगे। वेद उन्हें ग्वालों के गीत जान पड़ने लगे और भारत का पूरा वांग्मय झूठ, गप्प और काल्पनिक तथ्यों से भरा हुआ दिखाई देने लगा। इससे पता चलता है कि वामपंथी इतिहासकार भारत को भारत से ही काटने में सफल होते चले गए और भारत के स्थान पर 'इंडिया' बसाने कि उनकी योजना भी फलीभूत होने लगी। दरबारी कवि दरबारी लोगों की चापलूसी व चाटुकारिता में यदि किसी कविता का निर्माण करें और वहां से पुरस्कार प्राप्त कर घर लौट आएं तो कुछ समझ में आता है कि कंवि अपनी लेखनी का सौदा अपने पेट के लिए कर सकता है, परंतु देश का इतिहासकार देश के इतिहास के साथ घोर अपराध और अन्याय करते हुए अपनी आत्मा का सौदा कर दे, यह केवल भारत में संभव हुआ है।

इतिहास के विकृतिकरण के कुछ उदाहरण

भारत के इतिहास के लेखन में लगे इन शत्रु इतिहास लेखकों ने भारत के इतिहास के तथ्यों के साथ कितना खिलवाड़ और भारत की आत्मा के साथ कितना अन्याय व अत्याचार किया है? अब इसके कुछ उदाहरणों पर हम प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे। यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि इन शत्रु इतिहास लेखकों के इस प्रकार के षड्यंत्र से स्वयं शिवाजी महाराज भी बच नहीं पाए हैं।

इन इतिहास लेखकों की मान्यता रही है कि वैदिक काल में विशिष्ट अतिथियों के लिए गो मांस का परोसा जाना सम्मान सूचक माना जाता था। वैदिक संस्कृति को अपमानित करने के दृष्टिकोण से ऐसा तथ्य कक्षा 6 की पाठ्यपुस्तक में वामपंथी इतिहास लेखिका डॉ. रोमिला थापर द्वारा स्थापित किया गया। जिसे भारत सरकार ने अपनी मान्यता दी। यही कारण है कि वामपंथी इतिहास लेखिका डॉ. रोमिला थापर की इस मान्यता के विरोध में आज तक कोई प्रतिक्रिया भारत सरकार की ओर से नहीं आई।

डॉ. रोमिला थापर ने कक्षा 7 की ‘मध्यकालीन भारत’ नामक पाठ्य पुस्तक के पृष्ठ 28 पर अपनी यह मान्यता भी अंकित की है कि महमूद गजनवी ने मूर्तियों को तोड़ा और इससे वह धार्मिक नेता बन गया।

कक्षा 8 के सामाजिक विज्ञान भाग-1, ‘आधुनिक भारत’ पृष्ठ-166, लेखक अर्जुन देव तथा इंदिरा अर्जुन देव के द्वारा यह तथ्य स्थापित किया गया कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम एक सैनिक विद्रोह था। 1857 की क्रांति को इन इतिहास लेखकों ने कभी भी क्रांति नहीं माना और ना ही उसे भारतीय लोगों का स्वतंत्रता संग्राम घोषित करने का प्रयास किया। इससे पता चलता है कि इनके भीतर कितना द्वेष भाव रहा है? यह भारत की वीरता, पौरुष और राष्ट्रभक्ति को सदा ही उपेक्षित करने का अक्षम्य अपराध करते रहे हैं।

‘प्राचीन भारत’ पृष्ठ-101, कक्षा 11 के लेखक रामशरण शर्मा ने महावीर स्वामी को अपमानित और उपेक्षित करने के दृष्टिकोण से अपनी ओर से एक तथ्य इतिहास में स्थापित किया कि महावीर 12 वर्षों तक जहाँ-तहाँ भटकते रहे। 12 वर्ष की लम्बी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले।

42 वर्ष की आयु में उन्होंने वस्त्र का एकदम त्याग कर दिया। इसी इतिहास लेखक ने यह भी अपनी ओर से ही उक्त पुस्तक में लिख दिया कि तीर्थंकर, जो अधिकतर मध्य गंगा के मैदान में उत्पन्न हुए और जिन्होंने बिहार में निर्वाण प्राप्त किया, की मिथक कथा जैन सम्प्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए गढ़ ली गई।

जिन इतिहास लेखकों की लेखनी मुस्लिम नवाबों, सुल्तानों, बादशाहों और सेनापतियों के अत्याचारों को लिखने में संकोच करती रही, उन्होंने भारत के ही वीर योद्धा और इतिहासनायकों को अपमानित करने के दृष्टिकोण से कुछ भी लिख डालने का साहस कर दिखाया। कक्षा 12, ‘आधुनिक भारत’ पृष्ठ 18-19 पर विपिन चंद्र लिखते हैं कि जाटों ने, गरीब हो या धनी, जागीरदार हो या किसान, हिन्दू हो या मुसलमान, सबको लूटा। यही इतिहासकार उपरोक्त पुस्तक के पृष्ठ संख्या 20 पर लिखता है कि महाराजा रणजीतसिंह अपने सिंहासन से उतरकर मुसलमान फकीरों के पैरों की धूल अपनी लम्बी सफेद दाढ़ी से झाड़ता था। किसी इतिहासकार ने आर्य समाज जैसी राष्ट्रवादी और पवित्र संस्था को भी अपने द्वेष भाव से पूरित लेखन का शिकार बनाने का प्रयास किया उसने कक्षा 12 की उपरोक्त पुस्तक के पृष्ठ संख्या 183 पर लिखा है कि-
आर्य समाज ने हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों, सिखों और ईसाइयों के बीच पनप रही राष्ट्रीय एकता को भंग करने का प्रयास किया।

उपरोक्त पुस्तक के ही पृष्ठ संख्या 208 पर उक्त लेखक ने अपनी मनमानी करते हुए यह भी लिख दिया है कि तिलक, अरविन्द घोष, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपतराय जैसे नेता उग्रवादी तथा आतंकवादी थे। इस प्रकार के मिथ्या आरोपों से हमें अपने इतिहासबोध से तो वंचित होना ही पड़ा, साथ ही अपने इतिहास नायकों को भी हम उनके यथार्थ स्वरूप में समझने में असफल रहे।

आर.एस. शर्मा नामक इतिहासकार ने कक्षा 11 की ‘मध्यकालीन इतिहास’ नामक पुस्तक के पृष्ठ संख्या 107 पर अपनी यह मनमानी टिप्पणी लिख डाली है कि 400 वर्ष ईसा पूर्व अयोध्या का कोई अस्तित्व नहीं था। महाभारत और रामायण कल्पित महाकाव्य है। ‘मध्यकालीन भारत’ के पृष्ठ संख्या 316 पर इतिहास लेखक प्रोफेसर सतीश चंद्र ने लिखा है कि औरंगजेब एक महान जिंदा पीर थे।

‘मध्यकालीन भारत’ नामक पुस्तक की इतिहास लेखिका रोमिला थापर, उक्त पुस्तक के पृष्ठ संख्या 245 पर लिखती हैं कि राम और कृष्ण का कोई अस्तित्व ही नहीं था। वे केवल काल्पनिक कहानियाँ हैं।

रोमिला थापर जैसी इतिहास लेखिका ने मुस्लिम शासकों के अत्याचारों को मिटाने या उन्हें अपेक्षा से अधिक हल्का करने का कार्य इतिहास में किया है। फलस्वरूप उनके द्वारा रचित इतिहास की पुस्तके में इतिहास अपनी भाषा में हमसे बात नहीं कर पाता अपितु उस पर उनके द्वारा दी गई भाषा हम पर हावी प्रभावी होने लगती है। जिससे पाठकों को इतिहास के सही तथ्यों का पता नहीं चल पाता। इस प्रकार के अतार्किक प्रयासों के चलते भारत की वर्तमान युवा पीढ़ी अपने इतिहास बोध से परिचित नहीं हो पाई है। इन इतिहास लेखकों के माध्यम से उनके भीतर ऐसे संस्कार आरोपित कर दिए गए हैं कि भारत में जितने भी विदेशी आक्रामक आए, वह सब इस देश की बर्बरता और इस देश के लोगों की अज्ञानता, अशिक्षा, भुखमरी आदि को दूर करने के दृष्टिकोण से यहाँ आए और यहाँ आकर शासन करने लगे। जिसका परिणाम यह निकल रहा है कि कुछ युवा अब यह प्रश्न करने लगे हैं कि जब अंग्रेज और उनसे पूर्व के लोगों ने ही भारत में सब कुछ किया है अर्थात जितनी उन्नति आज हमें दिखती है उस सब के मूल में अंग्रेजों का विज्ञानवाद ही था तो फिर उन्हें यहाँ से भगाने की क्या आवश्यकता थी ? अर्थात उन्हें यहाँ पर ही रहने देना चाहिए था। उन युवाओं का पूछने का ढंग कुछ इस प्रकार का होता है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह हमारे उन क्रांतिकारियों व स्वतंत्रता सेनानियों को एक प्रकार से अपशब्द बोल रहे हैं जिन्होंने अंग्रेजों को यहाँ से भगाने का कार्य किया था। उनकी दृष्टि में अंग्रेजों को यहाँ रहना चाहिए था तभी भारत और भी अधिक उन्नति कर पाता।

वामपंथी इतिहासकारों की दृष्टि में छठी कक्षा के बच्चों को यह पढ़ाना बहुत आवश्यक लगता है कि आर्य बाहर से आये थे और वैदिककाल में गौ मांस खाया जाता था जबकि वैदिक साहित्य में गौ को ‘अघन्या’ कहा गया है।

इन्होंने मुगल शासक अकबर, औरंगजेब आदि आक्रमणकारियों को विशुद्ध राष्ट्रवादी बताकर पहली श्रेणी में रखा तथा महाराणा प्रताप, शिवाजी जैसे देश के रक्षकों को बहुत सीमित अर्थों में राष्ट्रवादी कहकर दूसरी श्रेणी में रखा। इन इतिहास लेखकों की दृष्टि में शिवाजी एक पहाड़ी चूहा थे, जो औरंगजेब जैसे सहृदयी बादशाह के विशाल साम्राज्य की चादर को कुतरने का कार्य कर रहे थे। उनकी दृष्टि में इस पहाड़ी चूहे का यह कार्य एक अक्षम्य अपराध था। ऐसा करके शिवाजी राष्ट्रवाद की अलख न जगाकर भारत में राष्ट्रवाद की नींव रखने वाले औरंगजेब जैसे बादशाहों के साथ घोर अन्याय कर रहे थे। अतः उनके साथ बादशाह औरंगजेब की ओर से जो कुछ किया गया वह न्याय संगत, तर्कसंगत और बुद्धिसंगत ही था।

शासक के गुण और मुगल बादशाह

भारत के विद्वानों ने प्राचीनकाल से ही ऐसे शासकों को ही राजा के योग्य माना है जो किसी भी प्रकार से व्यसनी और विलासी नहीं होते थे, जो भोग और विलास से दूर रहते थे तथा प्रजावत्सल होकर जनसेवा को अपना जीवनध्येय घोषित करते थे। वह मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित होते थे और उच्च गुणों से सुशोभित होने के कारण जनता के प्रति अपने कर्तव्य भाव को समझकर राज्य सिंहासन के उत्तराधिकारी बनते थे। जबकि मुगलों के समय तक आते-आते भारत की यह सारी परंपरा नष्ट होकर रह गई। मुगलों और मुस्लिम बादशाहों ने व्यक्ति के व्यक्तिगत गुणों को या शासक के भीतर मानवीय गुणों को कभी प्राथमिकता नहीं दी। कामी, क्रोधी, व्यभिचारी और अनैतिक गुणों के पुंज किसी भी शासक को उन्होंने इन सब अवगुणों के होने के उपरांत भी शासक होने के अयोग्य नहीं माना। इसी बात को हमारे देश के इतिहासकारों ने भी अपनी स्वीकृति और सहमति प्रदान की। यही कारण रहा कि उन्होंने मुगलों के समय में हुए सभी बादशाहों के अवगुणों को उपेक्षित कर उन्हें मानवतावादी सिद्ध करने का अतार्किक प्रयास किया। वामपंथियों की यह इतिहास की अपने ढंग से की गई व्याख्या है। उन्होंने इतिहास को इतिहास की भाषा में नहीं बोलने दिया, अपितु उस पर अपनी भाषा कर लेपन लगा दिया।

इन वामपंथी इतिहास लेखकों ने ऐसे राष्ट्रवादी मुस्लिम सेनापतियों या अन्य दूसरे प्रभावशाली लोगों को या राजकुमारों को भी अपनी उपेक्षा का पात्र बनाया जो मुस्लिम होकर इस देश के प्रति सम्मान का भाव रखते थे या इसकी संस्कृति से प्रेम करते थे। उन्होंने उन लोगों को भी उपेक्षा का पात्र बनाया जो मुस्लिम होकर भारतीय लोगों के प्रति प्रेमभाव रखते थे। जैसे दाराशिकोह और हसन खान मेवाती जैसे लोगों को इन्होंने वह सम्मान नहीं दिया जिसके वह पात्र थे। ये लोग इतिहास लेखन के माध्यम से राष्ट्रवाद की या राष्ट्रीय एकता के जिस भाव को इतिहास के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत करना चाहते हैं उसके लिए यह उचित होता की दारा और हसन खान मेवाती जैसे लोगों को यह सम्मान देकर इतिहास में महिमामंडित करते।

हसन खान मेवाती के विषय में हमें स्मरण रखना चाहिए कि स्वेदश की रक्षा के लिए उसने राणा सांगा की सेना में भाग लिया था और अपने पुत्र नाहर खां को बाबर द्वारा बन्धक बना लिए जाने के उपरांत भी देश के प्रति अपने कर्तव्यभाव से मुंह नहीं फेरा था।

इसके विपरीत बाबर के अफीमची पुत्र हुमांयू को भारत से किंचित मात्र भी लगाव नहीं था। वह छोटी-मोटी विजय के पश्चात उत्सवों तथा विलासिता में डूब जाता था और बार-बार ईरान की ओर भागता था। इसके उपरांत भी वह एक प्रगतिशील धर्म का अनुयायी होने के कारण भारत के लिए इतिहास नायक है।

मुगलों का तीसरा साम्राज्यवादी शासक अकबर था। स्मिथ के अनुसार उसमें राष्ट्रीयता की एक बूंद तक नहीं थी। वह अफीम मिली शराब का व्यसनी था तथा उसके नशे में धुत रहता था। अबुल फजल के अनुसार उसके हरम में 3000 महिलाएँ थीं। साम्राज्य के विस्तार में वह तैमूर लंग की भांति नृशंस हत्याएँ, क्रूरता तथा छल-कपट में जरा भी नहीं हिचकता था। विशेषकर हेमचन्द्र विक्रमादित्य, महारानी दुर्गावती तथा महाराणा प्रताप के साथ संघर्ष उसके कलंकित चरित्र को सामने लाते हैं।

विचारणीय व गंभीर प्रश्न यह है कि भारतीय राष्ट्रीयता का प्रतीक साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षी अकबर है या देशाभिमान पर शहीद होने वाली रानी दुर्गावती, अथवा भारतीय स्वतंत्रता के लिए मर मिटने वाले हेमचन्द्र विक्रमादित्य या देश की आजादी के लिए जंगलों में भटकने वाले महाराणा प्रताप।

सारे तथ्यों की उपेक्षा कर इन इतिहास लेखकों ने भारत के प्रति शत्रुता का भाव रखने वाले अकबर जैसे विदेशी बादशाहों को भारत के लिए सौभाग्य का प्रतीक माना है और भारत के प्रति भक्तिभाव रखने वाले महाराणा प्रताप, रानी दुर्गावती और उन जैसे अन्य अनेकों देशभक्तों को अपनी उपेक्षा का पात्र बनाया है।

ये इतिहास लेखक आज तक भी स्पष्ट नहीं कर पाए हैं कि राष्ट्र का प्रेरक चित्तौड़ में 30,000 हिन्दुओं का नरसंहार करने वाला अकबर है या उस महाराणा प्रताप का संघर्षमय जीवन, जिन्होंने मुगलों की अजेय सेनाओं को नष्ट कर दिया था? वास्तव में इतिहासनायक वह होता है जिसके जीवन से उसके समकालीन पीढ़ी के लोग ही नहीं, अपितु आने वाली पीढ़ियों के लोग भी प्रेरणा लेते रहें और अपने देश, धर्म व संस्कृति की रक्षार्थ अपने प्राणों को न्यौछावर करने के लिए प्रेरित और उत्साहित होते रहें। अकबर ने इस देश में रहकर एक भी ऐसा कार्य नहीं किया जिससे उसकी समकालीन पीढ़ी के या उसके बाद की पीढ़ी के लोग प्रेरणा ले सकें। जबकि महाराणा का संपूर्ण जीवन ही देशभक्ति से ओतप्रोत रहा। अतः इस देश के नायक महाराणा प्रताप हो सकते हैं, शिवाजी हो सकते हैं, परन्तु अकबर या औरंगजेब कभी नहीं हो सकते।

अकबर के कामी, भोगी और विलासी पुत्र जहांगीर ने स्वयं लिखा है कि वह प्रतिदिन बीस प्याले शराब पीता था। मुगल बादशाह जहांगीर और उसके पुत्र शाहजहां दोनों ने हिन्दू, जैन तथा सिख गुरुओं को बहुत कष्ट दिए थे। ये दोनों विदेश में अपने पूर्वजों की भूमि कभी नहीं भूले थे। इन दोनों के बाद औरंगजेब ने भी भारत को दारुलहरब से दारुल इस्लाम बनाने के सभी घृणित प्रयत्न किए। उसके ही शासन काल में गुरु तेग बहादुर का बलिदान हुआ, गुरु गोविन्द सिंह के चारों पुत्रों का बलिदान हुआ था। इसके उपरांत भी वामपंथी इतिहासकारों ने उसे ‘जिंदा पीर’ का भी खिताब दिया है।

शिवाजी और वामपंथी इतिहासकार

शिवाजी जैसे राष्ट्र नायक के साथ भी वामपंथी इतिहासकारों ने घोर अन्याय किया है। इन इतिहासकारों को शिवाजी के भीतर एक भी ऐसा गुण दिखाई नहीं दिया जिससे उन्हें इतिहासनायक या राष्ट्र नायक के गौरवपूर्ण पद पर विराजमान किया जा सके। यद्यपि महादेव गोविन्द रानाडे ने शिवाजी के जन्म को एक महान संघर्ष तथा तपस्या का परिणाम माना है। परंतु महादेव गोविंद रानाडे जैसे लेखकों के इन निष्कर्षों को यह कहकर उपेक्षित किया जाता है कि इन लोगों के भीतर किसी संस्कृति विशेष के प्रति अधिक लगाव है और ऐसा यह अपने इसी भाव के अतिरेक में आकर लिखते हैं।

वामपंथी इतिहासकार औरंगजेब की तुलना में शिवाजी को राष्ट्रवादी मानने को तैयार नहीं हैं उनके दृष्टिकोण में औरंगजेब का सारा चिंतन राष्ट्रवादी है, राष्ट्रीय है और मानवतावादी है, जबकि शिवाजी उनकी दृष्टि में न तो राष्ट्रीय हैं, न राष्ट्रवादी हैं और न ही मानवतावादी हैं। यही कारण है कि शिवाजी का सारा संघर्ष इन वामपंथी इतिहासकारों की दृष्टि में शून्य है। वह शिवाजी को इतिहास में वह स्थान देने के लिए तनिक भी उद्यत नहीं है, जिसके शिवाजी पात्र हैं। उनके महान कार्यों को और संघर्ष को देश के साथ जोड़ने में उन्हें लज्जा आती है। जबकि सर यदुनाथ सरकार जैसे विश्वविख्यात इतिहासकार का कथन है कि शिवाजी जैसा सच्चा नेता सम्पूर्ण मानव जाति के लिए एक अद्वितीय देन है। शिवाजी का लक्ष्य भारतभूमि से विदेशी साम्राज्य को नष्ट करना था।
यदुनाथ सरकार जैसे इतिहासकारों का यह चिंतन या मान्यता भी इन वामपंथी इतिहासकारों को स्वीकार नहीं है। जबकि वास्तव में यह ज्ञात होना चाहिए कि हर समय घोड़े की पीठ पर रहने वाले शिवाजी की तुलना पालकी में बैठकर युद्ध करने वाले औरंगजेब से किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं है।

औरंगजेब को ‘संत’ और परोपकारी सिद्ध करने का प्रयास सर्वप्रथम सैयद शहाबुद्दीन (आईएफएस) ने आरम्भ किया था। जिन्होंने कहा कि “मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाना शरीयत के खिलाफ है, इसलिये औरंगजेब ऐसा कर ही नहीं सकता।” इसका अभिप्राय है कि उसके समकालीन लेखकों ने भी जहाँ यह लिखा है कि उसने अनेकों मंदिरों को तोड़कर भूमिसात कर दिया था, वह सारे प्रमाण भी निराधार हैं। जब सैयद शहाबुद्दीन ने औरंगजेब का उपरोक्त ढंग से महिमामंडन करना आरंभ किया तो फिर जेएनयू के स्वघोषित धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी कैसे पीछे रहते ? उन्होंने भी एक सुर में औरंगजेब और अकबर को महान धर्मनिरपेक्षतावादी बताने के लिये पूरा बल लगा दिया, जबकि मुगल काल के कई दस्तावेज, डायरियाँ, ग्रन्थ आदि स्पष्ट रूप से बताते हैं कि उस समय धर्म के नाम पर लाखों हिन्दुओं का नरसंहार हुआ था एवं हजारों मन्दिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं। इन सारे तथ्यों को उपेक्षित कर इतिहास के विकृति करण की श्रृंखला को आगे बढ़ाने का देशघाती कार्य देश में होता रहा।

जब अरुण शौरी ने 2 सितम्बर, 1669 के मुगल अदालती दस्तावेज जिसे ‘मासिरी आलमगिरी’ कहा जाता है, उसमें से एक अंश उद्धृत करके बताया कि “बादशाह के आदेश पर अधिकारियों ने बनारस में काशी विश्वनाथ का मन्दिर ढहाया तो इन सभी धर्मनिरपेक्ष लेखकों को सांप सूंघ गया और वे बगलें झाँकने लगे थे।” आज भी उस पुराने मन्दिर की दीवार औरंगजेब द्वारा बनाई गई मस्जिद में स्पष्अ रूप से देखी जा सकती है।

एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित ‘मध्यकालीन भारत’ तथा ‘उत्तर मुगलकालीन भारत’ पुस्तकों में वामपंथी लेखक डॉ. सतीश चंद्र ने कलम और तलवार के धनी महान भारतीय गुरु गोविंद सिंह जी महाराज पर औरंगजेब से माफी मांगने जैसा निराधार आरोप लगाने की धृष्टता की थी। उन्होंने धर्म स्वातंत्र्य की रक्षा के लिए महान बलिदान देने वाले गुरु तेगबहादुर जी के संबंध में लिखा-

सन् 1705 में औरंगजेब ने गुरु को माफ कर दिया। गुरु चाहता था कि औरंगजेब उसे आनंदपुर वापस दिलवा दें। मध्यकालीन भारत में डॉ. सतीश चंद्र लिखते हैं, “गुरु तेगबहादुर को अपने पांच अनुयायियों के साथ दिल्ली लाया गया और मौत के घाट उतार दिया गया।”

जबकि गुरु तेग बहादुर जैसे महापुरुष और शौर्यसंपन्न इतिहासनायक के विषय में संपूर्ण संसार यह जानता है कि वह अपने जीवन में कभी भी किसी मुगल बादशाह के समक्ष झुके नहीं थे, वह अपने राष्ट्रवाद के जिस महान कार्य में लगे हुए थे, उसी पर आगे बढ़ते रहे और कभी रुके नहीं। उन्होंने बलिदान देना स्वीकार किया परंतु किसी अत्याचारी शासक के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया।

ऐसे षड्यंत्र के चलते मध्यकालीन भारत का सम्पूर्ण सच्चा इतिहास कभी भी जनता के सामने नहीं आने दिया गया। किसी षड्यंत्र के अंतर्गत नेहरू को आधुनिक भारत का महान इतिहास नायक तो माना ही जाता है, साथ ही उन्हें इतिहास लेखक के रूप में भी मान्यता दे दी गई है। उन्होंने अपनी मान्यताओं के आधार पर ‘भारत एक खोज’ नामक ग्रंथ लिख दिया तो उसे इस प्रकार प्रचारित व प्रसारित किया गया है कि जैसे जो कुछ उसमें लिख दिया गया है वही अंतिम सत्य है और उससे अन्यत्र जो कुछ लिखा है वह सब अप्रमाणिक है। 1984 में इंदिरा गांधी की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र राजीव गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया। श्री गांधी ने अर्जुन सिंह को अपनी सरकार में शिक्षा मंत्री का दायित्व सौंपा। स्पष्ट है कि श्री अर्जुनसिंह को यह दायित्व इसीलिए सौंपा गया था कि वह भी इतिहास लेखन के संबंध में दोगले थे और उन्होंने अपने दोगलेपन का पूर्ण परिचय भी दिया। उन्होंने सरकारी स्कूलों से भारतीयता का बोध कराने वाले प्रत्येक प्रतीक चिह्न को प्रार्थना और गीतों तक को हटाने का गंभीर अपराध किया। फलस्वरूप विद्यालयों में प्रारंभ में देश प्रार्थना, योग व्यायाम विशेषकर सूर्य नमस्कार तथा वन्देमातरम का राष्ट्रीय गीत झूठी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सरकारी स्तर पर हटा दिया गया। राजस्थान में 2009 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा वहाँ के शिक्षा बोर्ड द्वारा भारतीय इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में ‘भगवाकरण’ से मुक्त करने के प्रयत्न हुए। पुस्तकों से भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले मदनमोहन मालवीय, डॉ. हेडगेवार, दीनदयाल उपाध्याय तथा वीर सावरकर जैसे राष्ट्रभक्तों से संबंधित सामग्री हटा दी गई।

ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता वि.वा. शिखाड़कर की कविता ‘सर्वात्मका सर्वेक्षण’ को इसलिए पुस्तक से हटाया गया क्योंकि उसमें शिवाजी द्वारा अफजल खां को ‘मारने का वर्णन था। अब ‘इन्हें कौन समझाए कि इतिहास में ही तो इतिहास पढ़ा जाता है। यदि इतिहास से आप इतिहास को मिटाओगे या उसका विकृतिकरण करोगे तो फिर देश की युवा पीढ़ी अपने गौरवपूर्ण इतिहास बोध से कैसे प्रेरित होगी ?

बंगाल, त्रिपुरा तथा केरल में तो कम्युनिस्ट शासन होने के कारण सरकार द्वारा इतिहास का पाठ्यक्रम साम्यवादी प्रचार का मुख्य अस्त्र बना। इतिहास की पुस्तकों में श्रमिक आन्दोलन, कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास, लेनिन व स्टालिन की ‘जीवनी, पढ़ाई जाने लगी। 11वीं कक्षा के छात्रों को 30 पृष्ठों में 1917 की रूसी क्रांति पढ़नी पड़ी। अनेक इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं, 1989 ई. में बंगाल सरकार द्वारा निर्देश दिया गया कि किसी भी पुस्तक में इस्लामी क्रूरता का वर्णन तथा साथ ही मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर अत्याचार एवं उमरे जबरदस्ती धर्मान्तरण की बात नहीं होनी चाहिए। हिन्दू मंदिरों के ध्वंस का वर्णन नहीं होना चाहिए।

इतिहास के इस विकृतिकरण का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि आज हमारे देश के युवा यह नहीं जानते कि कभी इस देश में विदेशों से छात्र विद्या ग्रहण के लिए आया करते थे और यहाँ से विद्यागुणसंपन्न होकर स्वदेश लौटा करते थे। भारत ‘सोने की चिड़िया’ इसीलिए था कि वह लोहे को स्पर्श कर सोना बना देता था अर्थात जो विद्यार्थी अपने देश से यहाँ शिक्षा ग्रहण करने के लिए आया करते थे, वह जब यहाँ आते थे तो लोहा होते थे, परंतु जब जाते थे तो सोना बनकर जाते थे। इस प्रकार भारत ही वह पारसमणि था जो लोहे से सोना बनाता था। इस पारसमणि के वास्तविक स्वरूप को बालमन में उकेरकर यह प्रमाणित करना चाहिए था कि भारत वास्तव में महान रहा है। परंतु वामपंथी इतिहासकारों ने ऐसी मान्यताएँ स्थापित न करके भारत को ज्ञानविहीन सिद्ध करने का प्रयास किया।

अल-बरुनी, फाह्यान, हेन सांग जैसे अनेकों विदेशी यात्री भारत का अध्ययन करने आए और उन्होंने जो प्रामाणिक पुस्तकें लिखी हैं वह चौंका देने वाले तथ्यों का संग्रह तो हैं ही साथ ही विश्व में हमारे ज्ञान गाम्भीर्य को भी प्रमाणित करती हैं।

स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में आरसी मजूमदार, सर जदुनाथ सरकार, नीलकंठ शास्त्री, टीवी महालिंगम, राधा कुमुद मुखर्जी, काशी प्रसाद जायसवाल जैसे निःस्वार्थ और इतिहास लेखकों के भीतर वह प्रतिभा थी जो भारत को भारतीयता के दृष्टिकोण से देखने का साहस कर सकती थी। उन्होंने कभी भी चाटुकारिता को अपने लेखनी में स्थान नहीं दिया। उन्होंने निष्पक्ष होकर लिखने का प्रयास किया। बस, यही कारण रहा कि स्वतंत्रता के उपरांत वामपंथी इतिहासकारों और कांग्रेसी सरकारों के लिए इन इतिहास लेखकों के द्वारा की गई इतिहास की पुस्तकें पाठ्यक्रम में लगाने के योग्य नहीं समझी गयीं। यह ऐसे इतिहासकार थे जो जो एक ओर वस्तुपरक थे दूसरी ओर भारतीयता को भारतीय दृष्टि से देखने की क्षमता भी रखते थे।

भारत के बारे में लॉर्ड मैकाले का मानना था कि यदि इसे इसके मूल से काट दिया जाए तो इस देश पर शासन किया जाना बहुत ही सरल हो जाएगा। 1947 में देश जब स्वतंत्र हुआ तो उसके पश्चात भी कुछ लॉर्ड मैकाले के मानसपुत्र इसी कार्य में लग गए। वामपंथी इतिहासकारों ने भारत के इतिहास का विकृतिकरण ऐसे ही नहीं किया है, उनका उद्देश्य दूरगामी है। वह चाहते हैं कि इस देश पर लाल रंग का झंडा फहराए। इसके लिए वह बहुत धीमे-धीमे परंतु सुनियोजित ढंग से अपना कार्य कर रहे हैं। उनका लक्ष्य बहुत दूर का है। परंतु ध्यान रहे कि उनकी तैयारी 1947 से ही जारी है। यदि हमने अपने इतिहास के विकृतिकरण की इस प्रक्रिया को रोकने की ओर ध्यान नहीं दिया और इतिहास का तथ्यात्मक पुनर्लेखन नहीं कराया तो निश्चय ही एक दिन यह देश लाल रंग में रंग जाएगा।

जब संपूर्ण इतिहास पर ही विकृतिकरण की गहरी और काली घटा छाई हो, तब हम यह कैसे मान सकते हैं कि हमारे शिवाजी महाराज और उनके वंशज इस काली घटा की चपेट में नहीं आए होंगे? निश्चय ही सारा इतिहास विकृतिकरण का शिकार है। अतः मराठा साम्राज्य और उसके महान शासकों को भी इतिहास के इस विकृतिकरण का शिकार होना पड़ा है। यही कारण है कि शिवाजी और उनके महान वंशजों को इतिहास में हम वह स्थान नहीं दे पाए जिसके वह पात्र थे।
क्रमशः

डॉ राकेश कुमार आर्य

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