धर्म और संस्कृति का रक्षक: सत्यार्थ प्रकाश

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स्व० स्वामी वेदानन्द ‘वेदतीर्थ’ ने देश विभाजन से पूर्व मुलतान (अब पाकिस्तान में) की आर्यसमाज में उपदेश देते हुए सत्यार्थ प्रकाश की गरिमा एवं महत्ता विषयक् रोचक संस्मरण सुनाया था, जो इस प्रकार है-

“मैं एक बार हरिद्वार के मायापुर क्षेत्र में घूम रहा था। मैंने देखा कि कुछ सनातनी साधु ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लेकर आ रहे हैं। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ। मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि अमुक स्थान पर महामना पं० मदन मोहन मालवीय जी यह पुस्तक साधुओं को बांट रहे हैं। मेरा आश्चर्य और भी बढ़ा। मैं स्वयं वहां गया और साधुओं की पंक्ति में खड़ा हो गया।
मेरी बारी आने पर मालवीय जी ने मुझे भी वह पुस्तक दी और कहा कि ‘बाबा इस पुस्तक को पढ़ना।’ मैंने उनसे कहा- “मैं एक नास्तिक की लिखी पुस्तक नहीं पढूंगा।” मालवीय जी ने पुनः पुस्तक ले लेने का आग्रह करते हुए कहा- ‘इस पुस्तक का पाठ करके तो देखो।’ तब मैंने पुनः कृत्रिम क्रोध में कहा- ‘जिस पुस्तक में हमारे देवी-देवताओं एवं पुराणों तथा मूर्ति-पूजा का खण्डन किया गया है, मैं इसे पढ़ना तो क्या स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप क्यों मुझे विवश करते हैं?’ तब मालवीय जी मुस्कुराकर कहने लगे- ‘स्वामी जी! सनातनी तो मैं भी हूं। मूर्ति पूजक भी हूं। फिर भी मैं आपसे आग्रह करूंगा कि एक बार इस पुस्तक को अवश्य पढ़िये। क्योंकि इस पुस्तक में वह जादू है कि जो एक बार इसको पढ़ लेगा वह अपनी संस्कृति और धर्म से कभी पतित नहीं हो सकता, इसके विपरीत वह पतितों का उत्थान कर सकता है।’

प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

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