वेदों में ही मिलता है समानता का उपदेश

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समानी प्रपा सहवोऽन्भागः समाने योषत्रे सहवो युनाज्मि।
सम्यंचोऽग्नि सपर्य्यतारा नाभिमिवा भितः। अथर्व 3।30।6
ईश्वर वेद में आदेश देता है-
तुम्हारा पीने के पदार्थ (जल दूध आदि) एक समान हो, अन्न भोजन आदि समान हो, मैं तुम्हें एक साथ एक ही (कर्त्तव्य) के बन्धन में जोड़ता हूँ। जिस प्रकार पहिये की अक्ष में आरे (Spokes) जुड़े होते हैं उसी प्रकार आपस में मिलजुलकर परोपकारी सदाचारी विद्वान के नेतृत्व में चलो.
मित्रस्यमा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे।-यजु 36।18
मुझे प्राणिमात्र मित्र की दृष्टि से देखें। अर्थात् कोई भी प्राणी मेरे से द्वेष न करे। मैं प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखूँ।
“येन देवा न वियन्ति नो च विद्विषते मिथः।
तत् कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः।।”-अथर्ववेदः—3.30.4
शब्दार्थः–(येन) जिस संगठन मूलक ज्ञान के द्वारा, (देवाः) देवगण, (न) नहीं, (वियन्ति) परस्पर विरोध करते हैं, (च नो) और न, (मिथः) परस्पर, (विद्विषते) द्वेष करते हैं, (तत्) वह, (संज्ञानं ब्रह्म) एकता को करने वाला ज्ञान (वः) तुम्हारे, (गृहे) घर में, (पुरुषेभ्यः) मनुष्यों के लिए, (कृण्मः) करते हैं।।
यथा नः सर्व इज्जनोऽनमीवः संगमें सुमना असत्।-यजु 33। 86
हम सब का व्यवहार इस तरह का हो कि जिससे सबके सब मनुष्य हमारे संग में रोग रहित होकर, उत्तम मान वाले, हमारे प्रति सद्भाव करने वाले हो जावें।
संगच्छध्वं संवदध्वं सवो मनाँसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥
ऋग॰ 10।191।2
आपस में मिलों, संवाद करो, जिससे तुम्हारे मन एक ज्ञान वाले हों, जैसा कि तुमसे पहले के विद्वान एक मन होकर अपना कर्तव्य करते हैं।
स्वस्ति पन्था मनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।
पुनर्ददताऽघ्रनता जानता संगमें यहि॥-ऋग॰ 5। 51।15
सूर्य और चन्द्र की भाँति हम कल्याणकारी मार्ग पर चले और दानी, अहिंसक तथा विद्वान् पुरुषों का साथ करें।

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