वायु और विद्युत की आध्यात्मिक पथ पर क्या भूमिका है?
सर्वोच्च चेतना तक पहुँचने में हमारे श्वास, हमारे मेरूदण्ड और ज्ञान के प्रकाश की क्या भूमिका है?
ईशानकृृतो धुनयो रिशादसो वातान्विद्युतस्तविषीभिरक्रत।
दुहन्त्यूधर्दिव्यानि धूतयो भूमिं पिन्वन्ति पयसा परिज्रयः ।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.64.5 (कुल मन्त्र 737)
(ईशानकृृतः) सुख-सुविधाओं को उपलब्ध कराने वाले (धुनयः) कंपित करते हैं (रिशादसः) नष्ट करने वाले को नष्ट करने वाला (वातान्) वायु (विद्युतः) विद्युत, करंट (तविषीभिः) बल के साथ (अक्रत) बनाते हैं (दुहन्ति) सार (अधः) थनों से, छाती से, बादलों से (दिव्यानि) दिव्य प्रकाश (धूतयः) कंपित करके (भूमिम्) धरती, शरीर (पिन्वन्ति) पीते हुए (पयसा) रस, तरल (परिज्रयः) सब जगह घूमने वाले।
व्याख्या:-
वायु और विद्युत की भौतिक संसार में क्या भूमिका है?
वैज्ञानिक अर्थ – ये सबको सुख-सुविधाएँ उपलब्ध कराते हैं। ये सारे वातावरण में कम्पन पैदा कर देते हैं। वे नाशकों के नाशक हैं। वायु और विद्युत करंट परमात्मा की शक्ति से बनते हैं (इसका अर्थ है कि वायु और विद्युत रूपी दो शक्तियों का निर्माता परमात्मा है)। यह दोनों शक्तियाँ सर्वत्र घूमने फिरने वाले बादलों को कंपित करके दिव्य प्रकाश का आहरण करती हैं और सारी भूमि को पीने के लिए पानी उपलब्ध कराती हैं।
आध्यात्मिक अर्थ – वायु और तरंगें सबको सुख उपलब्ध करवाती हैं। वे हमारी इच्छाओं और मन की वृत्तियों को कंपित कर देती हैं। वे सभी नाशकों अर्थात् बुरे विचारों और आदतों के नाशक हैं। हमारे श्वास के रूप में वायु और ज्ञान के प्रकाश के रूप में तरंगें हमारे अन्दर परमात्मा के द्वारा ही पैदा होती है। यह दोनों हमारे जीवन में शासन करने वाली शक्तियाँ हैं। यह दोनों एकत्रित रूप में हमारी फैली हुई इच्छाओं कंपित करके उच्च चेतना के दिव्य प्रकाश का आहरण करती हैं और हमारे शरीर को शुभ गुणों जैसे रसों का पान करने के योग्य बनाती हैं।
जीवन में सार्थकता: –
सर्वोच्च चेतना तक पहुँचने में हमारे श्वास, हमारे मेरूदण्ड और ज्ञान के प्रकाश की क्या भूमिका है?
जिस प्रकार वायु और विद्युत भौतिक संसार की दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शासन शक्तियाँ हैं, यही दोनों तत्त्व हमारे पूर्ण विकास – शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। अपने श्वासों पर इड़ा, पिंगला और सरस्वती के माध्यम से अपने मेरूदण्ड मार्ग पर चलते हुए मन को एकाग्र करना और ध्यान करने से हम उच्च चेतना का जीवन जी सकते हैं जो मस्तिष्क को प्राप्त होने वाले हमारे अनुभवों से अलग होगा। श्वासों को लम्बे समय तक रोककर रखने का अभ्यास हमें सृष्टि के दिव्य पूर्ण स्वरूप का अनुभव प्राप्त करने में सहायता कर सकता है जो हमारे सौर मण्डल से भी परे हैं जिसका हम एक छोटे से कण की भांति हिस्सा हैं और वह सौर मण्डल स्वयं भी समूची सृष्टि का एक छोटा सा हिस्सा है। यही उच्च चेतना बल्कि सर्वोच्च चेतना है। इस प्रकार सर्वोच्च चेतना का मार्ग हमारे श्वास से ही शुरू होता है, हमारे मेरूदण्ड से गुजरता है और एक ऐसे दिव्य पथ का निर्माण कर देता है जो हमें सर्वोच्च चेतना अर्थात् परमात्मा की अनुभूति करवा सकता है।
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