हरियाणा की पवित्र धर्म भूमि और आर्य समाज का प्रचार कार्य
हरियाणा में आर्यसमाज के प्रचारक
वर्तमान समय में हरयाणा भारत का एक पृथक राज्य है पर नवम्बर १९६६ तक वह पंजाब के अन्तर्गत था। उस समय उसकी आर्य प्रतिनिधि सभा भी पृथक् नहीं थी। शासन की दृष्टि से हरयाणा के पृथक् राज्य बन जाने के पश्चात् भी सन् १९७५ तक वहाँ के आर्यसमाज आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के साथ सम्बद्ध रहे पर जब सार्वदेशिक सभा के निर्णय द्वारा पंजाब प्रतिनिधि सभा का त्रिविभाजन कर दिया गया तो हरयाणा में पृथक् आर्य प्रतिनिधि सभा की स्थापना हुई। आर्य समाज की दृष्टि से हरयाणा का विशेष महत्त्व है क्योंकि वहाँ की जनता का बहुत बड़ा भाग महर्षि दयानन्द सरस्वती के मन्तव्यों में विश्वास रखता है और वहाँ प्रायः सभी नगरों व ग्रामों में आर्यसमाज विद्यमान है। जिन अर्थों में पंजाब को सिक्ख राज्य कहा जाता है उनमें हरयाणा को आर्य राज्य भी कहा जा सकता है। इस राज्य में आर्य समाज का इतना अधिक प्रचार प्रसार हुआ उसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि वहाँ के बहुसंख्यक निवासी उन जाट, गूजर व अहीर आदि जातियों के हैं जिन्हें पौराणिक पण्डित ‘द्विज’ मानने को तैयार नहीं थे। उन्हें न वे यज्ञोपवीत धारण करने देते थे और न वेद – शास्त्रों के अध्ययन की अनुमति ही प्रदान करते थे। समाज में उनकी स्थिति हीन समझी जाती थी। जाट आदि का अपनी इस हीन स्थिति से असन्तुष्ट होना स्वाभाविक ही था। इसी कारण पश्चिमी पंजाब के बहुत से जाट मुसलमान हो गये थे और मध्य पंजाब के सिक्ख। सम्भवतः हरयाणा के जाट भी पौराणिक हिन्दुओं की संकीर्णता से उद्वेग अनुभव कर किसी अन्य मत व पंथ की ओर झुक जाते यदि महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा उन्हें सच्चे हिन्दू (आर्य) धर्म का बोध न कराया जाता।
सत्य सनातन वैदिक धर्म के अनुसार वेद शास्त्रों के अध्ययन का सबको समान रूप से अधिकार है और जन्म के कारण कोई ऊँचा या ‘द्विज’ नहीं होता। इस मन्तव्य ने जाट आदि कृषि – प्रधान जातियों को बहुत प्रभावित किया और वे आर्यसमाज में शामिल होती गयी। महर्षि के जीवन काल में सन् १८८३ तक हरयाणा के रोहतक, करनाल, पानीपत, कालका और रिवाड़ी नगरों में आर्यसमाज स्थापित हो चुके थे। इनकी स्थापना का विवरण इस इतिहास के प्रथम भाग में दिया गया है। महर्षि जनवरी, १८७७ में रिवाड़ी गये थे। वहाँ उन्होंने लोगों को गौरक्षा की प्रेरणा दी और अहीर, जाट आदि जातियों के व्यक्तियों के भी यज्ञोपवीत संस्कार कराये। उन्हीं की प्रेरणा से राय युधिष्ठिर सिंह ने रिवाड़ी में गौशाला की स्थापना की थी जो आधुनिक युग में भारत की प्रथम गौशाला थी। उन्होंने युधिष्ठिरसिंह के पुत्र – पौत्रों को भी यज्ञोपवीत धारण कराया था और उन्हें गायत्री मन्त्र का शुद्ध उच्चारण करना भी सिखाया था। युधिष्ठिरसिंह जाति के अहीर थे जिन्हें पौराणिक पण्डित यज्ञोपवीत और गायत्री मन्त्र का अधिकारी नहीं मानते थे। सनातनी लोग इस कारण महर्षि का प्रबल रूप से विरोध करने लग गये। अपने व्याख्यानों में वैदिक धर्म के सत्य स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए महर्षि कृष्ण और गोपियों की लीला का खण्डन किया करते थे, जिसे लेकर पौराणिकों ने राव युधिष्ठिर सिंह को यह बहकाना शुरू किया कि दयानन्द देवी – देवताओं को नहीं मानते और उनके प्रति अपशब्दों का भी प्रयोग करते हैं। युधिष्ठिरसिंह पौराणिकों के बहकावे में आ गये और उन्होंने महर्षि को मार डालने का निश्चय कर लिया। इसी संकल्प को लेकर वह उस स्थान पर गये जहाँ महर्षि व्याख्यान दे रहे थे। किन्तु उनकी दिव्य मूर्ति का दर्शन कर तथा उनके प्रवचन को सुनकर वह उनके पैरों पर गिर पड़े और उनसे क्षमा की याचना की।
रिवाड़ी में रहते हुए महर्षि ने गौरक्षा का विशेष रूप से प्रचार किया था। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर जो सज्जन गौरक्षा के लिए सक्रिय रूप से तत्पर हुए उनमें चौधरी नवलसिंह का नाम उल्लेखनीय है। वह रोहतक के निवासी थे और धर्म – प्रचार करते हुए हल्की – फुलकी कविताओं का आश्रय लिया करते थे। उन्होंने हरयाणा में गौरक्षा का आन्दोलन प्रारम्भ किया और अनेक स्थानों पर गौरक्षिणी सभाएँ स्थापित की। इस सिलसिले में वह हरिद्वार तक जा पहुँचे और वहाँ भी उन्होंने गौरक्षिणी सभा की स्थापना कर दी। उन्होंने हरिद्वार के ब्राह्मणों और पण्डों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि जो यात्री गंगा – स्नान के लिए आएँ उनसे यह संकल्प कराया जाया करे कि “मैं कसाई के हाथ गाय नहीं बेचूंगा।” यात्रियों से गौरक्षा के लिए दान भी लिया जाया करे और उस दान से गोशालाओं की स्थापना की जाए। ब्राह्मणों ने नवलसिंहजी की इस बात को स्वीकार कर लिया और गौरक्षा के नाम पर ब्रह्मकुण्ड पर एक झण्डा भी लगा दिया। साथ ही एक तख्ती भी वहाँ लगा दी गयी जिस पर गौरक्षा के नियम लिखे थे। कनखल के पण्डित भवानीदत्त ज्योतिषी को गौरक्षिणी सभा का प्रधान बनाया गया और चौधरी नवल सिंह ने सहारनपुर आदि अन्य नगरों में भी इस सभा के लिए चन्दा एकत्र करना प्रारम्भ कर दिया। समाचार – पत्रों में भी इस सभा के सम्बन्ध में सूचनाएँ प्रकाशित की गयी। सब हिन्दू गौ को माता व पवित्र मानते हैं पर गौरक्षा का आन्दोलन जिस ढंग से हरिद्वार में जोर पकड़ रहा था उससे अनेक कट्टरपंथी पौराणिकों ने उद्वेग अनुभव करना शुरू किया क्योंकि इससे आर्यसमाज की शक्ति में वृद्धि होती थी। रुड़की और जगाधरी के पौराणिक पण्डितों ने यह कहना प्रारम्भ कर दिया कि गौरक्षा का यह आन्दोलन दयानन्द का चलाया हुआ है और इससे दयानन्द के पक्ष को बल प्राप्त होता है। जगाधरी से श्री लाडला प्रसाद गुजराती को और रुड़की से श्री फकीरचन्द को इस प्रयोजन से हरिद्वार भेजा गया जिससे वहाँ के पण्डों और ब्राह्मणों को वे यह समझाएँ कि गौरक्षा का आन्दोलन दयानन्द का चलाया हुआ है और कसाइयों को गौ न बेचने तथा गौशालाएँ खोलने की बात सनातन धर्म के अनुरूप नहीं है क्योंकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। लाडलाप्रसाद और फकीरचन्द को अपने प्रयत्न में सफलता हुई। हरिद्वार के पण्डे और ब्राह्मण उनके बहकावे में आ गये और उन्होंने गौरक्षा के झण्डे, तख्ती और दानपात्र आदि को हलवाई की भट्टी में झोंक दिया पर इससे चौधरी नवलसिंह निराश नहीं हुए। उन्होंने अपने प्रयत्न को जारी रखा और उनकी प्रेरणा से अनेक स्थानों के यजमानों ने अपने पुरोहितों पर गौरक्षा के आन्दोलन का समर्थन करने के लिए जोर देना शुरू कर दिया। ११ मई सन् १८८६ को उन्होंने हरिद्वार में एक सभा का आयोजन किया, जिसमें अनेक आर्य समाजों के प्रतिनिधि भी सम्मिलित हुए। इस सभा के प्रयत्न से कनखल में एक बड़ा सम्मलेन हुआ जिसमें पौराणिाकों के उग्र विरोध के कारण बन्द हुई गौरक्षिणी सभा को पुनः स्थापित किया गया। इस अवसर के लिए चौधरी नवलसिंह ने जो कविता लिखी थी उसकी एक पंक्ति यह थी— ” इधर धर्म का झण्डा गाड़ें, उधर अधर्मी रहे उखाड़।” गौरक्षिणी सभा के साथ – साथ कनखल – हरिद्वार में आर्यसमाज का प्रचार भी प्रारम्भ हुया और कट्टरपंथी सनातनियों के इस गढ़ में भी महर्षि के मन्तव्यों की ज्योति प्रसारित होने लग गयी।
हरयाणा में महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा गौरक्षा के जिस आन्दोलन का प्रारम्भ किया गया था अनेक पौराणिकों का समर्थन भी उसे प्राप्त था। ऐसे एक महानुभाव ब्रह्मचारी जयरामदास थे। भिवानी और बेरी में गौशालाओं की स्थापना में उन्होंने आर्यसमाज को सहयोग प्रदान किया था। महर्षि के देहावसान के बाद के कुछ वर्षों में हरयाणा में आर्य समाज का जो प्रचार हुआ उसमें गौरक्षा आन्दोलन बहुत सहायक हुआ क्योंकि वहाँ के कृषकों के लिए गौधन का बहुत महत्त्व था और उनकी आर्थिक स्थिति मुख्यतया गौओं पर ही निर्भर थी। गौरक्षा की बात वहाँ के लोगों को बहुत अपील करती थी। एक अन्य बात जो वहाँ के जाट, अहीर आदि लोगों को वैदिक धर्म की ओर आकृष्ट कर रही थी, यज्ञोपवीत धारण की थी। महर्षि के पश्चात् उनके अनुयायियों तथा शिष्यों ने द्विज न समझे जाने वाले इन लोगों को यज्ञोपवीत धारण कराने यथा गायत्री का उपदेश देने का क्रम जारी रखा। इस काल के हरयाणा के आर्य प्रचारकों में पण्डित शम्भू दत्त का नाम उल्लेखनीय है। वह जिस प्रकार जाटों को यज्ञो पवीत धारण कराने में तत्पर थे उसे कट्टरपंथी पौराणिक सहन नहीं कर सके। इनके नेता श्री कूडेराम थे, जो ब्रह्मचारी जयरामदास के शिष्य थे। सन् १९०६ में उन्होंने सोनीपत जिले के खाण्डा सेहरी गाँव में जाटों की पंचायत बुलाई और उसके सम्मुख यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया कि जो जाट यज्ञोपवीत धारण करे उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया जाए क्योंकि जाट ‘द्विज’ नहीं हैं और यज्ञोपवीत पहनना उनकी परम्परा के विरुद्ध है। किन्तु अनेक प्रतिष्ठित जाट महर्षि के अनुयायी भी थे। ऐसे एक वृद्ध जाट चौधरी ने सुझाव दिया कि इस प्रश्न पर पण्डितों द्वारा विचार – विमर्श करवा लिया जाए और उसे सुनकर ही पंचायत अपना निर्णय करे। यह सुझाव सबकी समझ में आ गया।
पौराणिकों की ओर से काशी के पण्डित शिवकुमार को और आर्य समाज की ओर से पण्डित गणपति शर्मा को शास्त्रार्थ के लिए निमंत्रित किया गया। पंचायत में जाटों के यज्ञोपवीत धारण करने के प्रश्न पर जो विचार – विमर्श हुआ उसमें आर्यसमाज का पक्ष प्रबल रहा जिसके परिणामस्वरूप बहुत से लोगों ने यज्ञोपवीत धारण किए और पण्डित कूडेराम का पक्ष सर्वथा निर्बल हो गया। जाटों का यज्ञोपवीत संस्कार किए जाने के आन्दोलन में पण्डित शम्भू दत्त के प्रधान सहायक पण्डित बस्तीराम थे।
बस्तीरामजी किस प्रकार महर्षि दयानन्द सरवस्ती के सम्पर्क में आये और उन्होंने कैसे हरयाणा में आर्यसमाज का प्रचार प्रारम्भ किया, इस विषय पर इस इतिहास के प्रथम भाग में प्रकाश डाला जा चुका है। २६ वर्ष की आयु में उन्होंने वैदिक धर्म का प्रचार प्रारम्भ किया था और सन् १९५८ में अपनी मृत्यु तक वह आर्यसमाज के कार्य में लगे रहे।
सन् १८८३ में महर्षि के देहावसान के समय उनकी आयु ४२ वर्ष की थी। १८८३ के पश्चात् के वर्षों में हरयाणा में वैदिक धर्म का जो प्रचार हुआ, उसमें बस्तीरामजी का कर्तृत्त्व अत्यन्त महत्त्व का था। ४० वर्ष की आयु में चेचक के कारण उनकी आँखें जाती रही थी पर चर्म चक्षुओं के न रहने पर भी उनकी ज्ञानचक्षु खुली रही और वह जीवन – भर आर्य समाज का प्रचार करते रहे। उनके पास कोई सम्पत्ति नहीं थी। दक्षिणा में जो कुछ भी उन्हें प्राप्त होता उसे वह आर्य समाजों तथा गुरुकुलों को दान कर देते थे। उनके पास अपना कहने को केवल एक ‘इकतारा’ था जिसे बजाते हुए वह भजन गाया करते थे। उनके प्रचार से चिढ़कर पौराणिक लोग कहने लगे थे कि यह अंधा कन्धे पर बाँस रखकर पण्डितों को गाली देता है। इस पर पण्डितजी का उत्तर होता था, भाई यह बाँस नहीं है, यह तो पोपों का नाश है। बस्तीरामजी भजन भी बनाया करते थे, जिनको सुनकर श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। उनके द्वारा हरयाणा में कितने ही आर्यसमाज स्थापित किए गये। समाजों के वार्षिकोत्सवों के अवसर पर तथा गाँवों में घूम – घूम कर वैदिक धर्म का जो प्रचार बस्तीराम जी द्वारा किया गया वह वस्तुतः बड़े महत्त्व का था। जब भक्त फूलसिंह तथा पण्डित (बाद में स्वामी) ब्रह्मदत्त हरयाणा में वैदिक धर्म के प्रचार के लिए तत्पर हुए तो पण्डित बस्तीराम ने उन्हें पूर्णरूप से सहयोग दिया। बीसवीं सदी के प्रथम और द्वितीय दशकों में जाट आदि जातियों में यज्ञोपवीत धारण करने के आन्दोलन ने और अधिक जोर पकड़ा। जाटों में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति चौधरी भीमसिंह रईस (कादीपुर) थे जो वैदिक धर्म के अनुयायी थे पर उनके भाई (चौधरी टेकचन्द जी) सनातनी थे। यज्ञोपवीत के प्रश्न पर उनमें विवाद हो गया और इसका निर्णय करने के लिए सिरसपुर गाँव (दिल्ली प्रदेश में बादली के समीप) में एक शास्त्रार्थ का आयोजन किया गया। शास्त्रार्थ द्वारा यह निर्णय किया जाना था कि जाट द्विज (क्षत्रिय) हैं या शूद्र। यदि वे द्विज हों तभी वे यज्ञोपवीत धारण कर सकते हैं। आर्यसमाज की ओर से पण्डित शम्भूदत्त और पण्डित बस्तीराम ने शास्त्रार्थ किया जिसमें जाटों को द्विज (क्षत्रिय) स्वीकार किया गया और बहुत से जाटों ने यज्ञोपवीत धारण कर लिये। चौधरी भीमसिंह के भाई भी इनमें थे। वह आर्य समाज से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने ५,००० रुपये इस प्रयोजन से गुरुकुल कांगड़ी को दान दिये कि इस राशि द्वारा हरयाणा के बालकों को छात्र वृत्तियाँ दी जा सकें। इन छात्रवृत्तियों से लाभ उठाकर जो ब्रह्मचारी गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त कर स्नातक हुए उसमें श्री समरसिंह, श्री प्रियव्रत तथा श्री भीमसेन के नाम उल्लेखनीय है। सोनीपत जिले के गाँव जांटी में एक शास्त्रार्थ इस विषय पर हुआ कि बाल्मीकि मुनि जाति से भंगी थे या नहीं। आर्य समाज का मत था कि वह जाति या जन्म से उच्च कुल के नहीं थे पर अपने ज्ञान व सद्गुणों के कारण उन्होंने महर्षि का पद प्राप्त किया था। सनातनियों की ओर से इस शास्त्रार्थ में पण्डित मुंशीराम थे और आर्यसमाज की ओर से पण्डित ब्रह्मानन्द। विजय आर्यसमाज की हुई , जिसके कारण हरयाणा में ऊँच – नीच तथा छुआछूत के भेदभाव को मिटाने में बहुत सहायता मिली। हरयाणा में ‘रोढा’ नाम का एक नास्तिक पन्थ था। रोहतक जिले के समैन गाँव में बहुत से रोढों का निवास था जिनमें दाताराम रोढा बहुत कुतर्की था। वह अपने क्षेत्र में आर्यसमाज की जड़ नहीं जमने देता था। पण्डित बस्तीराम वहाँ प्रचार के लिए गये और उन्होंने दाताराम से शास्त्रार्थ किया जिसमें परास्त होकर उसने वैदिक धर्म को स्वीकार कर लिया। आर्य समाजियों को चिढ़ाने के लिए दाताराम ने अपने लड़के का नाम विरजानन्द रखा हुआ था। वह भी वैदिक धर्म का अनुयायी बन गया। समैन गाँव में आर्य समाज की स्थापना हुई , और वहाँ के निवासियों ने रोढा मत का परित्याग कर यज्ञोपवीत धारण कर लिये। खाँडा खेड़ी नामक एक गाँव में भी जाटों को यज्ञोपवीत देने के प्रश्न पर संघर्ष हुआ। वहाँ के बहुत से जाट सनातनी ब्राह्मणों के प्रभाव में थे और यज्ञोपवीत धारण करने के विरोधी थे पर वहाँ ऐसे जाटों की भी कमी नहीं थी जो आर्यसमाज की शिक्षाओं से प्रभावित थे। जाट लोग यज्ञोपवीत के अधिकारी हैं या नहीं इस प्रश्न पर सन् १९०३ में खाँडा खेड़ी में शास्त्रार्थ का आयोजन किया गया। समीप के नारनौंद, बांस और पेटवाड़ आदि गांवों के लोग भी हजारों की संख्या में शास्त्रार्थ सुनने के लिए वहाँ आ गये। सनातनी ब्राह्मणों के उकसाने पर कितने ही जाट लाठियाँ और गंडासे लेकर वहाँ आ पहुँचे। उनका इरादा शास्त्रार्थ को बलपूर्वक रोकने का था पर इस अवसर पर दो युवकों ने अनुपम साहस प्रदर्शित किया। वे पहले रोढापन्थी थे पर आर्यसमाज के प्रचार के कारण वैदिक धर्म के अनुयायी हो गये थे। शास्त्रार्थ चौपाल में हो रहा था। वे दोनों चौपाल के द्वार पर खड़े हो गये और उन्होंने विपक्षियों को गड़बड़ नहीं करने दी। आर्यसमाज की ओर से इस शास्त्रार्थ में प्रधान वक्ता पण्डित आर्यमुनि थे जो उन दिनों पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा की सेवा में थे। शास्त्रार्थ में आर्यसमाज की विजय हुई जिससे बौखला कर खाँडा खेड़ी के ब्राह्मणों ने आर्यसमाजी जाटों का बहिष्कार कर दिया और उनके संस्कार आदि न कराने की प्रतिज्ञा की। इससे आर्यसमाजी जाट घबराये नहीं। उन्होंने पाई गाँव के हरिशरण नामक ब्राह्मण को अपने गाँव में बसा लिया। वह वैदिक विधि से ग्रामवासियों के सब संस्कार सुचारु रूप से कराता रहा। इसके बाद खाँडा खेड़ी और समीप के देहाती क्षेत्र में वैदिक धर्म का खूब प्रचार हुआ और आर्यसमाज की धाक जम गयी। गौरक्षा और जाट आदि जातियों के लोगों को यज्ञोपवीत धारण कराने के प्रश्नों को आधार बनाकर महर्षि के देहावसान के पश्चात् के दो दशकों में हरयाणा में वैदिक धर्म का जिस ढंग से प्रचार हुआ उसे स्पष्ट करने के लिए ये कतिपय उदाहरण पर्याप्त हैं
हरयाणा — आर्यसमाज का सुदृढ़ गढ़
लेखक :- डॉ सत्यकेतु विद्यालंकार
पुस्तक :- आर्यसमाज का इतिहास -2
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा