सैनिक दिव्य प्रकृति के कैसे होते हैं?
प्राण दिव्य प्रकृति के कैसे होते हैं?
चित्रैरजिंभिर्वपुषे व्यंजते वक्षःसु रुक्माँ अधि येतिरे शुभे।
अंसेष्वेषां नि मिमृक्षुर्ऋष्टयः साकं जज्ञिरे स्वधया दिवो नरः।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.64.4 (कुल मन्त्र 736)
(चित्रैः) अद्भुत (अजिंभिः) रूप तथा भाव (वपुषे) शरीर की सुन्दरता के लिए (व्यंजते) शोभान्वित करता है (वक्षःसु) अपनी छाती पर, हृदय पर (रुक्मान्) चमकीला (अधि येतिरे) बलशाली करता है (शुभे) शोभा, महिमा के लिए (अंसेषु) कंधों पर (एषाम्) इनके (नि मिमृक्षु) चमकता है, शुद्ध करता है (ऋष्टयः) शत्रुओं का नाश करने के लिए वज्र, सभी गतिविधियाँ (साकम्) साथ में (जज्ञिरे) उत्पन्न हुए (स्वधया) स्व अर्थात् आत्मा को धारण करने की शक्ति (दिवः) दिव्य, प्रकाशमान् (नरः) प्रगतिशील व्यक्ति।
व्याख्या:-
सेनानी देखने में और शक्तियों में कैसे लगते हैं?
प्राण हमारे शरीर, मन और आत्मा के लिए किस प्रकार लाभदायक हैं?
यह मन्त्र सैनिक पुरुषों और प्राणों की महिमा की व्याख्या करता है।
सैनिकों के सम्बन्ध में – वे स्वयं को अद्भुत अलंकरणों, नमूनों, रूपों और अन्य कई प्रकार से शरीर की सुन्दरता के लिए सुसज्जित करते हैं। वे अपनी छाती और हृदय पर अपनी महिमा के चिन्हों को बल के रूप में चमकाते हैं। बहादुर सैनिकों के कंधों पर शत्रुओं का नाश करने वाले वज्र चमक रहे होते हैं। वे दिव्य होते हैं और आत्मा को धारण करने के साथ-साथ एक प्रगतिशील मनुष्य की तरह जन्म लेते हैं।
प्राणों के सम्बन्ध में – वे अपने शरीर की छवि ज्ञान से सुसज्जित करते हैं। उनके हृदय में शुद्ध संवेदनाएँ होती हैं। शरीर की सभी गतियाँ प्राणों के कंधों पर ही होती हैं। आत्मा को धारण करने की शक्ति के साथ वे प्रगति के लिए मन को प्रकाशित करने के लिए दिव्य होते हैं।
जीवन में सार्थकता: –
सैनिक दिव्य प्रकृति के कैसे होते हैं?
प्राण दिव्य प्रकृति के कैसे होते हैं?
किसी की भी सुन्दरता उसकी दिव्यता में निहित होती है। सैनिक राष्ट्र की कीमती सम्पत्ति होते हैं, क्योंकि वे शत्रुओं का नाश करने में सक्षम होते हैं और आत्मा को धारण करने की क्षमता सिद्ध करते हैं। सैनिकों के द्वारा संरक्षित होने के कारण ही असंख्य नागरिक अपने जीवन में शांति और प्रगति के साथ जी पाते हैं। देश के विकास के सभी आयाम सैनिकों के कारण ही हैं।
इसी प्रकार प्राण भी सभी जीवों के लिए और विशेष रूप से मनुष्यों के लिए अत्यन्त कीमती सम्पत्ति है। केवल प्राणों के माध्यम से ही हम अपने मन की वृत्तियाँ और आवरण नष्ट करके परमात्मा की अनुभूति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं।
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