*सोमनाथ मंदिर –एक विवेचना*
डॉ डी के गर्ग
कृपया अपने विचार बताए।
पौराणिक मान्यता : -कुछ लोककथाओं के अनुसार यहीं श्रीकृष्ण ने देहत्याग किया था। इस कारण इस क्षेत्र का बहुत महत्त्व है।सोमनाथ मन्दिर भारतवर्ष के पश्चिमी छोर पर गुजरात नामक राज्य में स्थित, अत्यन्त प्राचीन शिव मन्दिर का नाम है। इसे भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में माना व जाना जाता है।
प्राचीन कथानक के अनुसार सोम अर्थात् चन्द्र ने, दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं से विवाह किया था। लेकिन उनमें से रोहिणी नामक अपनी पत्नी को अधिक प्यार व सम्मान दिया करता था। इस अन्याय को होते देख क्रोध में आकर दक्ष ने चन्द्रदेव को शाप दे दिया कि अब से हर दिन तुम्हारा तेज (काँति, चमक) क्षीण होता रहेगा। फलस्वरूप हर दूसरे दिन चन्द्र का तेज घटने लगा। शाप से विचलित और दुःखी सोम ने भगवान शिव की आराधना शुरू कर दी। अन्ततः शिव प्रसन्न हुए और सोम-चन्द्र के शाप का निवारण किया। सोम के कष्ट को दूर करने वाले प्रभु शिव का स्थापन यहाँ करवाकर उनका नामकरण हुआ “सोमनाथ”।
विश्लेषण:उपर्युक्त तुक्कामार कहानी पर ध्यान ना देकर सीधे वास्तविकता पर विचार करते हैं की उपरोक्त मंदिर का नाम सोमनाथ क्यों हुआ ? क्या ये किसी व्यक्ति का नाम है जिसने ये मंदिर बनवाया। यदि ऐसा नहीं है। फिर प्राचीन काल में स्थापित इस मंदिर का नाम सोमनाथ मंदिर क्यों पड़ा ? पहले इस पर विचार करते है ।
सोम शब्द का भावार्थ: कुछ लोग वेदों में वर्णित सोम ,सोमरस का अर्थ के रूप में शराब (alcohol) अथवा अन्य मादक पद्यार्थ के ग्रहण करने का बताते है ,वे वेदों में सोम रस की तुलना एक जड़ी बूटी से करते हैं जिसको ग्रहण करने से नशा हो जाता हैं और वैदिक ऋषि सोम रस को ग्रहण कर नशे में झूम जाते थे। परन्तु ये उनके भावार्थ की गलती है। एक शब्द के अनेक भावार्थ हो सकते है। इसलिए सोम शब्द का सहारा लेकर नशा बताना सही नहीं है।
ऋषि दयानंद ने अपने वेद भाष्य में सोम शब्द का अर्थ प्रसंग अनुसार ईश्वर, राजा, सेनापति, विद्युत्, वैद्य, सभापति, प्राण, अध्यापक, उपदेशक इत्यादि किया हैं।कुछ स्थलों में वे सोम का अर्थ औषधि,औषधि रस और सोमलता नमक औषधि विशेष भी करते हैं,परन्तु सोम को सुरा या मादक वास्तु के रूप में कहीं ग्रहण नहीं किया हैं।स्वामी दयानंद लिखते हैं कि सोम का पान करने वाले कि अंतरात्मा में विद्या का प्रकाश होता हैं अर्थात जो मनुष्य दिन और रात पुरुषार्थ करते हैं वे नित्य सुखी होते हैं।
वैदिक मन्त्रों में सोम शब्द का प्रयोग अनेकों अर्थों में हुआ हैं?
उदाहरण के लिए :- वैदिक मन्त्रों में सोम शब्द के भिन्न – भिन्न मन्त्रों में भिन्न -भिन्न अर्थ निकलते हैं। जैसे की
सोम को समस्त गुणयुक्त आरोग्यपन एवं बल देने वाला ईश्वर कहा गया हैं।- ऋग्वेद 1 /91/22
तैतरीय उपनिषद् के अनुसार वास्तविक सोमपान तो प्रभु भक्ति हैं जिसके रस को पीकर प्रभुभक्त आनंदमय हो जाता हैं।
ऋग्वेद 6/47/1 और अथर्ववेद 18/1/48 में कहाँ गया हैं परब्रह्मा की भक्ति रूप रस सोम अत्यंत स्वादिष्ट हैं, तीव्र और आनंद से युक्त हैं, इस ब्रह्मा सोम का जिसने कर ग्रहण लिया हैं, उसे कोई पराजित नहीं कर सकता।
ऋग्वेद 8/92/6 – इस परमात्मा से सम्बन्ध सोमरस का पान करके साधक की आत्मा अद्भुत ओज, पराक्रम आदि से युक्त हो जाती हैं ,वह सांसारिक द्वंदों से ऊपर उठ जाता हैं।
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क इमं नाहुषीष्वा इन्द्रं सोमस्य* तर्पयात्! स नो वसून्या भर!” सामवेद – १९०-६
व्याख्या :- इस मन्त्र में कहा है की मनुष्य अपने वीर्य रक्षा व ब्रह्मचर्य के द्वारा आत्मशक्ति का विकास करे! मानव प्रजाओं को नाहुषी कहते हैं! क्योंकि वह अन्य प्राणियों की अपेक्षा आपस में अधिक सम्बद्ध है! संतान माता पिता पर देर तक आश्रित रहती है! व्यक्ति समाज पर आश्रित रहता है! एक राष्ट्र अन्य की अपेक्षा करता है एवं मानव प्रजायें नाहुषी कहलाती है। सोम वीर्य शक्ति का नाम है और आत्मिक शक्ति का तर्पण इसी से होता है! मन्त्र का भाव है कि -मनुष्य अपने अंदर सोम पान के द्वारा आत्मिक शक्ति का विकास करे और लोकहित में प्रवृत्त होकर परोपकारी बनें।
दूसरा शब्द है नाथ : नाथ शब्द का भावार्थ कई हो सकते हैं, लेकिन कुछ प्रमुख अर्थ यह हैं:
1. स्वामी या मालिक: नाथ शब्द का अर्थ है स्वामी या मालिक, जैसे कि पति या भगवान।
2. रक्षक: नाथ शब्द का अर्थ है रक्षक या संरक्षक, जो अपने सेवकों या भक्तों की रक्षा करता है।
3. भगवान: नाथ शब्द का अर्थ है भगवान या ईश्वर, जो समस्त जीवों का स्वामी और रक्षक है।
संक्षेप में ईश्वर नाथ भी है ,जो की समस्त विश्व में ही नहीं पूरी सृष्टि और सौरमंडल में विराजमान है। इस कारण से अनेकों साधना स्थलों के नाम ईश्वर के नाम पर रखे गए है । जैसे कि बद्रीनाथ, केदारनाथ, जगन्नाथ, बाबा विश्वनाथ आदि ।
जो एक ही ईश्वर के उपनाम है और शरीरधारी नहीं है। नाथ शब्द जोड़कर अलग अलग प्रकार से ईश्वर की मूर्तियां बना लेना और शरीरधारी भगवान् मान लेना अंधविश्वासी है । क्योंकि ईश्वर एक ही है और मूर्तियों के माध्यम से उसके कार्यों को समझाना ।शायद इसलिए निराकार ईश्वर की अनेकों मूर्तिया बनाने के पीछे यही प्रयोजन रहा होगा।
प्रश्न क्या भगवान विश्वनाथ, जगन्नाथ, बद्रीनाथ, सोमनाथ आदि आदि से अलग ईश्वर है?
तो उत्तर है कि बिल्कुल नहीं, ये समझ का फर्क है क्योंकि ये सब ईश्वर एक ही है जो सर्वशक्तिशाली है, निराकार, सर्वाधार, सर्वव्यापक है, परमपिता है जैसा कि पहले कहा है कि ईश्वर के अनेकों प्रकार के कार्य है जिसके कारण ईश्वर को अलग नाम से पुकारा गया है, और यदि इन कार्यों को समझने के लिए निराकर ईश्वर की चित्रकारी की जाए तो कार्यों के आधार पर एक ही ईश्वर अलग अलग रूपों में नजर आएगा ।
ईश्वर को विश्वनाथ क्यो कहते है? ईश्वर पूरे ब्रह्मांड का रचने वाला है और वही ईश्वर सृष्टि को बनाने, चलाने और प्रलय करने वाला है इस कारण से ईश्वर का एक नाम विश्वनाथ भी है। जैसा काम वैसा ही नाम।
तीसरा शब्द है मंदिर : मंदिर किसे कहते है ? मंदिर का भावार्थ बहुत विस्तृत है।आर्य समाज मंदिर , जहां अग्निहोत्र करते हैं , पौराणिक मंदिर -जहां मूर्तियां पूजी जाती है, पारसी धर्म में अग्नि मंदिर, पारसियों के लिए पूजा का स्थान है। संक्षेंप में मंदिर एक धार्मिक इमारत है जहां बैठकर पूजा या प्रार्थना की जाती हो।
अंत में सोमनाथ के मंदिर का भावार्थ समझते है –एक ऐसा मंदिर जहां भक्तगण सोम पान के द्वारा आत्मिक शक्ति का विकास करने और लोकहित में प्रवृत्त होकर परोपकार हेतु सोमपान के रस को पीकर द्वारा प्रभु भक्ति में लींन होकर आनंदमय हो जाते है।
मूर्ति पूजा कैसे शुरू हुई ? ये जो पौराणिक कथाएं शिव ,ब्रह्मा आदि को अलग अलग तुक्के से जोड़कर लिखी गयी है ये मनघडंत है। भारत में पहली मूर्ति-पूजा (मूर्ति पूजा) बुद्ध के लिए की गई थी।
वेद कहता है —
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:।।’ -यजुर्वेद 32वां अध्याय।
अर्थात् उस महान यश वाले ईश्वर की कोई मूर्ति नहीं होती है । इसी प्रकार ईश्वर को “अज” और अजन्मा,अकाय, तथा नश नाड़ियों से रहित भी लिखा है । और यह भी लिखा है कि जो प्रकृति ( पेड़, नदी, पहाड़, मनुष्य आदि ) की पूजा ईश्वर के स्थान पर करते हैं वे अंधकार वाले लोकों में जन्म पाते और दुःख भोगते हैं । वेदों में मनुष्य कृत पुस्तकों की तरह विरोधाभास नहीं है । अर्थात् ऐसा नहीं है कि कहीं ईश्वर को जन्म लेकर शरीरधारी साकार बता दिया और कहीं अजन्मा और निराकार ।वेदों में मूर्ति पूजा या ईश्वर का अवतार आदि लेना कहीं भी उल्लिखित नहीं है ।
मूर्तिपूजकों तथा मूर्तिभंजकों के संघर्षों से इतिहास भरा पड़ा है। प्रारंभ में मूर्तियां तीन तरह के लोगों ने बनाईं- एक वे जो वास्तु और खगोल विज्ञान के जानकार थे, तो उन्होंने तारों और नक्षत्रों के शिक्षा मंदिर बनाए। कुछ लोगो ने श्रद्धावश अपने पूर्वजों की मूर्तियां बनवायी ,उनकी यादगार के लिए। कुछ लोगों ने महा पुरुषों की मूर्तियां उनके विषय में ज्ञान प्राप्ति और ज्ञान -विज्ञान के विस्तार के लिए बनायीं।
वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति, क्योंकि इसका इतिहास में कोई साक्ष्य नहीं मिलता। ईश्वर के अनेकों नाम की चर्चा मिलती है जैसे की अग्नि, इन्द्र ,सूर्य और वरुण आदि लेकिन उनकी मूर्तियां थीं इसके भी साक्ष्य नहीं मिलते हैं।
पूर्व वैदिक काल में वैदिक समाज जन इकट्ठा होकर एक ही यज्ञ वेदी पर ब्रह्म के प्रति (ईश्वर) अपना समर्पण भाव व्यक्त करते थे। वे यज्ञ द्वारा भी ईश्वर और प्रकृति दोनों को साधते थे। बाद में धीरे-धीरे लोग वेदों का गलत अर्थ निकालने लगे और ईश्वर के अनेकों नाम की भरती मानकर अलग लग मूर्तियां बनायीं और मूर्ति पूजा शुरू हो गयी। फिर एक डर बैठा दिया की मूर्ति पूजा ना करने से देवता नाराज हो सकते है और परिवार में बीमारी, महामारी और गरीबी आदि शुरू हो सकती है। हिन्दू शब्द शास्त्रीय है ही नहीं ये विदेशियों का दिया हुआ है ,और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा अलग अलग देवताओं , भगवानों के चक्कर में बिखरे हुए समाज को एकजुट करने के लिए हिन्दू शब्द का प्रयोग किया गया। वास्तविक शब्द आर्य है और देश का नाम भी आर्यावर्त है , जो मूलत: अद्वैतवाद और एकेश्वरवाद का समर्थक है जिसका मूल ऋग्वेद, उपनिषद और गीता में मिलता है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि भारत में सबसे अधिक मूर्तियां हैं, मंदिर हैं; किंतु पूर्व में भारत मूर्तिपूजक नहीं था ।
शिवलिंग की पूजा का प्रचलन अथर्व और पुराणों की देन है। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिन्दू-जैन धर्म में बढ़ने लगा। बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर की मूर्तियों को अपार जन-समर्थन मिलने के कारण विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाई जाने लगीं।
भारत में जो लोग अनीश्वरवादी थे, वे निराकार ईश्वर को नहीं मानते थे। उन्होंने अपने प्रॉफेटों, पूर्वजों आदि की मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजना आरंभ कर दिया। इन अनीश्वरवादियों में जैन, चार्वाक, न्यायवादी आदि धर्म के लोग थे।
महावीर स्वामी और बुद्ध के जाने के बाद मूर्तिपूजा का प्रचलन बढ़ा और हजारों की संख्या में संपूर्ण देश में जैन और बौद्ध और मंदिर बनने लगे। जिसमें बुद्ध और महावीर की मूर्तियां रखकर उनकी पूजा होने लगी। इन मंदिरों में हिन्दू भी बड़ी संख्या में जाने लगा जिसके चलते बाद में राम और कृष्ण के मंदिर बनाए जाने लगे और इस तरह भारत में मूर्ति आधारित मंदिरों का विस्तार हुआ।
इस्लाम में मूर्ति पूजा निषेध है लेकिन इसमें तरह तरह के फिरके है जो मकबरे, दरगाह और कब्रों की पूजा करते है और मक्का में शिवलिंग से दुआ मांगते है ,यह भी मूर्ति पूजा का ही एक रूप है।
मूर्तिपूजा के समर्थक कहते हैं कि ईश्वर तक पहुंचने में मूर्तिपूजा रास्ते को सरल बनाती है। मन की एकाग्रता और चित्त को स्थिर करने में मूर्ति की पूजा से सहायता मिलती है।मूर्ति को आराध्य मानकर उसकी उपासना करने और फूल आदि अर्पित करने से मन में विश्वास और खुशी का अहसास होता है। इस विश्वास और खुशी के कारण ही मनोकामना की पूर्ति होती है। मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा, मस्जिद ,पुस्तक, आकाश इत्यादि सभी मूर्तिपूजा किसी नई किसी मध्यान से कराते है। इसका मूल कारण भारत में वैदिक समाज में स्वाध्याय और वैदिक ज्ञान की कमी, वामपंथियों ,मुस्लिम समाज और पश्चिमी देशों बढ़ता प्रभाव है।
क्या यहाँ सच में शरीरधारी ईश्वर रहते है ? नहीं , बिल्कुल नहीं।
इस मंदिर को 1024 में महमूद गजनवी,1296 में खिलजी की सेना, 1375 में मुजफ्फर शाह, 1451 में महमूद बेगदा और 1665 में औरंगजेब के हाथों विनाश का सामना करना पड़ा।आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी। गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया। महमूद ग़ज़नवी ने सन 1025 में कुछ 5,000 साथियों के साथ सोमनाथ मन्दिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया। 50,000 लोग मन्दिर के अन्दर हाथ जोड़कर पूजा अर्चना कर रहे थे, प्रायः सभी कत्ल कर दिये गये।
इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया। सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया। मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया। इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसम्बर 1955 को भारत के राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।
1948 में प्रभासतीर्थ, ‘प्रभास पाटण’ के नाम से जाना जाता था। इसी नाम से इसकी तहसील और नगर पालिका थी। यह जूनागढ़ रियासत का मुख्य नगर था। लेकिन 1948 के बाद इसकी तहसील, नगर पालिका और तहसील कचहरी का वेरावल में विलय हो गया। मंदिर का बार-बार खंडन और जीर्णोद्धार होता रहा पर शिवलिंग यथावत रहा। लेकिन सन 1026 में महमूद गजनी ने जो शिवलिंग खण्डित किया, वह यही आदि शिवलिंग था। इसके बाद प्रतिष्ठित किए गए शिवलिंग को 1300 में अलाउद्दीन की सेना ने खण्डित किया। इसके बाद कई बार मन्दिर और शिवलिंग को खण्डित किया गया। बताया जाता है आगरा के किले में रखे देवद्वार सोमनाथ मन्दिर के हैं। महमूद गजनी सन 1026 में लूटपाट के दौरान इन द्वारों को अपने साथ ले गया था।
सोमनाथ मन्दिर के मूल मन्दिर स्थल पर मन्दिर ट्रस्ट द्वारा निर्मित नवीन मन्दिर स्थापित है। राजा कुमार पाल द्वारा इसी स्थान पर अन्तिम मन्दिर बनवाया गया था। सौराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उच्छंगराय नवलशंकर ढेबर ने १९ अप्रैल १९४० को यहाँ उत्खनन कराया था।
सारांश : सोमनाथ का मंदिर समुन्द्र के किनारे एक रमणीक स्थल पर है , पास ही में गिर का विशाल जंगल भी है । ये प्राचीन काल में ध्यान अष्टांग योग जिसमें ध्यान ,धारणा , समाधि आते है और ईश्वर की भक्ति में ली व्यक्ति सोम का पान करके आनंदित रहता है अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है। परन्तु यहाँ भी मूर्ति पूजा शुरू हो गयी और वास्तविक अस्तित्व खत्म हो गया।