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मनुष्य श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव को ग्रहण करने से बनता है। विश्व में अनेक मत, सम्प्रदाय आदि हैं। इन मतों के अनुयायी हिन्दू, ईसाई, मुसलमान, आर्य, बौद्ध, जैन, सिख, यहूदी आदि अनेक नामों से जाने जाते हैं। मनुष्य जाति को अंग्रेजी में भ्नउंद कहा जाता है। यह जितने मत व सम्प्रदायों के लोग हैं यह आकृति व शरीर तथा इसके अंगों व इन्द्रियों की दृष्टि से सब समान हैं। इनको अनेक मतों में विभाजित करने की क्या कोई आवश्यकता थी? यह एक गम्भीर प्रश्न है। इन मतों का आरम्भ उन-उन देशों में अज्ञानता, अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओं को दूर करने की दृष्टि से किया गया था। मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह ज्ञान व शक्ति की दृष्टि से पूर्ण समर्थ नहीं हो सकता। पूर्ण समर्थ तो केवल सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ तथा सर्वाधार सत्य-चित्त-आनन्दस्वरूप परमात्मा ही होता है। मनुष्य जाति का यदि कोई एक नाम रखना तो तो वह गुणों व अवगुणों के नाम पर रखा जाना चाहिये। हमारे पूर्वज विश्व में बुद्धि और ज्ञान की दृष्टि से श्रेष्ठ व सर्वोत्तम थे। उन्होंने इसी सिद्धान्त को अपनाया और मनुष्य को गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर मुख्यतः दो नामों आर्य व अनार्य से प्रस्तुत किया। श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव वाले मनुष्यों को ‘आर्य’ तथा गुणहीन और दुष्कर्म करने वालों को अनार्य नाम से सम्बोधित किया जाता था। आर्य नाम हिन्दू, मुस्लिम, सिख व ईसाई की भांति कोई मत के आधार पर दिया गया नाम नहीं है अपितु आर्य का एक गौरवपूर्ण अर्थयुक्त होता है जिसको सत्य सिद्ध करने व धारण करने से मनुष्य ‘आर्य’ बनता है।
हमारे देश में आदिम वा आदि चार ऋषियों को सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर से चार वेदों का ज्ञान मिला था। इन्हीं ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ने अन्य ऋषि ब्रह्मा जी को इन चार वेदों का ज्ञान दिया और इन सबने अन्य सभी मनुष्यों में वेद ज्ञान का प्रकाश किया। महाभारत काल तक भारत व विश्व के अनेक देशों में ऋषि परम्परा चली। भारत के यह ऋषि वेद धर्म प्रचार के लिये विश्व के अनेक देशों यहां तक कि अमेरिका जिसे पाताल देश कहा जाता है, जाया करते थे। महाभारत युद्ध में हुए विनाश से समूचे देश-देशान्तर में अव्यवस्था फैल गई जिस कारण अध्ययन-अध्यापन की सुविधा न होने से ऋषि परम्परा बन्द हो गई। ऋषि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से वेदों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया और ऋषियों की तरह उसका देश-देशान्तर में प्रचार किया। उन्होंने जो बातें कहीं है वह केवल पुस्तकों में पढ़कर नहीं अपितु पुस्तकों की उन मान्यताओं को बुद्धि व तर्क पर आधारित बनाकर स्वीकार किया और केवल सत्य मान्यताओं का ही देश व समाज में प्रचार किया। उन्होंने अपनी तर्कणा शक्ति से सत्य के स्वरूप का साक्षात् किया था। अज्ञान व अन्धविश्वासों से रहित उस अन्वेषित तथा विवेचित सत्य का उन्होंने निर्भीकतापूर्वक देश भर में प्रचार किया। अंग्रेजी राज्य होने पर भी अपने जीवन को जोखिम में डालकर वह देश के अनेक भागों में गये और बिना अंगरक्षकों के वेदों का प्रचार करते रहे। उन्होंने सिद्ध किया था कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है और इसकी सभी मान्यतायें सत्य एवं तर्कपूर्ण हैं। वेदों के प्रचार के लिये उन्होंने विपक्षी विधर्मियों से शास्त्रार्थ भी किये थे और सबको अपने ज्ञान व तर्कों से प्रभावित किया था। वह धर्म विषयक ज्ञान के अजेय योद्धा थे। इसका प्रमाण उनका ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश है। इस ग्रन्थ में उन्होंने सभी मत-मतान्तरों की समीक्षा करने के साथ आरम्भ के दस अध्यायों में तर्क व बुद्धिगम्य वैदिक धर्म का सत्य स्वरूप प्रस्तुत किया है। अद्यावधि उनकी वैदिक मान्यतायें अखण्डीय बनी हुई हैं जबकि सभी मतों की एक व दो नहीं अपितु अनेक मान्यताओं को उन्होंने तर्क की कसौटी पर कस कर अविद्यायुक्त, असत्य व अप्रमाणिक सिद्ध किया था।
ऋषि दयानन्द ने वेदों के सत्य ज्ञान व मान्यताओं के आधार पर ‘‘आर्य” शब्द पर भी अपने मन्तव्यों को अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश तथा आर्योद्देश्यरत्नमाला में प्रस्तुत किया है। आर्योद्देश्यरत्नमाला में वह आर्य शब्द का उल्लेख कर इसका स्वरूप व परिभाषा देते हुए कहते हैं कि ‘जो श्रेष्ठ स्वभाव, धर्मात्मा, परोपकारी, सत्यविद्यादि गुणयुक्त और आर्यावर्त देश में सब दिन से रहने वाले हैं, उनको आर्य कहते हैं।’ आर्यावर्त देश के विषय में उन्होंने बताया है कि ‘हिमालय, विन्ध्याचल, सिन्धु नदी और ब्रह्मपुत्रा नदी, इन चारों के बीच और जहां तक इनका विस्तार है, उनके मध्य में जो देश है, उसका नाम ‘आर्यावर्त देश’ है।’
ऋषि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के अन्त में अपने मन्तव्यों को सूचीबद्ध किया है। अपने ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ में आर्य शब्द के विषय में वह लिखते हैं ‘जैसे ‘आर्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट को कहते हैं वैसे मैं भी मानता हूं।’ अपने मन्तव्यों में आर्यावर्त की भी उन्होंने वही परिभाषा दी है जो आर्योद्देश्यरत्नमाला में दी है। यहां कुछ शब्दों में भिन्नता है परन्तु आशय वही है और इस परिभाषा से आर्यावर्त की परिभाषा अधिक स्पष्ट होती है। वह लिखते हैं ‘आर्यावर्त देश इस भूमि का नाम इसलिये है कि इस में आदि सृष्टि (मानव सृष्टि के आरम) से आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी है। इन चारों के बीच में जितना प्रदेश है उस को ‘आर्यावर्त’ कहते है और जो इस में सदा रहते हैं उन को भी आर्य कहते हैं।’
ऋषि दयानन्द के उपर्युक्त विचार प्रमाणों से पुष्ट हैं। हमारे देश में आठवीं शताब्दी में विदेशी मांस मदिरा भक्षी लोग आये और यहां छल, बल व अन्याय से हिन्दुओं को पीड़ित किया। हिन्दू जनता अन्धविश्वासों एवं अविद्या से ग्रस्त थी। इनका विद्या को प्राप्त न होने से पतन हुआ। इस पर भी इनमें कोई ऐसा महापुरुष नहीं हुआ जो इनकी अविद्या व अन्धविश्वासों को दूर करके इन्हें संगठित करता। सबने अपने अपने मत व वाद चलाये और मृत्यु का ग्रास बन गये। सौभाग्य से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव हुआ। वह विद्या निपुण थे। उनके समय में विद्यमान धर्माचार्यों व मत-मतान्तरों की दृष्टि से वह वेद, विद्या व धर्मज्ञान की दृष्टि से सूर्य के समान थे। वह आदर्श बाल ब्रह्मचारी थे और वेदों के मर्मज्ञ विद्वान थे। उन्हें भारत का यथार्थ इतिहास विदित था। उनसे ही पता चला कि हमारे रामायण और महाभारत ग्रन्थों को हमारे ही कुछ पण्डितों ने प्रक्षेप कर भ्रष्ट कर दिया है। दस-बीस हजार श्लोकों का भारत प्रक्षिप्त होकर एक लाख से अधिक श्लोकों का बना दिया गया। 18 पुराणों की भी उन्होंने परीक्षा की और उन्हें अन्धविश्वासों से युक्त अविश्वसीय काल्पनिक कथाओं तथा अश्लील प्रसंगों का भण्डार बताया। उन्होंने पुराणों को त्याज्य कोटि के ग्रन्थ बताया। वह वेद, उपनिषद, दर्शन, प्रक्षेप रहित विशुद्ध मनुस्मृति आदि ग्रन्थों को धर्म के आचरण व पालन के लिये उपयोगी मानते थे और इसी का उन्होंने प्रचार किया। सत्यार्थप्रकाश में उन्होंने मान्य ग्रन्थों की सूची भी प्रस्तुत की है। उनके कार्यों से अन्धविश्वास व अविद्या के कुछ बादल झंटे परन्तु हिन्दू जाति में अविद्या का संस्कार इतना गहन व प्रबल है कि सभी लोग ऋषि दयानन्द की अमृत के समान अमोघ औषधि ‘‘विद्या” को स्वीकार कर उससे लाभान्वित नहीं हुए। इसे विधि की विडम्बना ही कह सकते हैं। मुस्लिम शासन काल में भी हमारे यशस्वी योद्धाओं वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्द सिंह, महाराजा रणजीत सिंह आदि ने शत्रुओं से लोहा लिया और अपने राज्यों को स्वतन्त्र रखते हुए उनका शासन व संचालन किया था।
दिल्ली में मुस्लिम शासन के पतन के बाद अंग्रेजों ने छल व बल से देश पर कब्जा किया और यहां कि वैदिक संस्कृति को कुचलने के लिये कुछ मिथ्या वाद प्रस्तुत किये जिनमें से एक यह है कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं अपितु यह बाहर, ईरान आदि स्थान, से आये थे। इन अंग्रेजों व इनके समर्थक बुद्धिजीवियों ने अपनी मान्यता के समर्थन में कोई पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया लेकिन अपनी चोरी और सीना जोरी से इसे मनवा लिया क्योंकि शासन इनका था। इस विषय की सच्चाई जानने के लिये सच्चे जिज्ञासुओं को स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता’ को पढ़ना चाहिये। आर्य ही भारत के मूल निवासी एवं आदिवासी हैं। आर्यों का उदय भारत में ही हुआ था। आर्य ही विद्या से विमुख होने से अनार्य, द्रविण व अन्यों देश में जाकर कालान्तर में ईसाई, यहूदी व अन्य मतों के अनुयायी बनें। प्रो. मैक्समूलर यह स्वीकार करते हैं कि उनके पूर्वज पूरब से पश्चिमी देशों में गये थे।
सत्य सत्य होता है जो अपना प्रभाव दिखाता है। वेद संसार की प्रथम पुस्तक है। वेद में आर्य शब्द का प्रयोग है जिसका अर्थ कोई जाति नहीं अपितु श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव वाला मनुष्य होता है। वेद के बाद ऋषियों द्वारा ब्राह्मण, मनुस्मृति, उपनिषद तथा दर्शन ग्रन्थों की रचनायें हुईं। इनमें से किसी ग्रन्थ में आर्यों के आर्यावर्त व भारत से बाहर कहीं और किसी मूल स्थान का वर्णन नहीं है। दूसरे आदिवासी कहे जाने वाले लोगों के किसी प्राचीन ग्रन्थ में आर्य व द्राविणों के युद्ध का वर्णन नहीं है न ही आर्यों के ग्रन्थों में है। ऐसी स्थिति में यही कहना व मानना उचित होगा कि अंग्र्रेजों ने भारतीयों को देश की आजादी से विमुख करने के लिए स्वार्थवश आर्यों के भारत से बाहर से आने का असत्य मत प्रचारित किया था। भारत अर्थात् आर्यावर्त ही आर्यों वा हिन्दुओं का मूल देश है। आर्य जाति सूचक शब्द नहीं है। आर्य का यदि अंग्रेजी में अनुवाद करें तो इसका एक अर्थ जेन्टलमैन अर्थात् सदाचारी मनुष्य हो सकता है। अतः संसार के वह सभी लोग आर्य हैं जो सच्चे ईश्वरभक्त आस्तिक हैं, ज्ञानी हैं, सदाचारी हैं, निष्पक्ष, सच्चे धार्मिक एवं देशभक्त है, अहिंसक प्रवृत्ति के हैं, सभी मूक व अहिंसक पशुओं के प्रति दया करने वाले हैं तथा वेद की शिक्षाओं के अनुसार चलने वाले हैं। हमारा इस लेख को लिखने का मात्र यही उद्देश्य था कि सभी देशवासी आर्य शब्द का सत्य अर्थ जान सकें और विदेशियों तथा भारत के छद्म सेकुलरों द्वारा चलाये गये मिथ्या वाद व मान्यता की सत्यता को जान सकें। लेख को विराम देने से पूर्व यह भी बता दें सृष्टि की आदि में मानव की उत्पत्ति वर्तमान के तिब्बत प्रदेश में हुई थी। सृष्टि के आरम्भ इन्हें ही परमात्मा व उसके बाद ऋषियों से चार वेदों का ज्ञान प्राप्त हुआ था। यह सब लोग आर्य थे। उन दिनों संसार के अन्य किसी स्थान पर मानव सृष्टि नहीं हुई थी। तिब्बत में जब रहने वाले कुछ आर्यों में विचार मतभेद आदि होने से विवाद हुए तब इनमें से कुछ लोग विश्व के सुदूर प्रदेशों में अपने वायुयानों से जाकर बस गये थे। ऋषि दयानन्द की पुस्तक उपदेशमंजरी में इसका उल्लेख हुआ है। समय के साथ अनेक परिवर्तन हुए। इन्हीं में एक एक यह परिवर्तन है कि महाभारत के बाद आर्यावर्त से बाहर रहने वाले लोग वैदिक ज्ञान के प्रचार की समुचित व्यवस्था न होने से धर्म व मत की दृष्टि से वैदिक मत से इतर अन्य मतों के अनुयायी व आग्रही हो गये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य