*महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनन्य शिष्य स्वाधीनता सेनानी श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा की जन्म–जयन्ती के अवसर पर उन्हें कोटि कोटि नमन।*

    श्याम जी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर 1857 को  गुजरात के मांडवी (कच्छ) जिले में हुआ था। वे एक मेधावी, तेजस्वी, संस्कृत के विद्वान तथा देशप्रेमी व्यक्ति थे। उन्होंने वकालत पास करने के पश्चात् कुछ समय अजमेर में प्रैक्टिस की। उनकी योग्यता को देखकर रतलाम के महाराजा ने उनको अपने राज्य का दीवान नियुक्त किया था। सन 1877 को मात्र 20 वर्ष की आयु में मुंबई नगर में उनका महर्षि दयानंद सरस्वती से संपर्क हुआ। महर्षि दयानन्द की प्रेरणा व आज्ञा से वे लंदन गए और वहां रहकर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से एम.ए तथा बार एट लॉ की उपाधि हासिल करने वाले वे पहले भारतीय बने। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में वे संस्कृत के सहायक प्रोफैसर भी रहे। वे महर्षि दयानन्द से संस्कृत में पत्र व्यवहार करते थे। उन्होंने लन्दन में इण्डिया हाउस की स्थापना की जो क्राँतिकारियों के प्रशिक्षण का केन्द्र भी बना एवं कई क्रान्तिकारियों को तैयार कर देश के स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। 31 मार्च 1930 को जिनेवा में उनका निधन हो गया। भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी अपने मुख्यमन्त्री काल में उनकी अस्थियाँ जिनेवा से लेकर आये थे।
        शहीद भगत सिंह, लाला हरदयाल, श्याम जी कृष्ण वर्मा और सुभाष चन्द्र बोस आदि चारों में स्वतन्त्रता सेनानी होने के अतिरिक्त एक समानता यह भी थी कि इन चारों ने वीर सावरकर द्बारा रचित *1857 का स्वातंत्र्य समर* पुस्तक का प्रकाशन किया था। *1857 का स्वातंत्र्य समर* विश्व की ऐसी इतिहास पुस्तक है, जिसे प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबंधित कर दिया गया था। सन् 1909 में इस पुस्तक के प्रथम संस्करण के गुप्त प्रकाशन से 1947 में प्रतिबन्ध हटने तक (38 वर्ष) के लंबे कालखंड में इसके कितने ही गुप्त संस्करण अनेक भाषाओं में छपकर देश-विदेश में वितरित होते रहे। देशभक्त क्रांतिकारियों के लिए यह पुस्तक ‘गीता’ जैसी बन गई। इसकी एक-एक प्रति गुप्त रूप से एक हाथ से दूसरे हाथ होती हुई अनेक अंतःकरणों में क्रांति की ज्वाला सुलगा जाती थी। 
  वीर सावरकर 1857 की घटनाओं को भारतीय दृष्टिकोण से देखते हुए उन शूरवीरों के अदम्य साहस, वीरता, उत्साह व दुर्भाग्य की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने इस क्रान्ति को उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर पुन: व्याख्यित करने का निश्चय किया। उन्होंने कई महीने इण्डिया हाउस पुस्तकालय में इस विषय पर अध्ययन में बिताए। 1908 में वीर सावरकर ने पूरी पुस्तक मूलतः मराठी में लिखकर पूर्ण की। उस समय इसका मुद्रण भारत में असम्भव था, इसकी मूल प्रति इन्हें लौटा दी गई। इसका मुद्रण इंग्लैंड व जर्मनी में भी असफल रहा। इंडिया हाउस में रह रहे कुछ छात्रों ने इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद किया और अन्ततः यह पुस्तक 1909  में हॉलैंड में मुद्रित हुई। इसका शीर्षक था, *द इण्डियन वार ऑफ इंडिपेन्डेंस – 1857* इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण लाला हरदयाल द्वारा गदर पार्टी की ओर से अमरीका में निकला और तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह द्वारा निकाला गया। इसका चतुर्थ संस्करण नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा सुदूर-पूर्व में निकाला गया। फिर इस पुस्तक का हिंदी, पंजाबी, उर्दू व तमिल में भी अनुवाद किया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद भारत में भी गुप्त रूप से इसका एक संस्करण मुद्रित हुआ। इसकी मूल पाण्डुलिपि मैडम भीकाजी कामा के पास पेरिस में सुरक्षित रखी थी। यह प्रति अभिनव भारत के डॉ. क्यूतिन्हो को प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान पैरिसम संकट आने के दौरान सौंपी गई। डॉ. क्युतिन्हो ने इसे किसी धार्मिक ग्रन्थ की भांति 40 वर्षों तक सुरक्षित रखा। भारत के स्वतंत्र होने के उपरान्त उन्होंने इसे रामलाल वाजपेयी और डॉक्टर मूंजे को दे दिया, जिन्होंने उसे वीर सावरकर जी को लौटा दिया। अन्ततः बम्बई सरकार ने इस पुस्तक पर से मई, 1946 में लागू प्रतिबन्ध को हटा लिया।
     स्वतन्त्रता सेनानी श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा को पुनः कोटि कोटि नमन।

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