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संपादकीय

पिता द्यौ और माता पृथ्वी है

ज्येष्ठ माह में सूर्य की तेज रश्मियों से समुद्र में बड़ी तेजी से वाष्पीकरण होता है। अनंत जलराशि सूर्य की किरणों पर सवार होकर आकाश में चली जाती है, फिर एक निश्चित समय पर मेघों के माध्यम से यह जल वर्षा के रूप में धरती पर बिखर जाता है। चारों ओर हरियाली छा जाती है। औषधियों का, वनस्पतियों का और धन धान्य का प्राबल्य होता है और पृथ्वी का हर प्राणी प्रसन्न हो उठता है। ऐतरेय ब्राह्मïण में इस प्रकार की अवस्था को द्यौ और पृथ्वी का विवाह कहा गया है। कहने का अभिप्राय ये है कि लौकिक रूप में हमारे पिता द्यौ हैं और माता पृथ्वी है। इतने पवित्र बंधन और पवित्र संबोधन के निहितार्थों पर तनिक विचार करें आपको ज्ञात हो जाएगा कि ऐसी उपमा तो संसार के किसी भी धर्मग्रंथ में माता पिता के लिए नही दी गयी। तब हम भारतीय संस्कृति को नारी विरोधी मानने की भूल क्यों करें?
नारी उषा है नर सूर्य है
उषा सूर्योदय की महान घटना की संदेशवाहिका है। मानो संसार को बता रही है कि अब सूर्यदेव प्रकट होने ही वाले हैं और सारे जग का अंधकार उनके आगमन से दूर हो जाएगा, इसलिए संसार भर के सोने वाले नर नारियों उठो, जागो और अंधकार दूर भागने की इस घटना के साक्षी बनो। नारी भी प्रकाशवती उषा है वह भी अपने उच्च संस्कारित जीवन से यही संदेश देती है। इसीलिए विवाह के समय वह अपने सूर्य पतिदेव से आगे चलती है। ऋग (7 / 80 / 2) में कहा गया है-अग्र एति युवतिहृयाणा।
अर्थात जैसे युवती स्वाभाविक लज्जा को त्यागकर वर के आगे आगे चलती है, वैसे ही युवती उषा सूर्य के आगे आगे चल रही है।
यहां मानो पति अपनी प्रकाशवती उषा को जीवन में सम्मान के साथ सदा आगे ही आगे रखने का संकल्प ले रहा है। कह रहा है कि तू आगे ही आगे चलती रह और हर किसी के जीवन में उषा की पौ जगाकर, बिखेरकर सबको सावधान करती रह। ज्ञान का, विद्या का प्रकाश फैला और वासना एवं विषयभोग के अज्ञान अंधकार को मिटा। अपने आपको पुरूष समाज के सामने वासना की वस्तु के रूप में प्रस्तुत मत कर, अपितु आचार्या के रूप में प्रस्तुत कर, उसकी भोग्या मत बन, अपितु उसके लिए आदर्श स्थापित कर और उसकी वंदनीया बन।

( मेरा यह लेख पूर्व प्रकाशित हो चुका है)

डॉ राकेश कुमार आर्य

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