भारत में नारी सदा वंदनीया और पूज्यनीया रही है। कुछ लोगों का यह कहना कि भारत में नारी सदा उपेक्षा और तिरस्कार की पात्र रही है-सर्वदा भ्रामक दोषपूर्ण और अतार्किक है। परंतु इसमें दोष ऐसा मिथ्या आरोप लगाने वाले भारतीयों का नही है, क्योंकि उन्होंने अपने आदर्श विदेशी इतिहास लेखकों और विचारकों का उच्छिष्ट भोजन खाया है-जिसमें चाहे कितनी ही विषयुक्त वमन कारी दुर्गंध क्यों न आ रही हो-तब भी ‘नमकहरामी’ का पाप नही करना चाहिए। इसलिए इन लोगों ने बिना सोचे समझे वही कहा है जो इनके विदेशी इतिहास लेखकों या विचारकों ने इन्हें बताया या समझाया है। फलस्वरूप भारत में मध्यकालीन इतिहास भी विकृतियों और विसंगतियों को ही ‘भारत के अतीत का सच’ कहकर स्थापित किया गया और हम अनजाने में ही विकृतियों, विसंगतियों और अवैज्ञानिक साक्ष्यों और प्रमाणों के उपासक बन गये। नारी को हमने पूजनीया माना और उसकी पूजा भी की। परंतु हमें बताया और पढ़ाया गया उन रूढ़ियों, विसंगतियों और विकृतियों का इतिहास जिसमें नारी को या तो पांव की जूती कहा गया, या ताड़न की अधिकारी माना गया, या मुस्लिमों की तरह उसे विषय भोग की वस्तु माना गया, या उसे अशिक्षित रखकर वेदपाठन के अधिकार से वंचित किया गया, या उसे शोषण, उत्पीड़न और अत्याचार के लिए मनुष्य के हितार्थ जन्म दिया गया। ये सारी चीजें ही भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के विपरीत हैं। भारत की संस्कृति नारी शोषण को नही अपितु नारी पोषण को प्राथमिकता देती है, उसे देवी, उषा (प्रकाशवती) कहकर सम्मानित और प्रतिष्ठित करती है। हमने विकारों की गहन निशा से पीछे जाकर प्रकाशवती उषा के इतिहास की मनोरम झांकियों को जानकर देखना बंद कर दिया। निस्सन्देह प्रकाशवती उषा की ये मनोरम झांकियां हमें वेद के स्वर्णिम पृष्ठों पर ही मिल सकती थीं। क्योंकि भारतीय संस्कृति की उदगम स्थली गंगोत्री तो वेदमाता ही है। जिस संस्कृति में जीवन को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पवित्र धामों में स्नान कर मुक्ति का अधिकारी बनाने वाले वेद को माता कहा जाता हो, गायत्री को ‘माता’ कहा जाता हो, गंगा को माता कहा जाता हो, गाय को माता कहा जाता हो, देश की पवित्र भूमि को माता कहा जाता हो-जहां पुरूष को रघुलोक और नारी को पृथ्वी, पुरूष को साम और नारी को ऋक, पुरूष को दिन और नारी को निशा, पुरूष को प्रभात और नारी को उषा, पुरूष को मेघ और नारी को विद्युत, पुरूष को अग्नि और नारी को ज्वाला पुरूष को आदित्य और नारी को प्रभा, पुरूष को धर्म और नारी को धीरता कहकर सम्मानित करने और हर स्थान पर उसे बराबरी का स्थान देने की अनूठी और अनोखी परंपरा हो, उस देश में नारी को कुछ लोगों ने चाहे जितना पतित कर दिया हो या माना हो-पर उनका ऐसा मानना उस देश का धर्म नही हो सकता। अशिक्षित गंवार एवं मूर्खा नारी को बनाना भारत का कभी धर्म नही रहा। क्योंकि हमारे यहां तो विवाह के समय वधू को यह आशीष वचन दिया जाता है :–
प्रबुध्यस्व सुबुधा बुध्यमाना
(अथर्व 14 / 2 / 75)
अर्थात हे नव वधू! प्रबुद्घ हो, सुबुद्घ हो, जागरूक रह।
क्या किसी अशिक्षित, गंवार और मूर्ख वधू को यह उपदेश दिया जा सकता है?
नारी साम्राज्ञी है
वेद की नारी का आदर्श सदगृहस्थ के माध्यम से राष्ट्र और संसार का निर्माण, करना रहा। जिन अज्ञानियों ने नारी को घर की चारदीवारियों में कैद एक पिंजरे का पंछी कहकर संबोधित किया और आधुनिकता के नाम पर उसे अपने पति का ही प्रतिद्वंद्वी बना कर नौकरी पेशा वाली बना दिया-उस नारी ने अपना गृहस्थ सूना कर लिया। उसने अपने प्यार को गंवाया और गृहस्थ के वास्तविक सुख से वह वंचित हो गयी क्योंकि प्यार के स्थान पर वह प्रतियोगिता में कूद गयी और ‘कम्पीटीटिव’ दृष्टिकोण से उसने अपने घर में ही पाला खींच लिया। यद्यपि कई स्थानों पर दुष्टता पति की ओर से भी होती है-हम यह मानते हैं।
माता को निर्माता कहकर विभूषित करने वाली भारतीय संस्कृति सुसंतान की निर्माता माता को संसार की सुव्यवस्था की व्यवस्थापिका मानती है। क्योंकि सुसंतान ही सुंदर व सुव्यवस्थित संसार की सृजना कर सकती है। इसलिए घर से संसार बनाने वाली भारतीय सन्नारी ही विश्व शांति की और वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा की ध्वजवाहिका है। उसे इसी रूप में वंदनीया और पूजनीया माना गया है। ऐसी सन्नारी को पर्दे में बंद रखकर या घर की चारदीवारी के भीतर कैद करने की परंपरा भारत की सहज परंपरा नही है, अपितु यह मध्यकाल की एक विसंगति है। जिसे अपने लिए बोझ मानने की आवश्यकता हम नही समझते, परंतु नारी का प्रथम कर्त्तव्य अपने जीवन को सुसंतान के निर्माण के लिए होम कर देना अवश्य मानते हैं। पश्चिमी जगत ने नारी को ‘मां’ नही बनने दिया उसे ‘लेडी’ और ऑफिस की ‘मैडम’ बनाकर रख दिया-फलस्वरूप पश्चिमी पारिवारिक व्यवस्था में हर कदम पर कुण्ठा और तनाव है।
अब तनिक ऋग्वेद (10-85-46) इस मंत्र पर दृष्टिपात करें :-
साम्राज्ञी श्वसुरे भव, सम्राज्ञी श्वश्रवां भव।
ननान्दिरि सम्राज्ञी भव साम्राज्ञी अधि देवृषु।
अर्थात तू श्वसुर की दृष्टि में सम्राज्ञी हो, सास की दृष्टि में सम्राज्ञी हो, ननद की दृष्टि में सम्राज्ञी हो, देवरों की दृष्टि में सम्राज्ञी हो।
ऐसी नारी के लिए अर्थवेद (3/ 30 / 2) में प्रभु से कामना की गयी है-
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवाम अर्थात पत्नी पति से मधुर और शांत वाणी बोले।
मेरा यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है
डॉ राकेश कुमार आर्य