सर्वमंगलों की मंगल विश्वजननी, मूलप्रकृतिईश्वरी, आद्याशक्ति श्रीदुर्गा
-अशोक “प्रवृद्ध”
वर्तमान में नवरात्र में अष्टभुजाओं वाली भगवती दुर्गा की प्रतिमा स्थापन, पूजन, आराधना की परिपाटी है। भगवती दुर्गा की प्रतिमा में हाथों की संख्या विभिन्न पुराणों में अलग-अलग अंकित है। वराह पुराण 95/41 में अंकित है कि माता वाराही अपनी बीस हाथों में अस्त्र-शस्त्र एवं धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों- शंख,चक्र, गदा, पद्म, शक्ति, महोल्का, हल,मूसल, खड्ग, परिधि, भृशुण्डि, मस्तक, खेमट, तोमर, परशु, पाश, कुन्त,त्रिशूल, सारंग, धनुषादि को धारण करती है। देवी भागवतपुराण में इनके अठारह हाथों का उल्लेख है। हेमाद्री ग्रन्थ में इनके दस और आठ हाथों का उल्लेख है। माता की चतुर्भुजी प्रतिमा भी देखी जाती है, परंतु देवी की दसभुजा और अष्टभुजा स्वरुप ही जनमानस में सर्वप्रचलित है। देवी की दस भुजाएं दस दिशाओं की केन्द्रीय शक्ति होने तथा दस विभूतियों से मानव की रक्षा करने के भाव का प्रमुख रूप से द्योतक है। इसी प्रकार अष्टभुजा आठ दिशाओं में लोक के योग क्षेम के भाव का द्योतक है। इसी कारण देवी की दस विद्या, नवदुर्गा अथवा अष्ट मातृका रूप में नाम-स्मरण, पूजा-अर्चना की परिपाटी है। शताक्षी एवं शाकंभरी भी इनका नाम है। आठ दिशाओं में लोक के योग क्षेम के भाव का द्योतक अष्टभुजा वाली दुर्गा की वास्तविकता का वर्णन व विश्लेषण वैदिक मत में भी किया गया है। वैदिक विद्वानों के अनुसार पहली भुजा (भुज) पूर्व की है, जहां से उदित होने वाले अदिति सूर्य का प्रातः काल में पूर्वाभिमुख होकर के याग करना चाहिए। अपने जीवन को प्रकाशमान करना चाहिए। क्योंकि प्रकाश ही तो मानव का जीवन है। अपने अंतर्तम के अंधकार को समाप्त करना चाहिए। अंधकार अज्ञान का प्रतीक है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है। यह देवी की एक भुजा है। दूसरी भुजा दक्षिण दिशा है। अध्यात्म में दक्षिण दिशा में विज्ञान की तरंगे ओत- प्रोत रहती है। दक्षिण में ही शब्दों का भंडार होता है। दक्षिण में ही सोम है। दक्षिण दिशा ही अग्नि और विद्युत का भंडार है। इसलिए यह ईश्वर प्रदत्त दूसरी दिशा, दूसरी भुजा और दूसरी शक्ति है। तीसरी दिशा पश्चिम है, जो ईश्वरीय दिव्य शक्ति माता का तृतीय भुज कहलाता है। यह भुज अन्न के भंडार के रूप में जानी जाती है। जब पश्चिम दिशा से वायु वेग से गति करती है, विद्युत को साथ लेकर आती है तो माता पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार की आभा को वर्षा से परिणत कर देती है। नाना प्रकार का खाद्य और खनिज पदार्थ इसी से उत्पन्न होने लगता है। इसलिए यह माता की तीसरी भुजा है। चौथी भुजा उत्तरायण है। योगी, साधकजन सभी उत्तर की दिशा को अभिमुख होकर योगाभ्यास करते हैं। प्राण की गति को प्राप्त करते हैं। सभी शुभ कार्य उत्तर दिशा की ओर मुख करके होते हैं। सभी ज्ञान का भंडार उत्तरायण में रहता है। इसलिए यह ईश्वर रूपी माता की दी हुई चौथी भुजा है। पांचवी भुजा ध्रुवा कही जाती है, जो प्रकृति के साथ जुडने वाली नीचे की ओर की भुजा अथवा दिशा है। प्रकृति एवं पृथ्वी से अनेक साधन और समर्थ प्राप्त होते हैं। साधक अथवा वैज्ञानिक इसमें भी गति करता है। छठा भुजा उर्ध्वा में रहता है अर्थात ऊपर की दिशा जो अंतरिक्ष लोक से द्युलोक तक की गति कराता है। नाना प्रकार की सुखों की, आनंद की, तथा देवत्व की वृष्टि करता है। इसकी प्राप्ति के लिए प्राणी को दैव (देवी) याग करना चाहिए। और ब्रह्मवेत्ता अर्थात ब्रह्म का चिंतन करने वाला साधक बनना चाहिए। योगी की भांति उड़ान करते हुए अनेक लोकों में, मंडलों में भ्रमण करना चाहिए। विज्ञान के युग में गति करनी चाहिए। वैज्ञानिक यंत्रों पर विद्यमान होकर के लोक- लोकातंरों की यात्रा योगाभ्यासी करने लगता है।
उल्लेखनीय है कि याग के समय कलश की स्थापना की दिशा ईशान कोण होती है। योगाभ्यास करने वाला प्राणी मूलाधार में मूल बंध को स्थित करके नाभि केंद्र में ज्योति का प्रकाश दृष्टिपात करता है। उसके बाद जालंधर बंध को लगा करके हृदय चक्र में ज्योति को देखता है। तत्पश्चात कंठ में और स्वाधिष्ठान चक्र में, जहां त्रिवेणी का स्थान अर्थात ईड़ा, पिंगला, सुषुम्ना का मिलन होता है, वहां त्रिभुज कहलाता है, इस त्रिभुज वाले स्थान पर तीनों गुण- रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण को दृष्टिपात करके आत्मा ब्रह्म रंध्र में प्रवेश करता है। और ब्रह्म रंध्र में जब योगेश्वर जाता है, तो वह सर्व ब्रह्मांड को दृष्टिपात करता है। ईशान कोण में विद्यमान ज्योति को योगी ध्यानावस्थित करता है। कुंभकार के द्वारा मृदा से निर्मित कलश में जल ओत-प्रोत होता है। इसमें अमृत होता है। वह अमृत प्राण की वर्षा कर रहा है। ज्ञान की वृष्टि कर रहा है। अर्थात वह सरस्वती का देने वाला है। ज्ञान का पान करने से सरस्वती आती है। अमृत के ही पान करने वाले सरस्वती को अपने में धारण करते हैं। यह ईशान माता काली अर्थात पृथ्वी की सातवीं भुजा है। आठवां भुजा दक्षिणायन कृति कहलाता है इसमें विद्युत समाहित होकर और पश्चिम दिशा से अन्न का भंडार लेकर के मानव का भरण पोषण करती है। इसलिए वह भी एक देवी का रूप है, शक्ति का रूप है। इसीलिए योगी व विद्वतजन कल्याण करने वाली माता, देवी से दुर्गुणों को दूर करके, दुर्गुणों को शांत करके कल्याण करने, अपनी अमृत की वृष्टि करने की प्रार्थना करते हैं।
इस अष्टभुजा दुर्गा का अपना राष्ट्रीय महत्व भी है। दुर्गा समस्त शक्ति अर्थात राष्ट्र शक्ति का प्रत्तिरूप है, जो कि व्यक्ति और व्यक्तियों का सम्मिलित रूप राष्ट्र, शारीरिक रूप बल, सम्पति बल एवं ज्ञान बल से सिंह सदृश है, उस व्यक्ति में, उस राष्ट्र पर शक्ति (दुर्गा) प्रकट होती है। राष्ट्र को पशुबल (कार्तिकेय), सम्पति बल (लक्ष्मी) एवं ज्ञान बल (सरस्वती) चाहिए, किन्तु बुद्धिहीन के लिए बल, सम्पति एवं ज्ञान निरर्थक ही नहीं, प्रत्युत आत्मसंहार के लिए प्रबल अस्त्र सिद्ध होते हैं। इसीलिए मनुष्यता के आदिदेव बुद्धि के महाकाय (गणपति) वर्तमान हैं, जिनकी विशाल बुद्धि (शरीर) के भार के नीचे सभी विघ्न (चूहे) विवश रहते हैं। समस्त दिशाओं में फैली हुई राष्ट्रशक्ति ही राष्ट्र की दो, चार, आठ, दस, सहस्त्र और अनन्त तथा असंख्य भुजाएं हैं तथा समस्त प्रकार के उपलब्ध अस्त्र-शस्त्रादि ही दिक्पालों के अस्त्र-शस्त्रादि इनके आयुध हैं। कोई व्यक्ति और राष्ट्र ऐसा नहीं है, जिसका विरोध न हो। यही महिष है। दुर्गा के रूप में यह भारतशक्ति की उपासना है।
पौराणिक मान्यतानुसार नवरात्र उत्सव के चौथे दिन पूजी जाने वाली कूष्माण्डा देवी की आठ भुजाएं हैं, इसलिए ये माता अष्टभुजा कहलाती हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृत में कुम्हड़े को कुष्माण्ड कहे जाने कारण इस देवी को कुष्माण्डा के नाम से संज्ञायित किया जाता है। अपनी मन्द, हल्की हंसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्माण्डा नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अन्धकार ही अन्धकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत् हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा अथवा आदिशक्ति कहा गया है। इस देवी का वास सूर्यमण्डल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कान्ति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है। कूष्माण्डा अर्थात अण्डे को धारण करने वाली। स्त्री और पुरुष की क्रमशः गर्भधारण और गर्भाधान शक्ति है। मनुष्य योनि में स्त्री और पुरुष के मध्य इक्षण के समय मंद हंसी (कूष्माण्डा देवी का स्व भाव) के परिणाम स्वरूप जो उठने वाला आकर्षण और प्रेम का भाव भगवती की ही शक्ति है। इनके प्रभाव को समस्त प्राणीमात्र में देखा जा सकता है। ब्रह्मा के दुर्गा कवच में वर्णित नवदुर्गा नौ विशिष्ट औषधियों में कूष्माण्डा भी शामिल है। पेठा और कुम्हड़ा नाम से प्रचलित यह औषधि रक्त विकार दूर कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिक रोगों में यह अमृत समान है।
संसार सागर में डूबते हुए पुत्रों को अमोधवाणी से उत्साहित करने वाली त्रैलोक्यजननी, विश्वम्भरी, कृपासागरा, सच्चिदानन्दरूपिणी, भक्तवत्सला, अमृतरसदायिनी, कामदूहा, प्रकृतिरूपा श्रीदुर्गा की उपासना भारतवर्ष के समस्त अंचलों में विभिन्न रूपों में की जाती है। यह वर प्रदान करने के लिए सर्वदा उन्मुक्तहस्त खड़ी रहती है। इसीलिए इसका नाम जगत्तारिणी है। सम्पूर्ण विश्व को सत्ता, स्फूर्ति और सरसता प्रदान करने वाली सच्चिदानन्दरूपा महाचित्ति भगवती श्रीदुर्गा अपने तेज से तीनों लोकों को परिपूर्ण करती हैं तथा जीवों पर दया करके स्वयं ही सगुण भाव को प्राप्त कर ब्रह्मा, विष्णु, महेश से उत्पति, पालन और संहार करती है। विश्वजननी, मूलप्रकृतिईश्वरी, आद्याशक्ति श्रीदुर्गा सर्वागी, समस्त प्रकार से मंगल करने वाली एवं सर्वमंगलों की भी मंगल है। प्रकृति स्वधा है, पृश्नि है तथा पिशंगिला, पिलिप्पिला, अजा, अमृता, अदिति, उत्, अप, अवि, सिन्धु, ब्रह्म, त्रदत्, त्रिधातु आदि अनेक नाम वाली हैं। प्रकृति से जीव को विविध प्रकार की भोग सामग्री प्राप्त होती है, जिसे वह अपने कौशल द्वारा और भी उपयोगी बना लेता है।
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