₹ 23/- प्रति किलो की लागत आती है देसी घी बनाने में! चमड़ा सिटी के नाम से प्रसिद्ध कानपुर में जाजमऊ से गंगा जी के किनारे किनारे 10 -12 कि.मी. के दायरे में आप घूमने जाओ तो आपको नाक बंद करनी पड़ेगी! यहाँ सैंकड़ों की तादात में गंगा किनारे भट्टियां धधक रही होती हैं! इन भट्टियों में जानवरों को काटने के बाद निकली चर्बी को गलाया जाता हैं! इस चर्बी से मुख्यतः 3 ही वस्तुएं बनती हैं! (1) एनामिल पेंट (जिसे अपने घरों की दीवारों पर लगाते हैं!) (2) ग्लू (फेविकोल) इत्यादि, जिन्हें हम कागज, लकड़ी जोड़ने के काम में लेते हैं!) (3) सबसे महत्वपूर्ण जो चीज बनती हैं वह है “देशी घी” जी हाँ तथाकथित “शुध्द देशी घी” यही देशी घी यहाँ थोक मण्डियों में 120 से 150 रूपए किलो तक खुलेआम बिकता हैं! इसे बोलचाल की भाषा में “पूजा वाला घी” बोला जाता हैं! इसका सबसे ज़्यादा प्रयोग भण्डारे कराने वाले भक्तजन ही करते हैं! लोग 15 किलो वाला टीन खरीद कर मंदिरों में दान करके अद्भूत पुण्य कमा रहे हैं! इस “शुध्द देशी घी” को आप बिलकुल नहीं पहचान सकते! बढ़िया रवे दार दिखने वाला यह ज़हर सुगंध में भी एसेंस की मदद से बेजोड़ होता हैं! औधोगिक क्षेत्र में कोने कोने में फैली वनस्पति घी बनाने वाली फैक्टरियां भी इस ज़हर को बहुतायत में खरीदती हैं, गांव देहात में लोग इसी वनस्पति घी से बने लड्डू विवाह शादियों में मजे से खाते हैं! शादियों पार्टियों में इसी से सब्जी का तड़का लगता हैं! कुछ लोग जाने अनजाने खुद को शाकाहारी समझते हैं! जीवन भर मांस अंडा छूते भी नहीं, क्या जाने वो जिस शादी में चटपटी सब्जी का लुत्फ उठा रहे हैं उसमें आपके किसी पड़ोसी पशुपालक के कटड़े (भैंस का नर बच्चा) की ही चर्बी वाया कानपुर आपकी सब्जी तक आ पहुंची हो! शाकाहारी व व्रत करने वाले जीवन में कितना संभल पाते होंगे अनुमान सहज ही
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