नेहरू जी के समर्थक उनको ‘बेताज का बादशाह’ कहा करते थे। उनके समर्थक ‘गोदी मीडिया’ के पत्रकारों ने उन्हें इसी प्रकार स्थापित भी किया था। तब कहीं किसी ने यह नहीं कहा था कि ‘ बेताज का बादशाह ’ शब्द अपने आप में तानाशाही प्रवृत्ति को प्रकट करता है। जिसमें शासक की स्वेच्छाचारिता ,निरंकुशता और उच्छृंखलता प्रकट होती है। जिसे एक लोकतांत्रिक देश में उचित नहीं कहा जा सकता। वैसे भी जब देश शासक के इन अवगुणों से मुक्ति पाकर उस समय आजाद हुआ था, तब किसी भी प्रधानमंत्री के द्वारा अपने आपको ‘बेताज का बादशाह’ कहलवाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं था। कुछ लोग आज ‘गोदी मीडिया’ पर जब अपने विचार रखते हैं तो इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि जैसे ‘गोदी मीडिया’ का मोदी काल में ही उदय हुआ है, जबकि सच्चाई यह है कि ‘गोदी मीडिया’ नेहरू काल में ही जन्म ले चुकी थी।
वैसे हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि नेहरू किसी हिंदू शासक को अपना आदर्श न मानकर मुगलों को अपना आदर्श माना करते थे। यही कारण था कि उन्होंने अपने आपको ‘बेताज का बादशाह’ कहलवाना उचित माना। उनके मन मस्तिष्क में बादशाही चीजें अच्छी तरह स्थापित थीं, ना कि किसी हिंदू शासक की राजनीति और देश के प्रति समर्पण की भावना। यही कारण था कि उन्हें किसी हिंदू शासक की भांति ‘बिना मुकुट का सम्राट’ कहलाना उचित नहीं लगा।
संविधान की मूल भावना के विपरीत प्रधानमंत्री के पद को सबसे अधिक सशक्त करने का काम भी नेहरू ने ही किया। उन्होंने सरदार पटेल के रहते तो मनमानी कम चलाई , परंतु उनकी मृत्यु के उपरांत तो वह बेताज का बादशाह नहीं ‘बेलगाम के बादशाह’ हो गए थे। उन्होंने अपने मंत्रियों को अकबर के दरबार में बैठे प्यादों की स्थिति में लाने का कुसंस्कार भारतीय राजनीति में डालने का प्रयास किया।
अब आते हैं पंडित जवाहरलाल नेहरु की बेटी और देश की तीसरी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी पर। उन्होंने अपने आपको प्रधानमंत्री बनाने में सफलता प्राप्त की थी। वह जिस प्रकार प्रधानमंत्री बनीं वह भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही अशोभनीय स्थितियां थी। आज तक देश के दूसरे और सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु का रहस्य लोगों के सामने नहीं आ पाया है। लोगों के द्वारा कई प्रकार के अनुमान इस विषय में लगाए जाते रहे हैं। 2014 में जब देश के प्रधानमंत्री मोदी बने तो उस समय लाल बहादुर शास्त्री जी के बेटे हरिकृष्ण शास्त्री ने इस विषय में यह मांग की थी कि लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु नहीं बल्कि हत्या हुई थी, इसलिए उनकी हत्या की निष्पक्ष जांच कराई जाए।
इंदिरा गांधी ने सत्ता बिल्कुल उसी प्रकार प्राप्त की थी जिस प्रकार मुगलिया शासन में शहजादे प्राप्त करते रहे थे। वह कौन सी परिस्थितियां थीं और कौन से रहस्य थे – जिनके चलते इंदिरा गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया ? – यह आज तक देश के सामने नहीं लाया गया है। यद्यपि देश को अपने दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु के विषय में जानने का पूरा अधिकार है, परंतु इस विषय को जानबूझकर छुपाया जाता रहा है और जितना छुपाया गया है राज्य उतना ही गहरा होता चला गया है। कांग्रेस का आज का नेतृत्व ‘ मोहब्बत की दुकान ‘ की बात करता है , परन्तु शास्त्री जी जैसे महान नेता के प्रति कांग्रेस की परंपरागत ‘ नफरत की नीति ‘ किसी से छिपी नहीं है। शास्त्री जी के बारे में यह भी एक तथ्य है कि जब वह देश के प्रधानमंत्री बन गए और देश के उस समय के प्रधानमंत्री भवन अर्थात तीन मूर्ति भवन से देश पर शासन कर रहे थे तो नेहरू जी की बहन विजयलक्ष्मी पंडित उन्हें अपने प्रधानमंत्री भाई नेहरू की इस शानदार कोठी में रहते देखकर अत्यंत दुख का अनुभव करती थीं और कई प्रकार के व्यंग्य शास्त्री जी की उपस्थिति में ही उन पर कर दिया करती थीं। उन्होंने शास्त्री जी पर यह दबाव बनाया कि वह यथाशीघ्र इस भवन को छोड़कर अन्यत्र चले जाए और इसे उनके भाई के लिए उनकी स्मृति के रूप में छोड़ दिया जाए। शास्त्री जी ने अपनी सौम्यता और शालीनता का परिचय देते हुए चुपचाप तीन मूर्ति भवन को छोड़ दिया। इस प्रकार कांग्रेस की नफरत की राजनीति जीत गई और एक अच्छे भले सज्जन प्रधानमंत्री को तीन मूर्ति भवन से निकाल दिया गया।
लाल बहादुर शास्त्री जी कांग्रेस की नफरत की राजनीति का ही शिकार नहीं हुए, बल्कि कांग्रेस की सामंती सोच के भी शिकार हुए। जिसके अंतर्गत कांग्रेस ने पहले दिन से ही यह मन बना लिया था कि अब देश पर आने वाले सैकड़ो हजारों वर्षों तक संभवत: कांग्रेस के एक परिवार का ही शासन रहने वाला है।
ऐसी परिस्थितियों में जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने अपने पिता और कांग्रेस के राष्ट्रपिता गांधी का अनुकरण और दस कदम बढ़कर किया। उन्होंने संविधान को अपनी मुट्ठी में ले लिया और पहले दिन से ऐसा काम करना आरंभ किया जैसे वह देश के लिए कोई लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री न होकर ‘रजिया सुल्ताना’ मिल गई हों?
संविधान के लिए इंदिरा गांधी का शासनकाल सचमुच दुर्दिनों का दौर था। उस समय ऐसे लोग काम कर रहे थे जो ‘इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया’ कहकर अपनी तानाशाह नेता का गुणगान किया करते थे। कांग्रेस के नेता और उसके समर्थकों के इस प्रकार के आचरण के चलते संवेदनशील लोग जब संविधान का अपमान होता देख रहे थे तो उन्होंने भी अपना निष्कर्ष कुछ इस प्रकार व्यक्त किया था कि इस समय देश में ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ़ इंडिया’ लागू न होकर ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ़ इंदिरा’ लागू हो चुका है। कांस्टिट्यूशन ऑफ इंदिरा ने ही देश में सबसे पहले आपातकाल की घोषणा की थी। तब ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ़ इंडिया’ ताक में रखा हुआ सब कुछ देखता रह गया था। उसकी आत्मा चीत्कार कर उठी थी। यह कुछ उसी प्रकार का दृश्य था जैसा महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण के समय भीष्म पितामह द्रोण, कृपाचार्य, और विदुर जैसे लोगों की नीची गर्दन को जाने के समय उपस्थित हुआ था। उस समय के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद भी ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ़ इंदिरा’ की इस तानाशाही से बुरी तरह आहत हुए थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )
मुख्य संपादक, उगता भारत