बिहार की धरती प्राचीन काल से ही विश्व समाज का बौद्धिक और राजनीतिक नेतृत्व करने में समर्थ रही है। भारत की सांस्कृतिक संपदा को समृद्ध करने में इस प्रांत का विशेष योगदान रहा है। इसके साथ ही साथ विश्व को राजनीतिक नेतृत्व के माध्यम से भारत के वसुधैव कुटुंबकम के शाश्वत संदेश को दूर-दूर तक फैलाने का काम भी बिहार की धरती ने सफलतापूर्वक संपादित किया है। जब हम बिहार का इस रूप में चिंतन करते हैं तो महात्मा बुद्ध , सम्राट अशोक और राजनीति के महान मनीषी चाणक्य की इस पवित्र धरती के विभिन्न महान व्यक्तित्व हमारी दृष्टि के समक्ष आ उपस्थित होते हैं।
बिहार की इसी परंपरा को नए स्वरूप में प्रस्तुत करने वाले और आधुनिक बिहार के निर्माता डा0 श्री कृष्ण सिंह को भी इसी रूप में स्मरण किया जा सकता है। उन्होंने संघर्ष की भट्टी में तपाकर अपने जीवन को महानता प्रदान की। उनका संपूर्ण जीवन बिहार के और मां भारती के प्रति समर्पित रहा। उन्होंने भारत के सनातन मूल्यों के प्रति सदैव श्रद्धावान बने रहकर देश ,धर्म और संस्कृति की अमूल्य सेवा की।
उन्होंने अपना जीवन जन सेवा के लिए समर्पित किया और जन सेवा को राष्ट्र सेवा के साथ इस प्रकार एकाकार किया कि दोनों के सहकार से उनका जीवन सबके लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया। प्रेरणा की ऐसी सरिता बन गया, जिसमें डुबकी लगाकर अनेक लोगों ने अपने जीवन को पवित्र किया। उन्होंने राजनीति में रहकर राष्ट्र को सदा प्राथमिकता प्रदान की। वह राजनीति के नहीं , राष्ट्र नीति के प्रतिबिंब थे। उन्होंने राजनीति में रहकर किसी प्रकार के छल कपट को नहीं अपनाया बल्कि राजनीति में शुचिता के प्रतीक बन गए। जिसके कारण वह सच्चे राष्ट्रवादी नायक के रूप में जाने जाते हैं।
15 अगस्त 1947 को देश को स्वाधीनता प्राप्त हुई। इसके पश्चात बिहार की बौद्धिक सम्पदा संपन्न विरासत के उत्तराधिकारी के रूप में उन्हें इस प्रांत का पहला मुख्यमंत्री बनाया गया। उस समय तक बिहार सभी क्षेत्रों में बहुत अधिक पिछड़ चुका था। अतः श्री कृष्ण सिंह के सामने बिहार के नवनिर्माण की बहुत बड़ी चुनौती थी, परंतु वह चुनौतियों को स्वीकार करने वाले जननायक के रूप में अब तक अपनी ख्याति प्राप्त कर चुके थे। वह चुनौतियों को चुनौती देने वाली महान प्रतिभा के धनी महापुरुष थे। कदाचित यही कारण था कि उन्हें बिहार जैसे पिछड़े प्रांत का मुख्यमंत्री बनाया गया। फलस्वरुप उन्होंने नई चुनौती को स्वीकार किया और बिहार के पहले मुख्यमंत्री के रूप में जन सेवा के अपने कार्य में जुट गए। उन्होंने बिहार की स्थिति को सुधारने के लिए अथक और गंभीर प्रयास किये । दिन रात उन्होंने बिहार के नवनिर्माण के लिए परिश्रम किया । जिस कारण संपूर्ण बिहारवासी ( जिसमें आज का झारखंड भी सम्मिलित है ) आज भी उनके प्रति अत्यंत श्रद्धा का भाव रखते हैं। बिहार की मिट्टी उनके पुरुषार्थ का आज भी अभिनंदन करती है। बिहार और झारखंड का बच्चा-बच्चा उनके प्रति वंदन का भाव रखता है।
डॉ श्री कृष्ण सिंह बहुत ही गंभीर प्रवृत्ति के राजनीतिज्ञ थे। वह सहज और सरल रहकर लोगों से बड़े आत्मीय भाव से मिलते थे। उनकी यह सहजता और सरलता लोगों को हृदय से प्रभावित करती थी। बनावट से बहुत दूर रहकर वह बिहार वालों के बीच बिहारी बनकर रहने में ही आनंद की अनुभूति करते थे। इसी प्रकार की सहजता और सरलता को अपनाकर वह अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते रहे। लोगों के साथ सहज सरल और सौम्य रहकर उन्होंने एकात्मता का ऐसा समन्वय स्थापित किया कि वह इस सरकार के माध्यम से कब लोकनायक बन गए, संभवत: उन्हें स्वयं को भी इस बात का कभी आभास नहीं हुआ ? जिसके चलते उन्हें भारी जन समर्थन मिलता रहा। परिणाम स्वरुप बड़ी से बड़ी चुनौती को वह अपने आत्मबल और जन सहयोग के बल पर सुलझाने में सफल होते रहे। महात्मा गांधी की सत्य और अहिंसा की नीति में उनका अटूट विश्वास था।
ऐसे धरतीपुत्र और विशाल व्यक्तित्व के धनी बिहार केसरी डा0 श्री कृष्ण सिंह का जन्म 21 अक्टूबर, 1887 ई0 (तद्नुसार कार्तिक शुक्ल पंचमी संवत् 1941 वि0) को उनके ननिहाल, वर्तमान नवादा जिला के नरहट थाना अन्तर्गत खनवाँ ग्राम, के एक संभ्रांत एवं धर्मपरायण भूमिहार ब्राहाण परिवार में हुआ था । उनका पैतृक गांव माउर (शेखपुरा) है। उनके पूज्य पिता का नाम श्री हरिहर सिंह एवं माता का नाम शकुन्तला देवी था । उनके नाना का नाम रटन सिंह था । ननिहाल में जन्म होने के कारण उन्होंने दोनों परिवारों की परंपराओं का निर्वाह करने का जीवन परिचय प्रयास किया और दोनों ही परिवारों को अपने विशाल व्यक्तित्व के चलते धन्य कर दिया। एक अति साधारण परिवार में उनका जन्म होना बिहार के लिए वरदान साबित हुआ। क्योंकि यदि उनका जन्म किसी बड़े घराने में हुआ होता तो निश्चय ही उनका जीवन कुछ दूसरे प्रकार का होता। उन्होंने सोते हुए कभी सपने नहीं देखे, उन्होंने ऐसे सपने देखे जिन सपनों ने उनको ही नहीं सोने दिया ।
बस , यही कारण था कि वह सपनों की दुनिया में न रहकर सपनों को ही धरती पर उतारने में लगे रहे। विक्टर ह्यूगो ने इन्हीं जैसे महान व्यक्तित्व के बारे में कभी कहा था कि सफलता वह है जब आप जानते हैं कि क्या करना है, परंतु आप वह करते हैं जो करना होता है। उन्होंने स्वामी विवेकानंद जी की इन पंक्तियों को भी जीवन में उतार लिया था कि सफलता का एक ही रास्ता है, अपने काम को प्यार से करो।
रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ की ये पंक्तियां उनके जीवन को पूर्णतया सार्थक बना देती हैं :-
संकट में यदि मुस्का न सको, भय से कातर हो मत रोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।
हर सपने पर विश्वास करो, लो लगा चाँदनी का चंदन,
मत याद करो, मत सोचो, ज्वाला में कैसे बीता जीवन।
इस दुनिया की है रीत यही – सहता है तन, बहता है मन,
सुख की अभिमानी मदिरा में, जो जाग सका वह है चेतन।
बचपन से ही श्रीबाबू चुनौतियों के प्रति दृढ़ संकल्पित रहने का अभ्यास करने लगे थे । उन्होंने अत्यंत विषम परिस्थितियों में आगे बढ़ना आरंभ किया, परंतु सदा ही अपने स्वाभिमान के प्रति सजग और सावधान रहे। उन्होंने विदेशी शासको के विरुद्ध चल रहे स्वाधीनता आंदोलन में तो भाग लिया ही साथ ही सामाजिक स्तर पर भी जन सुधार के कार्य करते रहे। शिक्षा संस्कार के प्रति उनके मन में गहरी अभिरुचि थी। डा0 श्रीकृष्ण सिंह ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव की प्राइमरी पाठशाला से ही प्राप्त की । इसके पश्चात छात्रवृत्ति प्राप्त कर वह आगे की पढ़ाई के लिए मुंगेर के जिला विद्यालय में भर्ती हो गए। सन् 1906 ई0 में इण्ट्रेंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। वास्तव में परीक्षाओं में सफल होने के ये ऐसे पल होते हैं, जिनसे किसी भी प्रतिभावान छात्र के आगे के जीवन की झलक दिख जाया करती है। अपनी पढ़ाई के काल में श्री बाबू ने अपनी प्रतिभा के आधार पर अपने आने वाले जीवन के बारे में स्पष्ट कर दिया था कि वह बहुत ऊंचाई पर जाकर ही विश्राम करेंगे। एंट्रेंस की परीक्षा प्राप्त करने के पश्चात वे पटना कालेज के छात्र बने । श्री बाबू ने 1913 में एम0 ए0 की डिग्री तथा 1914 ई0 में विधि स्नातक की डिग्री कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्राप्त की। जब वह शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तभी उन पर देशभक्ति का रंग चढ़ गया था।
उस समय की पीढ़ी में इतनी शिक्षा प्राप्त करना बहुत सम्मान की बात थी। जो विद्यार्थी शिक्षा के क्षेत्र में इस ऊंचाई तक पहुंच जाता था, समाज में उसके परिवार की गिनती विशेष परिवार के रूप में होती थी। स्पष्ट है कि इतनी शिक्षा प्राप्त करने पर दूर-दूर तक उनके परिवार का नाम हो गया था। उस समय इतनी पढ़ाई किए हुए किसी नवयुवक पर दूर-दूर के लोगों की दृष्टि गड़ जाया करती थी। अपने काल में स्वामी दयानंद जी महाराज ऐसे उच्च शिक्षा प्राप्त नवयुवकों से विशेष रूप से मिलकर उन्हें देश सेवा के लिए समर्पित और प्रेरित करते थे । कालांतर में इसी काम को महात्मा गांधी ने भी किया। महात्मा गांधी ने ऐसे अनेक नौजवानों को देश सेवा करने के लिए अपने साथ ले लिया था, जो उस समय विशेष पढ़ाई कर चुके थे। ऐसे नौजवानों में श्री बाबू सहित सरदार पटेल जैसे नौजवानों का नाम भी सम्मिलित था।
विधि स्नातक की डिग्री प्राप्त करने पर श्री बाबू ने किसी सरकारी नौकरी के चक्कर में न पड़कर वकालत करना आरंभ किया। उन्होंने मुंगेर के न्यायालय में अपनी वकालत आरंभ की। वकालत के क्षेत्र में भी उन्होंने ईमानदारी का निर्वाह करना आरंभ किया। जिसके परिणाम स्वरूप उनकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई। कुछ समय में ही वह अच्छे वकीलों में गिने जाने लगे।
जब अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर किया तो उस समय जिन क्रांतिकारी नौजवानों के भीतर अंग्रेज सरकार के इस देशविरोधी कृत्य के विरुद्ध क्रांति के भाव जागृत हुए उन्होंने सामूहिक रूप से अंग्रेजी सरकार का उस समय तीखा विरोध किया था। देश के अनेक नौजवानों को बंग भंग का विरोध कर रहे नौजवान क्रांतिकारियों और स्वाधीनता सेनानियों के जीवन व्रत ने गहराई से प्रभावित किया था। ऐसे नौजवानों में श्री बाबू भी सम्मिलित थे । अंग्रेज सरकार के इस प्रकार के कार्यों ने उनको गहराई से प्रभावित किया। यह बहुत ही आश्चर्य की बात है कि श्रीबाबू जहां सत्य महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा में विश्वास रखते थे, वहीं वे महान क्रांतिकारी और स्वराज्य के लिए हिंसक आंदोलन में भी विश्वास रखने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से भी प्रभावित थे।
इससे पता चलता है कि वे राजनीति में व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपनाने में विश्वास रखते थे। वह जानते थे कि सत्य और अहिंसा के सिद्धांत बहुत उपयोगी होने के उपरांत भी विदेशी अत्याचारी अंग्रेज सरकार का विनाश करने के लिए क्रांतिकारी उपायों में भी विश्वास रखना अपेक्षित है।
हम सभी जानते हैं कि हमारे स्वाधीनता आंदोलन के एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा था कि ” स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूंगा।” स्पष्ट है कि तिलक के इस प्रकार के विचारों का क्रांतिकारी श्री बाबू के जीवन पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ-साथ वह श्री अरविंद के विचारों से भी बहुत अधिक प्रभावित थे।
महात्मा गांधी से डॉ श्रीकृष्ण सिंह की पहली भेंट 1911 में हुई थी। उस समय महात्मा गांधी राष्ट्रीय पटल पर अपना स्थान बनाने का मार्ग खोज रहे थे। अभी लोग उनको जानते नहीं थे। और ना ही अभी तक उन्होंने कोई ऐसा बड़ा काम किया था जिससे लोग उनके अनुयायी बन सकें । इसके उपरांत भी उनके विचारों ने श्री बाबू को प्रभावित किया और वह उनके विचारों से सहमत और प्रभावित होकर उनके साथ चलने पर सहमत हो गए। वक्ता और अधिवक्ता का चोली दामन का साथ है। कहा जा सकता है कि वक्ता वही होगा जो अधिवक्ता हो और अधिवक्ता वही बन सकता है जो वक्ता हो । वक्त को अपने सामने बैठी भीड़ को एक न्यायाधीश के रूप में संतुष्ट करना पड़ता है और न केवल संतुष्ट करना पड़ता है बल्कि उसे अपने साथ बांधकर चलने की अद्भुत नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन भी करना होता है।
इसी प्रकार किसी योग्य अधिवक्ता को न्याय प्राप्ति के लिए अपने तर्क बाणों से अपने सामने बैठे न्यायाधीश को सहमत और संतुष्ट करना होता है। अधिवक्ता का भी अंतिम उद्देश्य जन सामान्य को न्याय दिलाना है और एक जननायक के रूप में वक्ता का भी अंतिम उद्देश्य जनता को न्याय दिलाना ही होता है।
दोनों का लक्ष्य एक है । दोनों की सोच एक है। संभवत: यही कारण है संसार क्षेत्र में दोनों कभी-कभी एक ही दिखाई देते हैं।
डॉ श्रीकृष्ण सिंह विधि व्यवसायी।होने के कारण एक अच्छे वक्ता भी थे। एक अच्छे वक्ता होने के कारण लोग उन्हें बिहार केसरी के नाम से जानने लगे थे। वे स्पष्टवादी थे और जब बोलते थे तो उनके बोलने में सब कुछ साफ-साफ दिखाई देने लगता था। उनके व्यक्तित्व की इसी विलक्षणता के कारण संत विनोबा भावे जी ने उनके बारे में कहा था कि ” वे अपने दिल की बातों को छिपाना तो जानते ही नही थे । तालाब के स्वच्छ पानी की तरह उनके हृदय में क्या भरा है साफ-साफ दिखाई पड़ता था।”
आजकल राजनीतिज्ञ उलझी हुई बातों को उलझे हुए शब्दों में ही जब मंचों से प्रकट करते हैं तो राजनीति उबाऊ दिखने लगती है। इसी के कारण नेताओं पर लोगों के विश्वास में कमी आई है। ऐसे में श्री बाबू का व्यक्तित्व आज के राजनीतिक लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत हो सकता है।
जब 1911 में ब्रिटेन के युवराज प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आए तो उस समय के अनेक क्रांतिकारी नवयुवकों ने उनकी भारत यात्रा का विरोध किया था। इसको लेकर देश में विभिन्न क्षेत्रों में बहिष्कार आंदोलन चलाया गया था। डॉ श्रीकृष्ण सिंह ने इस आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया था। इसी के चलते उन्हें 1911 में ही पहली बार जेल जाने का अनुभव हुआ। उन्होंने सहर्ष जेल यात्रा की और अनेक क्रांतिकारी नौजवानों को देश के लिए काम करने की प्रेरणा दी। डॉ विधानचंद्र राय ने उनके बारे में लिखा है कि श्री बाबू ने उस राज्य के लिए अर्थात बिहार के लिए अपने को समर्पित कर दिया था, जिसके शासक थे । उनके तौर-तरीके उनकी बुद्धिमत्ता अपने राज्य के प्रति उनका स्नेह भाव किसी भी प्रशासन के लिये बहुमूल्य सिद्ध हो सकते थे ।
1911 ई0 के मार्च महीने में विजयवाड़ा कांग्रेस ने निर्णय लिया कि तिलक स्वराज्य फंड के लिए एक करोड़ रूपया एकत्र किया जाए। जिससे कि देश को स्वाधीन कराने के आंदोलन को गति प्रदान की जा सके। तब बिहार प्रान्तीय कांग्रेस समिति द्वारा निर्मित तिलक स्वराज्य फंड के डा0 श्रीकृष्ण सिंह संयोजक बनाये गये थे । इसका कारण यह था कि श्रीकृष्ण सिंह जन सामान्य से जुड़े हुए नेता थे। वह जननायक थे। लोग उनकी बातों पर विश्वास करते थे। देश व समाज के प्रति उनके हृदय में विशेष योजनाएं वास करती थीं। उनके भीतर अद्भुत कर्मठता का भाव था।
उनकी मान्यता थी कि “आजाद होने के बाद हमें जो काम करना है वह निर्माणात्मक है । पहले हमें सिपर्फ जोश पैदा करना था और वह काम कुछ आसान था । आज हमें अपने देश के करोड़ों लोगों के नजदीक पहुँच कर उनके हृदय तथा मस्तिष्क को छूना है ताकि आज उनके भीतर देश के निर्माण में योग देनेवाली जो शक्ति कुंठित होकर बैठी है । वह जीवन को सुन्दर बनाने के लिए काम करने की उत्कट इच्छा के रूप में प्रवाहित हो सके ।”
डा0 श्रीकृष्ण सिंह सन् 1917 ई0 में विधान परिषद और सन् 1934 ई0 में केन्द्रीय एसेम्बली के सदस्य चुने गये । देश की आजादी के इतने सालों पूर्व उन्हें यह सफलता अपनी कर्मठता और जननायक होने की छवि के कारण मिली थी। इतिहास हमें बताता है कि सन् 1931 ई0 का भारतीय संविधान जब 1 अप्रैल 1937 से लागू हुआ तो डा0 श्रीकृष्ण सिंह के प्रधान मंत्रित्व से ही बिहार में स्वायत्त शासन का श्रीगणेश हुआ था। इस प्रकार अपने परिश्रम और जन सेवा की भावना के चलते वह बिहार के स्वतंत्रता पूर्व के पहले प्रधानमंत्री ( जिसे बाद में मुख्यमंत्री कहा जाने लगा था ) बनने में सफल हुए थे।
वे जीवन की अंतिम घड़ी (31 जनवरी 1961) तक बिहार के मुख्य मंत्री के सम्मानित पद पर बने रहे । वास्तव में ऐसा होना भी उनके जननायक होने का एक ठोस प्रमाण है। यद्यपि यह भी एक इतिहास है कि 1938 में अंडमान निकोबार में राजनीतिक कैदियों को छोडे़ जाने के प्रश्न पर ब्रिटिश सरकार से जब उनके मतभेद हुए तो उन्हें अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। इसी प्रकार 1939 मे कांग्रेस के द्वारा जारी किए गए दिशा निर्देशों के अनुसार ब्रिटेन की नीति के विरोध में उन्होंने अपने पद से त्याग-पत्र दिया था। उनके बारे में डॉक्टर जाकिर हुसैन का कहना ठीक ही है कि ” डा0 श्रीकृष्ण सिंह देश की स्वतंत्रता के लिए संग्राम करने वाले वीर योद्धा आघुनिक बिहार के निर्माता तथा देश के एक प्रमुख नेता थे।”
वकालत के कार्य में रहते हुए भी देश सेवा के कार्य में लगे रहना उनके व्यक्तित्व की विलक्षणता थी। इसका अभिप्राय था कि उन्हें राजनीति और अपने विधि व्यवसाय दोनों का ध्यान रखते हुए बहुत अधिक अध्ययन भी करना पड़ता था। स्वभाव से अध्ययनशील होने के कारण उनका ज्ञान भंडार भी अद्भुत था। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उनके ज्ञान भंडार से प्रसन्न होकर ही उनके बारे में कहा है कि श्री बाबू का ज्ञान बड़े-से-बड़े पुस्तकालय की पुस्तकों में समाहित ज्ञान के समान था । उनकी विद्वत्ता और अपने विषय में पकड़ होने के कारण ही उन्हें पटना विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टर आफ लॉ की उपाधि प्रदान की गई थी।
नव बिहार के निर्माता के रूप में उन्हें भारत का इतिहास सदैव स्मरण रखेगा। उन्होंने मां भारती के सच्चे सपूत के रूप में जन्म लिया और इसी रूप में संसार से विदा हुए। इसलिए अपने पदीय दायित्वों।का निर्वाह करते हुए चाहे उनका क्षेत्राधिकार बिहार रहा हो, परंतु उनकी देशभक्ति का लाभ सारे देश को मिला। उनके विषय में विद्वानों की यह मान्यता पूर्णतया सत्य ही है कि ” बिहार केसरी डा0 श्रीकृष्ण सिंह का उदात्त व्यक्तिगत, उनकी अप्रतिम कर्मठता एवं उनका अनुकरणीय त्याग़ बलिदान हमारे लिए एक अमूल्य धारोहर के समान है जो हमे सदा-सर्वदा राष्ट्रप्रेम एवं जन-सेवा के लिए अनुप्रेरित करता रहेगा । आज का विकासोन्मुख बिहार डा0 श्रीकृष्ण सिंह जैसे महान शिल्पी की ही देन है जिन्होंने अपने कर्मठ एवं कुशल करो द्वारा राज्य की बहुमुखी विकास योजनाओं की आधारशिला रखी थी । बिहार हमेशा उनका ऋणी रहेगा।”
उन्होंने आजादी के बाद 23 वर्ष तक बिहार राज्य की मुख्यमंत्री के रूप में सेवा की। इस दौरान उन्होंने राज्य के नव निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। अनेक ऐसे कार्य किया जिन्होंने उन्हें बिहार की जनता के बीच लोकप्रिय बनाया। अपने स्वभाव से बहुत अधिक विनम्र होने के उपरांत भी उन्होंने ऐसे अनेक कठोर निर्णय भी लिए जो उन्हें एक मजबूत नेता के रूप में स्थापित करने में सफल हुए।
अंत में उनके बारे में यह कहा जाना उचित ही है कि बिहार केसरी डॉक्टर श्री कृष्णा सिंह ने अपनी बहुआयामी प्रतिभा, विराट व्यक्तित्व, सेवा और साधानामय जीवन के कारण जो विराट यश और गौरव अर्जित किया था वह उनके विशाल और विलक्षण व्यक्तित्व के सर्वथा अनुरूप था । श्रीबाबू अब हमारे बीच नही हैं किन्तु उनका संदेश उनकी विचारधाराएं] उनके उच्च आर्दश सदैव हमारा मार्ग दर्शन करते रहेंगे ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )