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आज का चिंतन

यह कैसी दूरदर्शिता ?

कभी हमारा देश आर्य संस्कृति को अपनाकर गीता गाय , गंगा की रक्षा करने वाला देश हुआ करता था। स्वतंत्रता के पश्चात हमको ऊपरी तौर पर तो यह भ्रम बना रहा कि हम अब स्वतंत्र हैं । हमने सोचा कि अब गीता , गाय और गंगा की बातें देश में बढ़ – चढ़कर होंगी । परंतु वास्तविकता यह रही कि अपनी संस्कृति के विपरीत चलकर हमने सब कुछ विध्वंस करने का निर्णय ले लिया । विदेशी संस्कृति , विदेशी विचार , विदेशी सोच , विदेशी चिंतन , विदेशी भाषा , विदेशी भूषा आदि इस प्रकार के विदेशी अंधानुकरण ने हमारा सब कुछ चौपट करके रख दिया।
यहां पर गीता से अभिप्राय हमारी उस सनातन वैदिक परंपरा से है जो हमें ऋषि प्रणीत प्रणाली के साथ समन्वय बनाने के लिए प्रेरित करती है। वैदिक संस्कृति का स्रोत वेद है और वेद देश को चलाने के लिए कृषि और ऋषि के दो सूत्रों को देकर हमसे कहता है कि कृषि को पशुपालन के साथ जोड़कर चलो , तुम पशुओं का सहारा बनो और पशु तुम्हारे सहारे बनें । इस प्रकार प्रकृति में समन्वय की परंपरा को जीवित बनाए रखो । जबकि ऋषि उस विचार का नाम है जो हमें ही इहलोक और परलोक में उन्नति के सभी सूत्रों और मूल्यों से अवगत कराता है, और जीवन को उन्नति में ढालकर जीने के लिए प्रेरित करता है । ऋषि और कृषि की अनूठी संस्कृति में वेद ज्ञान का तो उत्कृष्ट स्थान था ही साथ ही गाय अर्थात वे सभी पशु जो कृषि में हमारे लिए सहायक हो सकते थे, इस संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसी प्रकार गंगा का अभिप्राय यहां पर यह है कि जो भी प्राकृतिक शक्तियां हमारे कल्याण में लगी हुई हैं , उन सबका सम्मान करना भी हमारा लक्ष्य होगा। उन्हें किसी भी प्रकार से हम प्रदूषित नहीं करेंगे ।
ऋषि का एक अर्थ यह भी है कि हम प्रत्येक प्रकार के वैचारिक प्रदूषण से मुक्त रहेंगे । किसी के प्रति चोरी , चुगली , ईर्ष्या , घृणा , द्वेष आदि के भावों को अपने भीतर स्थान नहीं देंगे । पवित्र होने के लिए परमपिता परमेश्वर का स्मरण अवश्य करेंगे । उससे अपने हृदय की पवित्रता की प्रार्थना नित्य प्रति करते रहेंगे । जिससे कि मैं एक व्यक्ति के रूप में समाज के लिए उपयोगी बना रहूँ । इसी से पारिवारिक , सामाजिक , राष्ट्रीय और वैश्विक परिवेश प्रत्येक प्रकार के प्रदूषण से मुक्त रहता है । इस प्रकार भारतीय संस्कृति का ऋषि नाम का सूत्र संपूर्ण विश्व को एक व्यवस्था देता है । हृदय की पवित्रता प्रदान कर नर को नारायण बनाता है और मनुष्य मनुष्य के बीच प्रेमपूर्ण संबंध स्थापित करता है । इसी प्रेमपूर्ण संबंध को हमारी संस्कृत में विश्व – बंधुत्व की भावना कहा जाता है।
कृषि नाम का भारतीय संस्कृति का सूत्र भी हमें प्राणीमात्र के प्रति दयालु बनने की प्रेरणा देता है , उनके साथ एक ऐसा समन्वय बनाकर चलने के लिए प्रेरित करता है जो इस सृष्टि के संचालन के लिए आवश्यक है । प्रत्येक प्राणी के जीवन का सम्मान करना केवल और केवल भारतीय संस्कृति ही सिखाती है । कृषि का अभिप्राय ट्रैक्टर से धरती का पेट फाड़कर उससे अनाज ले लेना नहीं है , अपितु कृषि से जुड़े सभी प्राणियों के जीवन का संरक्षण करने का एक मौलिक संदेश भी भारत की कृषि संस्कृति में अंतर्निहित है। स्वतंत्रता के उपरांत भारत की कृषि और ऋषि की दैवीय संस्कृति को मिटाने का हर संभव प्रयास किया गया । फलस्वरूप मानव मानव के प्रति नीरस हो गया। जिससे यह नीरसता संबंधों में भी ठंडापन ले आई । आज की स्थिति यह है कि पिता – पुत्र , पति – पत्नी , मां – बेटी , पिता – पुत्री , भाई – भाई , बहन – भाई आदि सभी के संबंध आर्थिक आवश्यकताओं पर निर्भर होकर रह गए हैं । संबंधों में स्वार्थपरता इस सीमा तक प्रविष्ट कर गई है कि यदि किसी के किसी के साथ बैठने से आर्थिक हित पूरे हो रहे हैं तो मित्रता है , अन्यथा नहीं। वासना के वशीभूत होते ही बेटे – बेटी माता-पिता से दूर भाग जाते हैं ।वासना की अंधी कोठरी से वह तब बाहर झांकते हैं , जब सारा शरीर व स्वास्थ्य चौपट हो चुका होता है। तब तक पता चलता है कि माता-पिता या तो स्वर्ग सिधार चुके हैं या फिर वृद्ध – आश्रमों में पहुंच चुके हैं । इतनी देर में माता – पिता की आंखों के आंसुओं से निकली गंगा – यमुना उनके लिए बद्दुआओं की कितनी बाढ़ छोड़ गई और कितना विध्वंस उनके जीवन का कर गई ? – संभवत: उन्हें भी पता नहीं होता ।
स्वतंत्रता के पश्चात भारत में जो नेतृत्व उभरा उसे बहुत दूरदर्शी नेतृत्व कहा गया। हमको बार-बार यह पढ़ाया गया कि वह आधुनिक भारत के निर्माता थे ? यदि उन दूरदर्शी और आधुनिक भारत के निर्माता नेताओं के कारण ही आज के सभी मानवीय संबंध टूट – फूट कर वृद्ध आश्रमों में सिसक रहे हैं तो यह कैसी दूरदर्शिता थी ? उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहने वाले लोगों से उचित रूप से पूछा जा सकता है कि उन्होंने यह कैसा भारत निर्माण किया था जो आज अपने हाल पर अपने आप ही रो रहा है ? इसे हम भारत का निर्माण नहीं कह सकते हैं , यह तो उनकी नीतियों से हो गया भारत का विध्वंस है , जो हमारे सामने पड़ा है ।
आधुनिक भारत के निर्माता कहे जाने वाले इन्हीं नेताओं की तथाकथित दूरदर्शी नीतियों के चलते कृषि ट्रैक्टर से धरती का पेट फाड़कर हमारा पेट भर रही है । जैसे हमारे वृद्धजन आज उपेक्षा का शिकार हैं , और वह वृद्ध – आश्रमों की ओर बढ़ रहे हैं , वैसे ही हमारे गाय , बैल , बछड़े भी उपेक्षा का शिकार होकर उसी किसान के भाले खा रहे हैं , जो कभी उन्हें अपने लिए देवता समझा करता था । कहने का अभिप्राय है कि भारत की कृषि और ऋषि दोनों प्रकार की संस्कृतियों का विनाश करके आज हम जिस भारत में खड़े हैं , वह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारकर हुए घावों को सहला रहा है । सब एक ऐसी आग से झुलस रहे हैं , जिसमें धुंआ नहीं मिलता । सब का दम घुट रहा है।
अपनी मूर्खताओं में सुधार करते हुए अब हम रासायनिक खादों के उत्पादों से होने वाली हानियों को समझने का प्रयास कर रहे हैं । इसलिए अब गाय के महत्व को समझते हुए उसके गोबर से तैयार फल सब्जियों को लेने की ओर बढ़ रहे हैं ।
इसके उपरांत भी गोधन संरक्षण की ओर किसी का ध्यान नहीं है । मशीनी खेती जिस प्रकार निर्मम होती है , वैसे ही उसके उत्पादन से निर्मम बना मानव समाज संपूर्ण प्राणीमात्र के प्रति निर्मम हो चुका है । अब सरकार नई मूर्खता कर रही है । गोवंश को लोगों को ही पालने के लिए प्रेरित ना करके उसके लिए भी वैसे ही स्थान बना रही है जैसे वृद्धाश्रम बनाए जा रहे हैं ।
मानव के बच्चों को माता-पिता को पालने या उनका वृद्धावस्था में ध्यान रखने की प्रेरणा न देकर मानव समाज को हृदयहीन बनाया जा रहा है । लोगों को आज नहीं तो कल यह सत्य अवश्य ही समझ में आएगा कि हमारे बुजुर्गों ने खेती को पशु आधारित रखकर ही समझदारी की थी । उन्होंने पशु जगत के साथ समन्वय स्थापित कर रासायनिक खादों की मूर्खता की कल्पना तक भी नहीं की थी ।
हमने परिवार नाम की संस्था को वैश्विक – परिवार की एक इकाई के रूप में स्थापित किया । फिर पशु जगत और इस वैश्विक परिवार के बीच एक नया प्राणतत्व संचरित किया । जिसका नाम हमने प्रेम दिया । इस प्रेम नाम के तत्व के लिए हमने स्वार्थ को खूंटी पर टांग दिया । इस संस्कृति के निर्माता हमारे पूर्वज परमार्थ को गले लगा कर भगवत भजन करने लगे । इस भगवत भजन से ही भारत की याज्ञिक संस्कृति का निर्माण हुआ । जिसमें सब एक दूसरे के लिए समर्पित होकर काम करते हैं । सबकी प्रार्थनाएं भी सब के लिए होती हैं । भारत के लोकतंत्र का प्राण तत्व भी यही है कि सब सबके लिए प्रार्थना करें । सब सब के कल्याण के लिए समर्पित हो जाएं ।कम्युनिस्ट जगत ने और भारत में कांग्रेसी सरकारों ने भारतीय संस्कृति के इस मूलमन्त्र को कभी नहीं समझा ।उन्होंने नई दुनिया बसाने का नया संकल्प लिया और आज उनकी ‘ नई दुनिया ‘ स्वयं ही किंकर्तव्यविमूढ़ की अवस्था में खड़ी है । उसे रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है । सर्वत्र अंधकार छा चुका है। कहते हैं कि कम्युनिस्टों ने अपनी विचारधारा को लागू करने के लिए अर्थात नई दुनिया बसाने के लिए अब तक लगभग 10 करोड लोगों का नरसंहार किया है।
उन्होंने दुनिया को सपना दिखाया कि हम नई सुसभ्य व सुसंस्कृत दुनिया बसाएंगे ? इसी मूर्खता को इस्लाम और ईसाइयत ने भी अपनाया । उन्होंने भी अपने मजहब के प्रचार- प्रसार के लिए करोड़ों – करोड़ों लोगों का नरसंहार किया । इन बेचारों को कौन समझाए कि खून बहाकर कभी सुसभ्य और सुसंस्कृत दुनिया का निर्माण नहीं हो सकता । सुसभ्य और सुसंस्कृत दुनिया बसाने के लिए तो प्रेम की गंगा ही बहानी पड़ेगी । वह प्रेम की गंगा भारत के गीता , गाय और गंगा अर्थात ऋषि और कृषि की संस्कृति के पवित्र समन्वय से ही बहायी जानी संभव है । भारत को चाहिए कि वह मूर्खों की जमात से यथाशीघ्र बाहर निकले ।
क्योंकि हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा ?

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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